नीता 13 साल की है। बार-बार अपनी मां को बताना चाहती है कि उसे ट्राली वाला गली तक छोड़ कर ही चला जाता है, मां ट्राली वाले से कहो की घर तक छोड़ दिया करे, लेकिन नीता की मां ने नीता की बात को अनसुना कर दिया और कहा कि सड़क से गली तक तो दो-मिनट का रास्ता है, थोड़ा़ पैदल चलकर आ जाया कर, कह कर नीता की मां अपने काम में लग जाती है। वहीं नीता कहती मैं स्कूल पढ़ने नहीं जाउंगी, यह कहकर नीता अपने कमरे में चली जाती है। नीता उदास रहने लगती है। उसका किसी काम में मन नहीं लगता है। वह कमरे में अकेले बैठी रहती है। उसके व्यवहार में आए परिवर्तन को कोई समझ नहीं पा रहा है।
समझे अपने बच्चों कि मनोभाव अभिषेक कांत पांडेय कि कलम से अभिभावकों को समर्पित लेखनी।
आखिर नीता कहना क्या चाहती है। क्या बार-बार अपनी मां से कहने पर भी नीता की मां कुछ समझ नहीं पा रही है। नीता इस समय किसी समस्या से जूझ रही है। यह मानसिक समस्या है, इसका कारण पता चलता है कि नीता जब स्कूल से आती है तब गली में उसे लड़के छेड़ते हैं और फब्तियां कसते हैं। नीता यह बात अपनी मां से खुलकर नहीं बता पाती है। नीता के मन में यहीं से डर बैठ गया और वह बार-बार आपने मां को कहती है लेकिन उसकी मां समझ नहीं पाती है। जब उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाया जाता है, तब यह बात समाने आती है। नीता के मामले में कहा जा सकता है कि बच्चे इस उम्र में कई शारीरिक एवं मानसिक बदलाव की ओर बढ़ रहे होते हैं, ऐसे में माता पिता को खासतौर पर अपने बच्चों के व्यवहार और उनकी समस्याओं को समझना जरूरी है। देखा जाए तो घर से बाहर स्कूल, गली-मुहल्ले, परिवार, रिश्तेदार आदि कोई भी बच्चों के साथ गलत व्यवहार कर सकता है। अगर बच्चे किसी व्यक्ति के अनैतिक व्यवहार का शिकार होते हैं तो वह इस बात को बताने में असमर्थ होते हैं और धीरे -धीरे ऐसे बच्चे तनाव में आ जाते हैं।

बच्चों में एकाएक बदले व्यवहार पर रखे नजर:
बच्चों के व्यवहार में एकाएक परिवर्तन आता है, जैसे-किसी खास जगह स्कूल, पार्क या आस-पड़ौस में जाने से कतराते हैं। उनके व्यवहार में डर या अकेलापन आ जाता है। इस तरह के लक्षण उनके मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता है, यहां पर माता और पिता को अपने बच्चों के व्यवहार और उनकी बदली हुई गतिविधियों जैसे अकेले रहना, किसी से बात नहीं करना, अपने में खोया रहना, पढाई में मन न लगना आदि से समझ लेना चाहिए कि बच्चे में किसी न किसी चीज को लेकर समस्या है। जिसका समाधान जल्द से जल्द करना जरूरी है। बच्चों और युवाओं में मनोवैज्ञानिक समस्यओं के कारण उनके विकास और सोच पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चों के इस तरह एकाकए आए व्यवहार में बदलाव की जड़ तक जाएं, मनोचिकित्सक से काउंसिलिंग भी कराई जा सकती है।
हम घिरे है मनोवैज्ञनिक समस्याओं से:
आधुनिकता के इस भागदौड वाली जिंदगी में हम कई तरह की समस्याओं से घिरे हुए हैं। इन समस्याओं के समाधान में हम तनाव में जीने लगे हैं। यह तनाव एक तरह से मनोवैज्ञानिक प्रभाव हमारे मस्तिष्क पर डालता है, जिससे हम डिफ्रेंशन जैसी नई बीमारी से जूझने लगते हैं, जिस तरह से हम शारीरिक रूप से बीमार होने पर तुरंत डाक्टर से परामर्श लेते हैं, इलाज कराते हैं और मेडिसिन खाकर हम शारीरिक बीमारी से ठीक हो जाते हैं। लेकिन वास्तव में देखा जाए, जब हम किसी एक दिशा में सोचते हैं और यह सोच नकारात्मकता में बदल जाती है, इस तरह हम स्वयं अपनी मस्तिष्क पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं और हम मानसिक रूप से तनाव महसूस करते हैं। यह तनाव हमारे मन और मस्तिष्क में इस कदर हावी हो जाता है कि हम अपने को मानसिक रूप से स्वस्थ समझते हैं लेकिन मनोवैज्ञानिक इसे गंभीर समस्या मानते हैं और इसके समुचित इलाज के लिए साइकोलाजिस्ट से काउंसिंलिंग कराना जरूरी हो जाता है। भारत में नई जीवन शैली के चलते आज यहां भी मस्तिष्क से संबंधित बीमारियां बढ़ी हैं।
साईकोलाजिस्ट के पास है इलाज:
मानसिक समस्या को लेकर आज भी लोगों में कोई जागरूकता नहीं है। समाज में बढ़ती मनोवैज्ञानिक समस्याओं और उसके समाधान के लिए अभी बहुत छोटे स्तर पर प्रयास हो रहे हैं। इस समस्याओं के कारण डिफ्रेसन यानी तनाव की समस्या आज भारत के शहरी इलाकों में 10 साल के बच्चे से लेकर बुजुर्गों तक में पाई जाती है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि भारत में बढती मनोवैज्ञानिक समस्याओं के समाधान के लिए व्यापक तौर पर योजनाओं का अभाव है। मनोविज्ञान मानव के व्यवहार का अध्ययन करता है जिसमें हर आयु वर्ग के लोगों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। आज के जिंदगी में हम काम के कारण अपने ही लोगों से बातचीत करने का समय भी नहीं निकाल पाते हैं। देखा जाए तो कई ऐसे परिवार जहां पर माता और पिता दोनों नौकरी करते हैं और ऐसे में उनके लिए, अपने बच्चों से बात करने के लिए समय नहीं होता है। परिवार के सदस्य आपस में बात केवल फीस जमा करना है, सब्जी लानी है, होमवर्क किया की नहीं आदि निर्देश और सूचना तक ही बात सीमित रह जाती है। इस तरह के परिवारों में बच्चे मनोवैज्ञानिक समस्या के शिकार हो जाते हैं। उन्हें अपना समय पढ़ाई के अलावा टीवी देखना या मोबाइल में बात करना या घंटों अकेले बैठे रह बिताना पड़ता है। जिससे बच्चों का सामाजिक परस्परता बनाने का क्रमिक विकास बाधित होता है। घर में एक दूसरे से बातचीत नहीं होने से बच्चों के व्यवहार में बदलाव आता और इस तरह बच्चा अपने फैंटेसी यानी कल्पना के जीवन को ही सच मान बैठता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह की समस्याओं के उपज के कारण बच्चों में हिंसात्मक प्रवृति या दब्बूपन का शिकार या डर की मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रसित हो जाता है। इस स्तर पर बच्चों को उनकी इन समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए साइकोलाजिस्ट से काउसिंलिंग कराना जरूरी है। दुखद यह है कि आज भी भारत में मानसिक समस्याओं के प्रति जागरूकता की कमी है जिसके कारण हमारे समाज में इस तरह की समस्याओं के इलाज में संकोच हावी होता है, जहां पर इसे पागलपन की बीमारी से जोड़ दिया जाता है और परिवार, दोस्तों के सामने उसे हंसी का पात्र समझा जाता है। हमारे समाज में उस व्यक्ति या बच्चे को झक्की या पागल होने के साथ जोड़ दिया जाता है। इसके कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रसित बच्चों को, उनके माता-पिता काउंसलर के पास ले जाने में हिचकिचाते हैं।
बच्चों पर न बनाए प्रेशर:
आज हम ऐसे संसार में जी रहे है जहां प्रतिस्पर्धा इतना है कि हम अपने बच्चों पर अनावश्यक प्रेषर बनाते हैं। अच्छे मार्क लाना, विज्ञान और गणित जैसे विषयों में रूचि न होने पर भी इंजिनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए अभिभावक बच्चों पर प्रेशर डालते हैं। मनोवैज्ञानिक इस तरह की धारणा पाले हुए अभिभावकों को चेतावनी देते हैं कि बच्चे का क्रमिक विकास उसकी रूचि और क्षमता के अनुसार उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए। अगर कोई बच्चा कला या संगीत में अच्छा है तो उसे उसके इंट्रेस्ट के अनुसार ही आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करें लेकिन बच्चों के बहाने आज के अभिभावक अपने सपने पूरे करने के लिए बच्चों के रूचि का ध्यान नहीं रखते और उन्हें ऐसा करियर चुनने के लिए दबाव बनाते है जिसमें उनकी कोई रूचि नहीं होती है। ऐसे बच्चे अभिभावक के कहने पर करियर चुन तो लेते हैं लेकिन क्या वह ऐसे करियर में सफल हो पाएंगे, जिसमें उन्हें कोई रूचि नहीं है। देखा जाए तो हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था इसके लिए कम दोषी नहीं है। इस तरह के मामलों में करियर काउंसलर की सलाह लेना जरूरी हो जाता है। बच्चों के विकास के लिए उनके रूचि के मुताबिक उन्हें ढलने का मौका हमारी शिक्षा व्यवस्था का मूल मंत्र होना चाहिए। बच्चों को विज्ञान पढ़ना है या कला या संगीत या फोटोग्राफी, सिनेमा या खेल में रूचि है तो उन्हें उसी दिशा में बढ़ावा देना चाहिए। ये बातें हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हर एक बच्चे की अपनी रूचि और व्यक्तित्व होता है। अभिभावक को अपनी खुशी के लिए केवल बच्चों को माध्यम बनाना बंद कर देना चाहिए, अन्यथा आप अपने नौनिहालों के भविष्य के साथ जाने अंजाने में खिलवाड़ कर रहे हैं।