सम्यक दृष्टि का परिणाम

Amit Srivastav

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एक धर्म-परायण राजा था, जिसका नाम राजा भर्तृहरि था। वह बहुत प्रभावशाली, बुद्धि-विवेक से परिपूर्ण राज वैभव से संपन्न था। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे। एक दिन राजा भर्तृहरि अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं। बहुत विशाल मेरा परिवार है, ढ़ेरों सुख समृद्ध है मेरा अंत:पुर, बहुत मजबूत है मेरी सेना हर किसी की सेना से बड़ी हैं, बहुत बड़ा है मेरा राजकोष। अहो भाग्य! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात? मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर देव लोक की अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी। मेरी इतनी सुन्दर सुन्दर रानियाँ हैं, मेरा हर वचन आदेश होता है।

सम्यक दृष्टि का परिणाम

राजा भर्तृहरि कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था। अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया। तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी। जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता ही है। राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुनाते दोहरा रहा था – चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा: मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं। कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है, लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण की लाइन बन नहीं रहा था। संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा भर्तृहरि के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत भाषा का ज्ञानी और आशु कवि था। समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था। राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि ह्दय उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह उस वक़्त भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने आया है। अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी की, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी, सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति।। राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत: किस पर गर्व कर रहे हो? चोर की इस एक पंक्ति ने राजा भर्तृहरि की आंखें खोल दीं। उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। वह चारों ओर आश्चर्यजनक आंखों से देखने लगा – ऐसी ज्ञान की बात किसने कही ? कैसे कही? राजा ने आवाज दी, यहां जो भी छूपा है, वह मेरे सामने उपस्थित हो। चोर सामने आ कर खड़ा हो गया। फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला, हे राजन ! मैं आया तो था चोरी करने, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा। हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दिजिये। राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो।

सम्यक दृष्टि का परिणाम

तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता – यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया। गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा – आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् – इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है। तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं। चोर बोला, राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी वैरागी हो गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। राजा भर्तृहरि और चोर दोनों संन्यासी बन गए। एक ही पंक्ति ने दोनों के सुख मार्ग का दर्शन करवा दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा भर्तृहरि का दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन – वैभव, भोग – विलास को ही सब कुछ समझ रहा था। ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा, दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ, पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..। मन वैरागी होत है तन बैरागी नाहीं चली कलम आज है धर्म कर्म के नाम। अगर भगवान चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव की हर प्रकार की सुयोग्य सुस्पष्ट लेखनी पसंद आती हो तो बेल आइकन को दबा एक्सेप्ट किजिए ताकि हमारी न्यू अपडेट आप तक पहुंच सके।

सम्यक दृष्टि का परिणाम

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