जीवन की क्षणभंगुरता और आत्मज्ञान की ओर यात्रा। यह विचारणीय कहानी बहुत ही मार्मिक है धैर्य से विवेक की कुशाग्रता के लिए अवश्य पढ़ें और भगवान चित्रगुप्त वंशज-अमित श्रीवास्तव की कलम की जो भी लेखनी अच्छी लगे शेयर करें ताकि किसी भी व्यक्ति के जीवन में सुख-समृद्धि व ढ़ेरों खुशियां प्रदान करने में मदद मिल सके। इस कहानी के पात्र का नाम काल्पनिक है इस कहानी को पढ़िए अंत तक एकाग्रचित हो पढ़ने से इस लेखनी का मूल उद्देश्य खुद समझ सकते हैं।
राजा कुशाग्र ने बहुत वर्षों तक अपने राज्य पर शासन किया था। समय बीतते-बीतते उसकी आंखों की ज्योति कम हो गई बाल भी सफेद हो गए दांतें टूट चुके थे और आंत भी कमजोर हो चुकी थी। फिर भी राज का मोह माया मन से जा नही था। एक दिन उसने अपने दरबार में एक भव्य उत्सव का आयोजन किया और अपने मित्र राजाओं को भी सादर आमंत्रित किया। उसने अपने गुरुदेव को भी बुलाया और मनोरंजन के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी बेलाबाई को भी बुलाया गया। नर्तकी की नृत्य कला के आयोजन में राजा के गुरु के पास कुछ नर्तकी को देने के लिए नही था इसलिए राजा ने अपने गुरुदेव को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दीं ताकि वे नर्तकी के अच्छे नृत्य और गायन पर उसे पुरस्कृत कर सकें। नर्तकी बेलाबाई का रातभर नृत्य और संगीत चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आने पर, नर्तकी ने देखा कि तबला बादक को झपकी आ रही है। यह देख बेलाबाई को डर हुआ कि कहीं संगीत के सूर के बिगड़ने पर राजा नाराज न हो जाए। तबले वाले को जगाने के लिए नर्तकी ने एक दोहा कही।
घड़ी गई थोड़ी रही, या मे पल पल जाय।
दो पल के कारणें, युं ना कलंक लगाय।
छोटे से दोहे ने बदल दी राजा और दरबार की सोच
इस दोहे का हिंदी में अर्थ है:

जीवन बहुत छोटा है और पल-पल फिसलता जा रहा है। इसलिए किसी छोटी-सी गलती या किसी पल के कारण किसी को बदनाम या कलंकित नहीं करना चाहिए। जीवन की क्षणभंगुरता को समझते हुए हमें किसी के प्रति कठोर निर्णय लेने से पहले सोच-समझकर व्यवहार करना चाहिए।
इस दोहे ने सभी को गहराई से प्रभावित किया। तबले वाला तुरंत सतर्क होकर तबला बजाने लगा, लेकिन इस दोहे का प्रभाव केवल वहीं तक सीमित नहीं रहा। राजगुरू ने जब यह दोहा सुना और अर्थ निकाला तो वो अत्यधिक प्रभावित हुआ। गुरु ने अपने पास की सारी स्वर्ण मुद्राएं नर्तकी को अर्पण कर दीं। इसके बाद, राजकुमारी ने दोहे से प्रभावित हो अपना नौलखा हार नर्तकी को भेंट किया, और युवराज ने भी अपना मुकुट उतारकर नर्तकी को समर्पित कर दिया।
राजा कुशाग्र यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया। उसने सोचा, “रात भर से नृत्य चल रहा है, लेकिन एक साधारण से दोहे ने सभी को इतना प्रभावित कर दिया कि वे अपनी मूल्यवान वस्तुएं नर्तकी को भेंट कर रहे हैं। राजा ने नर्तकी से कहा, “हे नीच नर्तकी एक दोहे के माध्यम से तुमने सबको लूट लिया।
यह सुनकर राजगुरू की आंखों में आंसू आ गए। राजगुरू ने कहा, हे राजन इसे नीच नर्तकी मत कहो। अब यह मेरी गुरु बन गई है, गुरु की निंदा सुनना शिष्य के लिए पाप के समान है, अपनी इस नर्तकी गुरु से प्राप्त ज्ञान ने मेरी आँखें खोल दी हैं। मैं वर्षों तक जंगलों में भक्ति करता रहा और अब अपने जीवन के अंतिम समय में आपके बुलवाए पर नर्तकी का मुजरा नृत्य गान देखने सुनने यहां आ गया हूँ। यह दोहा मुझे चेतावनी दे रहा है कि मैंने अपनी साधना को नष्ट करने का प्रयास किया है। अब मैं यहाँ से जा रहा हूँ। यह कहकर गुरुदेव ने अपना कमंडल उठाया और जंगल की ओर प्रस्थान कर गए।राजकुमारी ने भी अपनी बात कही, “पिताजी, मैं जवान हो चुकी हूँ और आपने अभी तक मेरा विवाह नहीं किया। आज रात मैं अपने राज्य के महावत के साथ भागकर अपना जीवन बर्बाद करने वाली थी, लेकिन इस नर्तकी के दोहे ने मुझे सुमति दी। मैंने सोचा कि जल्दबाज़ी करने से अच्छा है थोड़ा और धैर्य रखूं। हो सकता है, कल मेरा विवाह हो जाए।”राजा का एकलौता पुत्र अपने मन की बात कह सुनाई उसने कहा हे महाराज आप वृद्ध हो गए हैं, फिर भी आपने मुझे राजगद्दी नहीं दी। आज रात मैं आपके सिपाहियों के साथ मिलकर आपकी हत्या करने वाला था, लेकिन इस दोहे ने मुझे यह समझाया कि थोड़े समय के बाद तो राज मुझे ही मिलना है। क्यों मैं आपके खून का कलंक अपने सिर पर लूं? सबकी बातों को सुनकर राजा कुशाग्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। राजा कुशाग्र के मन में नर्तकी बेलाबाई की दोहे ने प्रभाव डाला और तुरंत अपने पुत्र का राजतिलक करने की घोषणा कर दी। उसी क्षण राजा कुशाग्र अपने युवराज का राजतिलक किया और अपनी पुत्री को दरबार में उपस्थित राजकुमारों में से अपनी इच्छा के अनुसार किसी को वर रूप में चुनने की आज्ञा दी। राजकुमारी ने ऐसा ही किया। इसके बाद, राजा ने सब कुछ त्याग कर जंगल की ओर प्रस्थान किया और गुरुदेव की शरण में चला गया।यह सब देखकर नर्तकी के मन में भी वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसने सोचा, “मेरे एक दोहे से इतने लोग सुधर गए, लेकिन मैं स्वयं क्यों नहीं सुधर पाई?” उसी समय नर्तकी ने निर्णय लिया कि वह अब नृत्य करना छोड़ देगी। उसने भगवान से प्रार्थना की, हे प्रभु, मेरे पापों को क्षमा करो। अब से मैं केवल तेरा नाम सुमिरन करूंगी।
इस कहानी का निष्कर्ष:
इस कहानी का निष्कर्ष यह है कि ज्ञान किसी भी रूप में आ सकता है, और उसे प्राप्त करने के लिए केवल मन की शुद्धि और जागरूकता की आवश्यकता होती है। राजा कुशाग्र, गुरुदेव, राजकुमारी और युवराज, सभी जीवन के विभिन्न मोड़ों पर गलत निर्णय लेने जा रहे थे, लेकिन एक साधारण नर्तकी के दोहे ने उन्हें सही मार्ग दिखाया। इससे यह शिक्षा मिलती है कि जीवन की क्षणभंगुरता को समझते हुए हमें सही समय पर सही निर्णय लेने चाहिए और जीवन में धैर्य और विवेक से काम लेना चाहिए। इस कहानी से यह भी स्पष्ट होता है कि सत्य और ज्ञान किसी भी व्यक्ति या स्थान से प्राप्त हो सकता है, भले ही वह हमें अपेक्षित न हो।
Click on the link कर्म का फल जानने के लिए यहां क्लिक किजिये पढ़िए एक क्लिक में।