आजकल विज्ञापनों की दुनिया अपनी विज्ञापनकला को लुभाने और डरावने मंतव्य के साथ साइकोलॉजिकल इंपैक्ट छोड़ने वाले बन रहे हैं।
इन दिनों धड़ल्ले से यूट्यूब और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म पर जुआ खिलाने वाले आमंत्रित विज्ञापन; जैसे- लूडो खेलो और जीतो कैशमनी! युवाओं को बर्बाद करने की अपनी चाल पर साइकोलॉजिकल रूप से कामयाब हो रहे है। कैश मनी जीतने की नकली सफलता से सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त किया जा रहा है। इन तथ्यों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि टीवी, विज्ञापन, फ़िल्मउद्योग अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे है। अक्सर यह सुनने को मिलता है कि समाज का आईना फिल्म है परन्तु फिल्मों का आईना समाज भी है। दरअसल एक दूसरे की प्रतिक्रिया है। जब प्रतिक्रिया एक दूसरे का साथ देने वाली और समाज को तोड़ने वाली बन जाए तो मीडिया माध्यमों को सोचना चाहिए कि उनकी नैतिकता समाज के प्रति क्या है?

गौरतलब है कि गैंबलिंग वाले इन विज्ञापनों के जरिए एक युवक अपने 96 लाख रुपए गॅंवा दिया है, इसकी ख़बर सोशलमीडिया पर वायरल हो रही है। इन तरह के अनेक उदाहरण सामने देखने को मिल रहे हैं, इसके बावजूद भी सरकार द्वारा इन गैंबलिंग वाले विज्ञापनों पर किसी तरह की रोक लगने की खबरें या कार्रवाई नज़र नहीं कर रही है।
दरअसल मीडिया अपने विज्ञापनों के बल पर ही साइकोलॉजिकल इफेक्ट के जरिए एक ऐसा खेल खेल रही है, जिसका अंत हताशा और निराशा के रूप में सामने दिखाई दे रहा है। जबकि मीडिया माध्यमों को सूचनाओं के आदान-प्रदान के दायित्व के साथ विज्ञापनों की नैतिकता पर भी ध्यान देनी चाहिए। जुआ खेलने वाले विज्ञापन युवा शक्ति को बर्बाद कर रहा है। समाज को बिखरने को तोड़ने वाले विज्ञापनों पर चाबुक मारना और लगाम लगाना आवश्यक है, नहीं तो बेलगाम घोड़े की तरह यह माध्यम सबको कुचलता हुआ आगे निकल जाएगा। प्रयागराज से अभिषेक कांत पांडेय।