नमः पुरस्तात्पृष्ठे च नमस्ते पार्श्वयोर्द्वयो:।
अध उर्ध्वं चतुर्दिक्षु मातर्भूयो नमो नमः।।
हे आदिशक्ति, आद्या, आपको सामने, पीछे, दोनों पार्श्व भाग, ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं में बार बार नमस्कार है।
देवीपुराण के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र, आभूषण गिरे वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आया । इन इक्यावन शक्तिपीठों मे कामाख्या असम, पुर्णागिरि, महाकाली कलकत्ता, छिन्नमस्तिका रजरप्पा, ज्वालामुखी कांगड़ा, शाकम्भरी सहारनपुर, हिंगलाज बलूचिस्तान, त्रिपुरमालिनी पंजाब, त्रिपुर सुंदरी त्रिपुरा, ललिता प्रयागराज, गायत्री अजमेर पुष्कर, उमा कृष्ण नगरी वृंदावन, महाशिरा नेपाल में पशुपतिनाथ के समीप, गंडकी चंडी पोखरा नेपाल आदि प्रमुख हैं जो सती के अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं।
जग करे पूजन भग देवी की ।
अमित मनोरथ जो पूरन की ।।
सम्पूर्ण शक्तिपीठों में सबसे अधिक शक्तिशाली शक्तिपीठ योनी रुपा कामाख्या का उल्लेख भगवान चित्रगुप्त वंशज हम अमित श्रीवास्तव अपने पहले शक्तिपीठ लेखनी में किया। और इन्ही की आशिर्वाद से 51 शक्तिपीठों पर लेखनी का श्रीगणेश अपने कर्म धर्म लेखनी को प्रधानता दे शुरू किया हूं। इस प्रथम शक्तिपीठ में स्थापित है सती का भग- योनी भाग। वही से थोड़ी दूर स्थित है – त्रिया राज जादूई नगरी। यह शक्तिपीठ तांत्रिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और श्रृष्टि की केन्द्र विन्दु मुक्ति का द्वार भी है।
दूसरी शक्तिपीठ- छिन्नमस्तिका
निज मस्तक को काट कर लीं हाथ में थाम ।
कमलासन द्रवित हुआ रजरप्पा में रतिकाम ।।
अपनी सहचरीयों की भुख मिटाने के लिए अपने ही मस्तक को काटने वाली नग्न रूप भवानी छिन्नमस्तिका काम-रती को अपने पैरों तले कमल आसन पर दबा रखने वाली तांत्रिक सिद्धी के लिए मानी जाती हैं। यह देवी सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ण करती है।
तीसरी शक्तिपीठ मे आपने पढ़ा ।
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी ।
महिमा अमित न जात बखानी ।। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित शक्तिपीठ हिंगलाज भवानी जो मुसलमानों की नानी पीर के रूप में भी मानीं जाती हैं।
कण हर-घर का मै वासी हूं।
काशी हूँ मैं काशी हूँ मैं काशी हूँ।।
भोलेनाथ की नगरी काशी स्थित विशालाक्षी जहां सती के दाहिने कान की मणि-बाली गिरी थी। इसलिए इस शक्तिपीठ को मणिकर्णिका घाट भी कहते हैं।
51 शक्तिपीठ लेखनी भगवान श्री चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव की कलम से सम्पूर्ण रहस्यों को उजागर करता क्रमशः पढ़ते रहिए, कलयुग में यही शक्तिपीठ मे वास करने वाली आदिशक्ति जगत जननी स्वरुपा देवीयां जगत कल्याण के लिए सदैव भक्तजन पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखने वाली हैं।
या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
51 सिद्ध शक्तिपीठों में से पंजाब राज्य के जालंधर में एकमात्र सिद्ध शक्तिपीठ देवी तालाब मंदिर में स्थित है। देवी तलाब शक्तिपीठ में सती का बायां वक्ष – स्तन, गिरा था। इसलिए इसे वक्षपीठ, स्तनपीठ भी कहा जाता है। शक्तिपीठ के रूप में स्थापित त्रिपुरमालिनी देवी की दर्शन मात्र से जीवन में भूखे पेट कोई भी भक्त नही रहता।
देवी दर्शन के साथ ही शक्तिपीठ रक्षक भीषण भैरव का दर्शन न हो तो त्रिपुरमालिनी देवी से मनोवांछित फल प्राप्त नहीं होता। हर वर्ष अप्रैल में यहां मेला लगता है। यहां पंजाब ही नहीं बल्कि देश भर से मां भक्त शामिल होकर इस देवी मंदिर में नतमस्तक होते हैं। श्रद्धालु मन्नतें मांगने के लिए देश भर से यहां आते हैं, मन्नत पूरी होने पर खीर का प्रसाद तथा लाल झंडे लेकर बैंड बाजा के साथ मां त्रिपुरमालिनी का जय-जयकार करने आते हैं।
इस शक्तिपीठ का इतिहास शिव पुत्र असुर जलंधर से कुछ इस तरह जुड़ा है। श्रीमद् भागवत् पुराण में जलंधर की जो कथा मिलती है उसके अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपना तेज समुद्र में फेंका जिससे जलंधर उत्पन्न हुआ। इसलिए जलंधर शिव पुत्र भी कहा गया है।
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जलंधर की शक्ति उसकी पत्नी वृंदा थी जिसके पतिव्रत धर्म के कारण सभी देवी-देवता मिलकर भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे। जलंधर को अपने बल का अभिमान हो गया। त्रिदेवों को अपनी तपस्या से प्रसन्न कर वरदान स्वरूप उन त्रिदेवों से उनकी शक्ति अर्धांगिनी मांगा। त्रिदेवों को ये वरदान देना उचित नहीं लगा तो अपना अधिपत्य स्वीकार करने के लिए कहा। तपस्या से प्रसन्न त्रिदेवों द्वारा अधिपत्य स्वीकार करने के बाद संसार का संचालन बिगड़ने लगा। त्रिदेवीयों ने अपनी शक्ति जलंधर को प्रदान कर त्रिदेवों को मुक्त कराने के लिए जलंधर से प्रयास कीं, तब गुरु शुक्लाचार्य के बहकावे में आकर रुष्ट जलंधर त्रिदेवों के खोज में निकल गया। जगत जननी त्रिदेवों को बाल रूप प्रदान कर शक्तिपीठ में सुरक्षित कर जलंधर से छल द्वारा त्रिदेवीयों को मुक्त करा दी। जलंधर वृंदा के पतिव्रत की अवहेलना करके देवताओं की स्त्रियों को सताने लगा। पुराण की एक कथा अनुसार जलंधर, देवी लक्ष्मी को विष्णु से छीन लेना चाहता था इसलिए उसने बैकुण्ठ पर आक्रमण किया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा था कि हम दोनों ही जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हम भाई-बहन हैं। देवी लक्ष्मी की बातों से जलंधर प्रभावित हुआ और लक्ष्मी को बहन मानकर बैकुण्ठ से चला गया। इसके बाद वह कैलाश पर जाकर देवी पार्वती को पत्नी बनने के लिए आग्रह करने लगा। इससे देवी पार्वती क्रोधित हो गयीं और महादेव को जलंधर से युद्घ करना पड़ा।

वृंदा के सतीत्व के कारण भगवान शिव का हर प्रहार जलंधर निष्फल कर देता था। देवताओं ने मिलकर योजना बनाई और भगवान विष्णु जलंधर का वेष धारण करके वृंदा के पास पहुंच गये। वृंदा भगवान विष्णु की भक्त थी को अपना पति जलंधर मानकर उनके साथ पत्नी के समान व्यवहार करने लगी।
इससे वृंदा का पतिव्रत धर्म टूट गया और शिव ने जलंधर का वध कर दिया। इस पुराण के अलावा कहीं भी जलंधर को शिव पुत्र के रूप में मान्यता नहीं दी गयी है। जलंधर के विषय में अन्य स्थानों पर यह उल्लेख मिलता है कि सागर मंथन के समय देवी लक्ष्मी के साथ जलंधर भी उत्पन्न हुआ था। जलंधर असुरों का हिमायती था और वर्तमान जालंधर नगरी इसकी राजधानी थी।
जालंधर में आज भी असुरराज जलंधर की पत्नी देवी वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। एक मान्यतानुसार यहां एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधे हरिद्वार तक जाती थी। इस मंदिर से जुड़ी कथा के अनुसार भगवान विष्णु द्वारा सतीत्व भंग किये जाने पर यहीं वृंदा ने आत्मदाह किया था और वृंदा की राख के ऊपर तुलसी का पौधा जन्म लिया।
तुलसी देवी वृंदा का ही स्वरूप हैं जिसे भगवान विष्णु लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय मानते हैं।
वृंदा देवी मंदिर के विषय में लोक मान्यता है कि यहां चालिस दिनों तक श्रद्घा पूर्वक पूजा करने से मनोकामना पूरी होती है। जलंधर की नगरी जालंधर के विषय में पुराणों में उल्लेख मिलता है कि यहां बारह तालाब था और शहर में प्रवेश के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था। इस स्थान की चारदीवारी के बाहर एक पुराना तालाब था जो अन्नपूर्णा मंदिर को छूता था तथा एक तरफ ब्रह्मकुंड की सीमा से लगता था। आज भी यहां पुरानी छोटी ईटों की सीढ़ियां बनी हुई हैं।
इस बात से तो वाकिफ ही होंगे कि भगवान शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री देवी सती से हुआ था। लेकिन क्या किसी को ये बात पता है कि सती का जन्म कैसे हुआ और कैसे उनके मन में भगवान शिव के प्रति इतना प्रेम उत्पन्न हुआ। तो चलिए आज हम आपको सती से शिव के अस्तित्व से जुड़ी अनेक ग्रंथो से एकत्रित जानकारी दे रहे हैं।
आदिशक्ति जिसका न कोई आदी है न अंत एक मात्र स्त्री स्वरूपा आदिशक्ति ने ब्रह्मा विष्णु और महेश को उत्पन्न किया और अपनी अंश ब्रह्मा और विष्णु को दे पूर्ण कि खुद शिव की शक्ति रूप में शिव के साथ रहने लगीं। सृष्टि का निर्माण हुआ और सृष्टि विस्तार होना शुरू हुआ तब आदिशक्ति अपने मुल रूप में शिव के साथ थीं।
अपने अपमान का कैसे बदला लिया अभिमानी प्रजापति राजा दक्ष ने ?

एक बार यज्ञ का आयोजन किया और सभी को बुलावा भेजा लेकिन भगवान शिव और पुत्री सती को नहीं बुलाया। लेकिन माता सती का यज्ञ में जाने और अपनी बहनों से मिलने का बहुत मन हुआ। सती ने शिव से वहां जानें की आज्ञा मांगी किन्तु शिवजी ने वहां जाने से मना किया कि, अभी वहां जाना ठीक नहीं। लेकिन माता नहीं मानी और हठ करती रही। सती के हठ के कारण शिव ने उन्हें भेज दिया और साथ में अपना गण भी भेजा। जब सती अपने पीहर पहुंची तो राजा दक्ष ने उनसे उनके पति शिव के बारे में बहुत कटु और अपमान जनक शब्द कहे। लेकिन देवी सती काफी समय तक मौन रही। कुछ समय बाद सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो स्थान देखा किंतु भगवान शिव का स्थान नहीं देखा। वे भगवान शिव का स्थान न देखकर अपने पिता से इसके बारे में पूछा तो दक्ष ने कहा कि मैं तुम्हारे पति शिव को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला मृग छाली हड्डियों की माला धारण करने वाला है। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नही है। उसे क्यूँ और कौन भाग देगा? इन बातों को सुनकर सती की आंखे क्रोध से लाल हो गई और वो कहने लगी कि जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही सम्पूर्ण होता है। जो नारी अपने पति के लिए अपमान जनक शब्दों को सुनती हैं उसे नरक में जाना पड़ता है । मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती । सती अपने कथन को समाप्त कर यज्ञ कुण्ड के समीप बैठ योग अग्नि प्रज्वलित कर प्राण त्याग दी। ये सब देखकर शिवगण को क्रोध आया और शिव गण यज्ञ में व्यवधान डालने लगे। पुरोहित ऋषि ने अपनी शक्ति से शिव गण को रोकने का प्रयास कर यज्ञ सम्पन्न कराने का प्रयास कर रहे थे कि एक गण ने यह सूचना शिवशम्भु को दिया। सती प्राण त्याग कि बात भगवान शिव के कानों में पड़ी तो शिव विस्मित हो क्रोधित हो उठे।

प्रचंड काली का आगमन हुआ शिव और काली की क्रोधाग्नि से बिरभद्र की उत्पत्ति हुई। शिव और काली के आदेश से बिरभद्र दक्ष प्रजापति को डंड देने आ पहुंचे घोर युद्ध हुआ अंत में बिरभद्र अभिमानी दक्ष का मस्तक काट कर हवन-कुंड में फेंक दिया। देवताओं और दक्ष पत्नी के आग्रह पर भोलेनाथ प्रचंड आंधी की भांति कनखल हरिद्वार पहुंचे।
अभिमानी प्रजापति दक्ष को बकरे का सिर प्रदान कर जीवन दान दिया, सती के प्राणहीन शरीर को देखकर भगवान शिव अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और भक्ति ने शिव के मन को व्याकुल कर दिया, सती के प्रेम में खो बेसुध हो गए। भगवान शिव ने सती के शरीर को गोद में ले लिया और सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे।

शिव सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और देवताओं की सांसेंं भी रूक गई। ये सब देखकर सभी देवताओं ने आदिशक्ति की अराधना करने और इस संकट से उपाय कि गुहार लगाने लगे तब आदिशक्ति के मार्गदर्शन में भगवान विष्णु आगे बढ़े और अपने चक्र से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। ये सब होने के बाद भगवान शिव शुन्य हो समाधि में लीन हो गए। पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे। दैत्य दानव असुरों का आतंक बढऩे लगा। देवताओं ने आदिशक्ति से अपने रक्षा की गुहार लगायी तब पुनः आदिशक्ति ने शिव को दिए वचन का मान रखने के लिए पर्वतराज की तपस्या से प्रसन्न होकर जगत-जननी आदिशक्ति आद्या पर्वतराज को अपने समान तेजस्वी पुत्री का वरदान दे पुत्री पार्वती रूप में जन्म लिया। बाल्यावस्था से ही पार्वती शिव की अर्धांगिनी बनने के लिए तपस्या करने लगीं थीं। विवाह योग्य होने पर नारदजी की अगुवाई में शिव जी के साथ पर्वतराज ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव भेजा। शिव जी की बारात जब पर्वतराज के यहां पहुँची रानी मैना अपने पुत्री के लिए नारद मुनि द्वारा चयनित वर देवों के देव महादेव को देखने के लिए व्याकुल थीं। नारदजी बारात में आने वाले एक-एक का परिचय कराते जा रहे थे और देवाधिदेव महादेव का गुणगान करते जा रहे थे व्याकुलता और बढ़ती जा रही थी। जब महादेव को रानी मैना ने देखा तो देखते ही पुत्री को कोसने लगी और बेहोश हो गयी, महादेव और उनके गणों को देखकर विवाह न करने, बारात वापस करने के लिए कहने लगीं। तब पार्वती जी ने शिव जी को अपने दृब्य स्वरूप धारण करने का आग्रह किया। सभी के बहुत आग्रह पर शिव जी अपना दृब्य अलौकिक रूप धारण कर सबको अपने दृब्य स्वरूप दर्शन का सौभाग्य प्रदान किया फिर देवाधिदेव महादेव का पार्वती के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। इस प्रकार आदिशक्ति स्वरुपा सती, पार्वती अनेक रूपों का शिव के साथ अस्तित्व जुड़ा हुआ है। हम चित्रगुप्त वंशज-अमित श्रीवास्तव द्वारा सभी प्रकार की सुयोग्य सुस्पष्ट लेखनी गूगल amitsrivastav.in साइड पर दी जाती है।
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