एक बहुत ही दानवीर धर्मनिष्ठ राजा के राजमहल के द्वार पर भीड़ लगी हुई थी। प्रातःकाल से भीड़ का इकट्ठा होना शुरू हुआ था, धीरे-धीरे अब दोपहर हो गई थी। और लोगों की भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। जो भी आकर खड़ा हुआ वो खड़ा ही था, कोई वापस नहीं लौट रहा था। सारे नगर में उत्सुकता, कुतूहल कि राजमहल के द्वार पर क्या हो रहा है ? वहां एक बड़ी अघटनीय घटना घट गई थी। सुबह ही सुबह एक भिखारी ने अपना भिक्षा पात्र राजा के सामने फैलाया था। भिखारी तो बहुत होते हैं, लेकिन भिखारी का कोई चुनाव नहीं होता, कोई शर्त नहीं होती। उस भिखारी की शर्त भी थी। उसने राजा से कहा था, मै भिक्षा एक ही शर्त पर लेना स्वीकार करता हूं, और वह शर्त यह है कि मेरा भिक्षापात्र यदि पूरा भर सको तो ठीक है, अन्यथा मै दूसरे द्वार पर चला जाऊंगा। स्वभावतः राजा को यह बात सुन कर बहुत हंसी आ गई थी। राजा के पास क्या कमी थी ? जो एक भिखारी के छोटे से पात्र को न भर सके।

राजा अत्यंत अभिमान से भर कर उस भिक्षुक को भिक्षा देने के लिए कहा–जब ऐसी ही शर्त है तो तेरे भिक्षापात्र को अन्न से नहीं धन से भरूंगा। स्वर्ण अशर्फियों से भरूंगा। वह भिखारी बोला कि पहले मेरी शर्त ठीक से समझ लिजिए, पीछे कहीं पछताना न पड़े। मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा भिक्षापात्र भर जाए, पात्र अधूरा भरा हुआ लेकर मैं नहीं जाऊंगा। राजा ने अपने वजीर को कहा, जाओ स्वर्ण अशर्फियों से इसके भिक्षापात्र को भर दो। स्वर्ण अशर्फियां लाई गईं, भिक्षुक के पात्र में डाली गईं। लेकिन बड़ी हैरानी की बात हो गई। पात्र में डाली गईं स्वर्ण-मुद्राएं न मालूम कहां खो गईं, पात्र खाली का खाली रहा। फिर तो एक कठिनाई खड़ी हो गई थी। वजीर दौड़े-दौड़े स्वर्ण मुद्राएं लाते रहे, और पात्र भरा जाता रहा। लेकिन भर भी नहीं पाता था कि वह खाली हो जाता था। दोपहर हो गई थी। सारे नगर में उत्सुकता भर गई। राजा कि राजधानी के लोग द्वार पर इकट्ठे हो गए। ऐसा दिखाई पड़ता था कि राजा उसके पात्र को भर ही नही पाएगा। राजा भी घबड़ाया। उसने बड़े-बड़ युद्ध जीते थे। जीवन में बड़ी लड़ाईयां ली थीं। लेकिन ऐसी स्थिति राजा के सामने कभी खड़ी नही हुई थी। आज विजय की कोई संभावना न थी, उस भिक्षु से हारना ही पड़ेगा। लेकिन अंतिम क्षण तक राजा भी कोशिश करने को आबद्ध था। उसने अपनी सारी तिजोड़ियां खाली करवा दीं। साम होने को आ गई, सूरज ढलने लगा था। और राजा की हार भी निश्चित हो गई थी। उसकी तिजोड़ियां खाली हो गई थीं, लेकिन भिक्षुक का पात्र अभी भी खाली ही था। अंततः राजा इच्छुक के पैरों पर गिर पड़ा। इतना बड़ा सम्राट जब उस भिखारी के पैरों पर गिर पड़ा और उससे कहा, क्षमा कर दिजिये मुझे। अभिमान में मुझसे भूल हो गई। मैं नहीं भर सकूंगा इस पात्र को, आप किसी और के द्वार पर चले जाएं। लेकिन जाने के पहले मुझ पराजित को एक छोटी सी बात बताते जाईए। अगर आप बता देंगे वह बात, तो मैं समझूंगा आप मुझे क्षमा कर दिए। छोटा सा प्रश्न मेरा यह है कि यह भिक्षापात्र किस जादू से बना है ? किस मंत्र से बना है ? क्या है इसका रहस्य ? क्या है मिस्ट्री ? भरता क्यों नहीं है यह पात्र ?उस भिक्षुक ने कहाः- कोई रहस्य नहीं, कोई मंत्र नहीं, कोई जादू नहीं। मैं एक मरघट से निकल रहा था, वहां आदमी की खोपड़ी पड़ी मिल गई। उसी से मैंने इस पात्र को बना लिया है। मैं खुद ही हैरान हूं कि यह भरता क्यों नहीं है ? फिर मुझे पता चला कि आदमी की खोपड़ी कुछ ऐसी है कि वह कभी भी नहीं भरती। इसलिए यह पात्र भी नहीं भरता है। इस कहानी से इसलिए मैं अपनी बात को शुरू करना चाहता हूं, क्योंकि मैं उसी शिक्षा को ठीक शिक्षा मानता हूं जो आदमी की खोपड़ी को भरने का उपाय बता सके। लेकिन आज तक हमने मनुष्य को जो शिक्षा दी है, उससे मनुष्य का हृदय भरता नहीं है। बल्कि और खाली हो जाता है। जैसे राजा हार गया था उस भिखारी के सामने, इसी प्रकार मनुष्य का कभी न भरने वाले मन के सामने आज तक की शिक्षा भी हार गई है। अब तक हम मनुष्य को इस भांति निर्मित नहीं कर पाए कि वह तृप्त हो सके जीवन से संतुष्ट हो सके भरा-पूरा हो सके, फुल फिलमेंट मिल सके उसे जीवन में। वह यह कह सके कि जीवन में मैं खाली नहीं रहा, भर गया हूं। ऐसी शिक्षा हम आज तक विकसित नहीं किया जा सका। इसलिए सारी मनुष्य जाति दुखी और पीड़ित है। जीवन में प्रेम का साक्षात्कार किजिये जो है उसी में तृप्त होते रहिए। मन कभी भी अतृप्त ही रहता है इसपर मन की नही खुद से काबू किजिये।