हर कण, नभ, जल, थल हिमालय का मैं वासी हूँ।
मै काशी हूँ, मैं काशी हूँ, मैं काशी हूँ, मैं काशी हूँ।।
शिव-शक्ति का पावन स्थान काशी यहां जो भी अधिकारी कर्मचारी को नियुक्ति मिलती है उन्हें सर्वप्रथम काशी के कोतवाल काल भैरवजी का आशिष लेना होता है वैसे तो काशी नगरी बाबा विश्वनाथ, देवों के देव महादेव जी का है लेकिन पूरी काशी पर नज़र बाबा काल भैरव का रहता है। यहां कोतवाली में कोतवाल की कुर्सी पर बाबा काल भैरव ही विराजमान होते हैं। कोई भी कर्मी बाबा काल भैरव जी की पूजा अर्चना के बाद ही अपनी कुर्सी का दायित्व सम्भालता है।
मोक्ष की नगरी में बाबा विश्वनाथ और शक्तिपीठ में विराजमान माता विशालाक्षी का अटूट संबंध स्थापित है। भोलेनाथ के वरदान स्वरूप प्रलय काल में भी काशी कि पावन भूमि अपने अस्तित्व को बरकरार रखेगी। काशी भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है। काशी में पावन गंगा की सौगंध ले गुजरात के तर्ज पर देश का विकास और भोलेनाथ की पावन भूमि से सनातन धर्म की रक्षा और विकास का सपना दिखायें लेकिन सब अधूरा ही है। 2014 में पांच साल बनाम सत्तर साल का नारा लगाने वाले नरेंद्र मोदी को भोलेनाथ की कृपा से दो बार प्रधानमंत्री भी बनने का मौका मिला खैर काशी के कण-कण में वासी शिव जी ही आज नहीं तो कल हिसाब-किताब करेगें।
सती के इक्यावन शक्तिपीठों में बहुत ही महत्वपूर्ण शिव की पावन नगरी काशी के अस्तित्व से जुड़ी आज हमारे चौथे शक्तिपीठ पर कलम अग्रसर है जो भोलेनाथ की पावन नगरी काशी में स्थित है। उत्तर प्रदेश में स्थित काशी ‘वाराणसी’ से आप सब परिचित होगें ही यहीं गंगा के पावन तट पर स्थित है मणिकर्णिका घाट और यहीं है विशालाक्षी शक्तिपीठ। सनातन धर्म की प्रसिद्ध इक्यावन शक्तिपीठों में यहां देवी सती के मणिकर्णिका गिरने पर इस शक्तिपीठ की स्थापना हुई। पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र, आभूषण गिरे वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। इन शक्तिपीठों मे कामाख्या असम, छिन्नमस्तिका रजरप्पा, हिंगलाज भवानी बलूचिस्तान, विशालाक्षी काशी, पुर्णागिरि, महाकाली कलकत्ता, ज्वालामुखी कांगड़ा, शाकम्भरी सहारनपुर, त्रिपुर सुंदरी त्रिपुरा, ललिता प्रयागराज, गायत्री अजमेर के पुष्कर में, उमा कृष्ण कि नगरी वृंदावन, महाशिरा नेपाल में पशुपतिनाथ के समीप, गंडकी चंडी पोखरा नेपाल आदि प्रमुख हैं जो अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं।
सम्पूर्ण शक्तिपीठों में सबसे अधिक शक्तिशाली शक्तिपीठ योनी पीठ कामाख्या का उल्लेख हम चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव अपने पहले शक्तिपीठ लेखनी में किया जहां शक्तिपीठ में स्थापित है- सती का योनी भाग, वही से थोड़ा दूर है त्रिया राज जादूई नगरी यह शक्तिपीठ तांत्रिक दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सती का योनी भाग कामाख्या शक्तिपीठ मे स्थापित होने से- सृष्टि का केन्द्र विन्दु, मुक्ति का द्वार, भी माना जाता है।
दैत्य गुरु शुक्लाचार्य ने इस शक्तिपीठ को सबसे अधिक शक्तिशाली बताते हुए नरकासुर को उत्तेजित किया था, नष्ट कर देवी का अस्तित्व मिटाने और शिव को असहाय करने के लिए। देवताओं से युद्ध करते, पराजित करते नरकासुर जब शक्तिपीठ के निकट पहुंचा, देवी पराक्रमी नरकासुर पर प्रसन्न हो वर मांगने को कहीं, अद्भुत रूप को देखकर नरकासुर मोहित हो गया और विवाह का प्रस्ताव रख दिया। तब माता ने नरकासुर से अपनी योग्यता सिद्ध करने के लिए, उसी रात भूस्थल से अपने शिखर तक भक्तों के आवागमन के लिए मार्ग का निर्माण करने को कहीं जो कार्य पूर्ण होने में उसी रात देर नही लगने वाली थी सभी देवी-देवता सहित मां कामाख्या माता खुद हैरान थीं। आदिशक्ति के मार्गदर्शन से सभी देवताओं ने भोलेनाथ से निदान के लिए प्रार्थना किया। तब शक्तिपीठ के रक्षक भैरव ने मुर्गे का रूप धारण कर कुक्कुरूकु की आवाज बोल नरकासुर को भ्रमित कर दिया कि सुबह होने वाली है और तुम असफल रहे। आज भी इस शक्तिपीठ पर नरकासुर द्वारा अर्ध निर्माण खंडित सीढ़ियां हैं जो नर्क द्वार के नाम से जाना जाता है और इस रास्ते से देवी दर्शन के लिए नही जाया जाता। हार मान नरकासुर वापस होने लगा तो रास्ते में गुरु शुक्लाचार्य ने नरकासुर को देवताओं का छल दिखा शक्तिपीठ को नष्ट करने के लिए पुनः प्रेरित किया तब नरकासुर निलगीरी निलांचल पर्वत को ही उखाड़ने लगा, मां कामाख्या ने मना किया और खुद नरकासुर के साथ जाने के लिए तैयार हो गयीं। जाते वक्त माता ने कहा कि जब असुर प्रवृत्ति का तुम्हारे अंदर संचार होगा तो तुम्हारा त्याग कर दूँगी। सभी देवी-देवता साधारण मनुष्य भक्त रूप धारण कर उज्जैन में नरकासुर को भगवान की संज्ञा दी और वहीं मां और दिखावा स्वरूप भगवान के रूप में नरकासुर की अराधना करने लगे, नरकासुर में जब असुरी शक्ति प्रबल हुईं तो मां के सहयोग से शक्तिपीठ के रखवाले भैरव ने नरकासुर का बध कर पुनः पूर्व स्थान निलगीरी पर मां के शक्तिपीठ को स्थापित किया। इस शक्तिपीठ का दर्शन अविवाहित बालक बालिकाओं को करना निषेध बताया गया है। अविवाहित स्थिति में दर्शन के इच्छुक या तो तांत्रिक, नाथपंथी, माता-पिता या गुरु संरक्षण प्राप्त को शिव की शक्ति योनी रूपा मां कामाख्या दर्शन के लिए आना चाहिए। नील गीरी, निलांचल पर्वत स्थित मां कामाख्या का सम्पूर्ण क्षेत्र तांत्रिक क्षेत्र है यहां आज भी तांत्रिकों के पास अपार तांत्रिक शक्ति है यहां दर्शन के लिए आने वाले को सदैव सावधानी रखनी चाहिए और आज वैज्ञानिक युग में किसी को भी यहां की तांत्रिक शक्तियों का उपहास नही करना चाहिए।
काशी स्थित शक्तिपीठ विशालाक्षी के सम्बन्ध में देवीपुराण के अनुसार जब भगवान शिव वियोगी होकर सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर रखकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब भगवती के दाहिने कान की मणि इसी स्थान पर गिरी थी। इसलिए इस जगह को मणिकर्णिका घाट कहते हैं। कहा यह भी जाता है कि जब भगवान शिव वियोगी होकर सती के प्राणहीन शरीर को लेकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब भगवती का कर्ण कुण्डल इसी स्थान पर गिरा था। देवी के सिद्ध स्थानों में काशी में मात्र विशालाक्षी का वर्णन मिलता है तथा एक मात्र विशालाक्षी मणिकर्णिका शक्तिपीठ का उल्लेख काशी में किया गया है। दक्षिण भारतीय शैली में स्थापत्य माँ विशालाक्षी की मूर्ति स्वयं ही देदीप्यमान आभा प्रसारित करती है। विष्णु पुराण के अनुसार काशी में श्रीहरि विष्णु जी अपने अराध्य शिवशम्भु को प्रसन्न करने के लिए सहस्रों वर्ष तपस्या किए भक्त की इच्छा पूरी करने के लिए शिव अपने शक्ति के साथ प्रकट हो स्यम् शिव और शक्ति मणिकर्णिका घाट के पावन गंगा में तीन डुबकी लगाया उस समय भी माता के कान का कुंडल जल में गीरा था शिव-शक्ति ने वरदान दिया जो भी प्राणी इस मणिकर्णिका घाट के पावन गंगा में स्नान करेगा उसके सारे संकट दूर होगें। डुबकी लगाने वाले देवी-देवता, ऋषि-मुनि, मानव, दानव सभी को जल के अंदर प्रभु हरि और जल के ऊपर सदा शिव का नाम सुनाई देगा। मणिकर्णिका रूप में विराजमान मां हर भक्तों की मनोकामना पूरी करती हैं।
देवासुर संग्राम दैत्य गुरु शुक्लाचार्य शिष्या, कश्यप ऋषि पत्नी, अजमुख, सिंहमुख, गजमुख की माता मायापुरी निवासिनी मायासुरासयी, पौत्र सुर्यमुख जो अबोध शिषु होते हुए अपने हाथों को बढ़ाकर अपने मुठ्ठी में सुर्य को बंद कर लिया पृथ्वी अंधकारमय हो गई तब सभी देवताओं ने सुर्यमुख से सुर्य को छुड़ाने का अथक प्रयास किया सभी देवताओं ने सुर्य के बदले अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र बालपन में ही प्राप्त कर सुर्यमुख बहुत ही बलशाली हो गया अत्याचार बढ़ा दैत्य वंश के आतंक से देवताओं को निजात दिलाने में शिव पुत्र कार्तिकेय विघ्नहर्ता गणेश अपनी देव सेना के साथ पशुपात् प्राप्ति के लिए पुजा अर्चना करने काशी आये थे। शिव अराधना के साथ ही मणिकर्णिका में स्थान कर मां शक्ति की पूजा-अर्चना कर आशीर्वाद प्राप्त किया और पशुपात् की प्राप्ति के लिए पशुपतिनाथ की यात्रा पूरी की।
इस बात से तो वाकिफ ही होंगे कि भगवान शिव का पहला विवाह दक्ष प्रजापति की पुत्री देवी सती से हुआ था। लेकिन क्या किसी को ये बात पता है कि सती का जन्म कैसे हुआ और कैसे उनके मन में भगवान शिव के प्रति इतना प्रेम उत्पन्न हुआ। तो चलिए आज हम आपको सती से शिव के अस्तित्व से जुड़ी अनेक ग्रंथो से एकत्रित जानकारी देते हैं। आदिशक्ति जिसका न कोई आदी है न अंत एक मात्र स्त्री स्वरूपा आदिशक्ति ने ब्रह्मा विष्णु और महेश को उत्पन्न किया और अपनी अंश ब्रह्मा और विष्णु को दे पूर्ण कि खुद शिव की शक्ति रूप में शिव के साथ रहने लगीं। सृष्टि का निर्माण हुआ और सृष्टि विस्तार होना शुरू हुआ तब आदिशक्ति अपने मुल रूप में शिव के साथ थीं।
पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की सभी पुत्रियां गुणवाण थीं दक्ष प्रजापति के मन में शुरू से ही शिव के प्रति अनादर था। दक्ष की तेरह पुत्रियों का विवाह कश्यप ऋषि से तय हुआ उस विवाह में दक्ष पुत्रियों के बुलावे पर आदिशक्ति के साथ शिव भी आये, क्रमानुसार आशिर्वाद के मौके पर शिव और शक्ति ने भी पुत्रियों को आशिष दिया कश्यप ऋषि से विवाहित दक्ष पुत्री अदिति धार्मिक प्रवृत्ति कि और अन्य बारह बहनों सहित अदिति से दिती बड़ी एवं पिता दक्ष प्रजापति के जैसी क्रुर थी। कद्रू, दनु, सुरसा क्रमशः छोटी होते हुए दिती के साथ पहले आशिर्वाद की कामना करने लगीं की मेरे संतान पहले उत्पन्न हों, शिव की शक्ति आदिशक्ति द्वारा ऐसा न करने पर रुष्ट हो दैत्य माता दिती द्वेष करना शुरू कि। मुहुर्त अनुसार कश्यप ऋषि ने सर्वप्रथम आदिति को पुत्र प्राप्ति का फल दिया तब हठी पत्नी दिती दती ने हठपूर्वक ऋषि काश्यप से पुत्र प्राप्ति का फल ले अशुभ मुहूर्त में ही ग्रहण कर लीं और दैत्य दानव असुर को जन्म दिया, वहीं आदिति से आदित्यो की उत्पत्ति हुई और शक्ति के आदेशानुसार देव लोक की प्राप्ति। दिती, दनु और सुरसा के पुत्र दैत्य, दानव और असुरों को पाताल लोक प्राप्त हुआ। दिती, दनु और सुरसा के बहकावे में आकर प्रजापति दक्ष ने आदिशक्ति को अपनी पुत्री रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या शुरू किया। विधि-विधान के अनुसार आदिशक्ति को भिन्न-भिन्न रूप में शिव की संगिनी बनना तय था उसी विधि-विधान का मान रखने के लिए भगवति आद्या प्रसन्न हो दक्ष प्रजापति के यहां पुत्री रूप में जन्म लेने का वचन दी। भगवती दक्ष प्रजापति से यह वचन भी ली थीं मेरा नाम सती होगा और मेरे राह में व्यवधान उत्पन्न नही करोगे। जन्म के बाद श्रीहरि, नारद आदि से प्रभावित हो सती शिव तपस्या करने लगी जो दक्ष को तनिक भी पसंद नहीं था। विवाह योग्य होने पर दक्ष प्रजापति ब्रह्मा जी से पुत्री सती के लिए सुयोग्य वर तलाशने का प्रस्ताव रखा तब ब्रह्मा जी ने कहा सती आद्या की अवतार है और शिव आदि पुरूष इसलिए सती के विवाह के लिए उचित शिव जी ही उत्तम वर हैं ब्रह्मा जी का यह सुझाव दक्ष को स्वीकार नहीं था। प्रजापति दक्ष के इच्छा के विरूद्ध सती ने शिव से गन्धर्व विवाह कर शिव की अर्धांगिनी वन शिव को दिए बचन का मान रखीं। और यहीं से शुरू हुआ गन्धर्व विवाह की प्रथा।
कैसे शुरू हुआ था प्रजापति दक्ष के मन में शिव के प्रति द्वेष?
एक बार देवलोक में ब्रह्मा ने धर्म के निरूपण के लिए एक सभा का आयोजन किया और वहां सभी बड़े-बड़े जन शामिल हुए। जब सभा में दक्ष का आगमन हुआ तो सभी देवता उठकर खड़े हो गए, पर भगवान शिव खड़े नहीं हुए। उन्होंने दक्ष को प्रणाम भी नहीं किया। दक्ष को इस बात का बहुत बुरा लगा। केवल यही नहीं, उनके ह्रदय में भगवान शिव के प्रति ईर्ष्या की आग जल उठी। वे उनसे बदला लेने के लिए समय और अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

अपने अपमान का कैसे बदला लिया प्रजापति राजा दक्ष ने ? एक बार दक्ष प्रजापति यज्ञ का आयोजन किया और सभी को बुलावा भेजा लेकिन भगवान शिव और पुत्री सती को नहीं बुलाया। लेकिन माता सती का यज्ञ में जाने और अपनी बहनों से मिलने का बहुत मन हुआ। सती ने शिव से वहां जानें की आज्ञा मांगी किन्तु शिवजी ने वहां जाने से मना किया कि, अभी वहां जाना ठीक नहीं। लेकिन माता नहीं मानी और हठ करती रही। सती के हठ के कारण शिव ने उन्हें भेज दिया और साथ में अपना गण भी भेजा। जब सती अपने पीहर पहुंची तो राजा दक्ष ने उनसे उनके पति शिव के बारे में बहुत कटु और अपमान जनक शब्द कहे। लेकिन देवी सती काफी समय तक मौन रही। कुछ समय बाद सती ने यज्ञमंडप में सभी देवताओं के तो स्थान देखा किंतु भगवान शिव का स्थान नहीं देखा। वे भगवान शिव का स्थान न देखकर अपने पिता से इसके बारे में पूछा तो दक्ष ने कहा कि मैं तुम्हारे पति शिव को देवता नहीं समझता। वह तो भूतों का स्वामी, नग्न रहने वाला और हड्डियों की माला धारण करने वाला हैं। वह देवताओं की पंक्ति में बैठने योग्य नहीं हैं। उसे कौन भाग देगा? इन बातों को सुनकर सती की आंखे क्रोध में लाल हो गई और वो कहने लगी कि जो क्षण मात्र में संपूर्ण सृष्टि को नष्ट करने की शक्ति रखते हैं। वे मेरे स्वामी हैं। नारी के लिए उसका पति ही स्वर्ग होता हैं। जो नारी अपने पति के लिए अपमान जनक शब्दों को सुनती हैं उसे नरक में जाना पड़ता हैं। मैं अब एक क्षण भी जीवित रहना नहीं चाहती।
सती अपने कथन को समाप्त करती हुई यज्ञ कुण्ड के समीप बैठ योग अग्नि प्रज्वलित कर प्राण त्याग दी। ये सब देखकर शिवगण को क्रोध आया और शिव गण यज्ञ में व्यवधान डालने लगे। पुरोहित ऋषि ने अपनी शक्ति से शिव गण को रोकने का प्रयास कर यज्ञ सम्पन्न कराने का प्रयास कर रहे थे कि एक गण ने यह सूचना शिवशम्भु को दिया। सती प्राण त्याग कि बात भगवान शिव के कोनों में पड़ी तो शिव विस्मित हो क्रोधित हो गए प्रचंड काली का आगमन हुआ शिव और काली की क्रोधाग्नि से बिरभद्र की उत्पत्ति हुई। शिव और काली के आदेश से बिरभद्र दक्ष प्रजापति को डंड देने आ पहुंचे घोर युद्ध हुआ अंत में बिरभद्र दक्ष का मस्तक काट कर हवन-कुंड में फेंक दिया। देवताओं और दक्ष पत्नी के आग्रह पर भोलेनाथ प्रचंड आंधी की भांति कनखल पहुंचे। अभिमानी प्रजापति दक्ष को बकरे का सिर प्रदान कर जीवन दान दिया, सती के प्राणहीन शरीर को देखकर भगवान शिव अपने आपको भूल गए। सती के प्रेम और भक्ति ने शिव के मन को व्याकुल कर दिया, सती के प्रेम में खो बेसुध हो गए। भगवान शिव ने सती के शरीर को गोद में ले लिया और सभी दिशाओं में भ्रमण करने लगे। शिव सती के इस अलौकिक प्रेम को देखकर पृथ्वी रुक गई, हवा रूक गई, जल का प्रवाह ठहर गया और देवताओं की सांसेंं भी रूक गई। ये सब देखकर सभी देवताओं ने आदिशक्ति की अराधना करने और इस संकट से उपाय कि गुहार लगाने लगे तब आदिशक्ति के मार्गदर्शन में भगवान विष्णु आगे बढ़े और अपने चक्र सुदर्शन से सती के एक-एक अंग को काट-काट कर गिराने लगे। ये सब होने के बाद भगवान शिव शुन्य हो समाधि में लीन हो गए। पुनः सृष्टि के सारे कार्य चलने लगे। दैत्य दानव असुरों का आतंक बढऩे लगा। देवताओं ने आदिशक्ति से अपने रक्षा की गुहार लगायी तब पुनः आदिशक्ति ने शिव को दिए वचन का मान रखने के लिए पर्वतराज की तपस्या से प्रसन्न होकर जगत-जननी आदिशक्ति पर्वतराज को अपने समान तेजस्वी पुत्री का वरदान दे पुत्री पार्वती रूप में जन्म लिया। बाल्यावस्था से ही पार्वती शिव की अर्धांगिनी बनने के लिए तपस्या करने लगीं थीं।
विवाह योग्य होने पर नारदजी की अगुवाई में शिव जी के साथ पर्वतराज ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव भेजा। शिव जी की बारात जब पर्वतराज के यहां पहुँची रानी मैना अपने पुत्री के लिए नारद मुनि द्वारा चयनित वर देवों के देव महादेव को देखने के लिए व्याकुल थीं। नारदजी बारात में आने वाले एक-एक का परिचय कराते जा रहे थे और देवाधिदेव महादेव का गुणगान करते जा रहे थे व्याकुलता और बढ़ती जा रही थी। जब महादेव को रानी मैना ने देखा तो देखते ही पुत्री को कोसने लगी और बेहोश हो गयी, महादेव और उनके गणों को देखकर विवाह न करने, बारात वापस करने के लिए कहने लगीं। तब पार्वती जी ने शिव जी को अपने दृब्य रूप धारण करने का आग्रह किया।
सभी के बहुत आग्रह पर शिव जी अपना दृब्य अलौकिक रूप धारण कर सबको अपने दृब्य स्वरूप दर्शन का सौभाग्य प्रदान किया फिर देवाधिदेव महादेव का पार्वती के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। इस प्रकार आदिशक्ति स्वरुपा सती, पार्वती अनेक रूपों का शिव के साथ अस्तित्व जुड़ा हुआ है। 51 शक्तिपीठों में पांचवीं त्रिपुरमालिनी वक्षपीठ देवी तालाब जालंधर पंजाब पढ़ने के लिए इस लाइन पर क्लिक किजिये पढ़िए सभी भक्त जन को शेयर किजिये।
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