पितृपक्ष – श्राद्ध कर्म का महत्व

Amit Srivastav

Updated on:

पितृपक्ष, जिसे श्राद्ध पक्ष भी कहा जाता है, हिंदू धर्म में पितरों (पूर्वजों) की आत्मा की शांति के लिए विशेष रूप से समर्पित समय होता है। यह आमतौर पर भाद्रपद माह की पूर्णिमा (पूर्णिमा श्राद्ध) से शुरू होकर अश्विन माह की अमावस्या (महालय अमावस्या) तक चलता है।

आरंभ: 17 सितंबर 2024 (भाद्रपद पूर्णिमा)

समाप्ति: 2 अक्टूबर 2024 (महालय अमावस्या)

इस अवधि के दौरान विभिन्न तिथियों पर अलग-अलग श्राद्ध किए जाते हैं, जैसे तिथि के अनुसार व्यक्तिगत श्राद्ध या सर्वपितृ श्राद्ध (जो महालय अमावस्या पर किया जाता है)।

पितृपक्ष में प्रत्येक तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। 2024 के पितृपक्ष की तिथियों का विवरण निम्नलिखित है। 

1. 17 सितंबर 2024 – पूर्णिमा श्राद्ध

2. 18 सितंबर 2024 – प्रतिपदा श्राद्ध

3. 19 सितंबर 2024 – द्वितीया श्राद्ध

4. 20 सितंबर 2024 – तृतीया श्राद्ध

5. 21 सितंबर 2024 – चतुर्थी श्राद्ध

6. 22 सितंबर 2024 – पंचमी श्राद्ध

7. 23 सितंबर 2024 – षष्ठी श्राद्ध

8. 24 सितंबर 2024 – सप्तमी श्राद्ध

9. 25 सितंबर 2024 – अष्टमी श्राद्ध

10. 26 सितंबर 2024 – नवमी श्राद्ध

11. 27 सितंबर 2024 – दशमी श्राद्ध

12. 28 सितंबर 2024 – एकादशी श्राद्ध

13. 29 सितंबर 2024 – द्वादशी श्राद्ध

14. 30 सितंबर 2024 – त्रयोदशी श्राद्ध

15. 1 अक्टूबर 2024 – चतुर्दशी श्राद्ध

16. 2 अक्टूबर 2024 – अमावस्या श्राद्ध (सर्वपितृ अमावस्या)

हर दिन एक विशेष तिथि को सम्बंधित पूर्वजों के श्राद्ध के लिए माना जाता है।

पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्वहमारे धर्मग्रंथों के अनुसार पितरों के उद्देश्य से पितृपक्ष में विधिपूर्वक जो कर्म किया जाता है उसे ही श्राद्ध कर्म कहते हैं।

श्रद्धा से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है। अपने मृत पूर्वजों पितृगणों की आत्मा शांति के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कर्म विशेष को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं। जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों, वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्ध तत्व, पितृदयिता आदि अनेक ग्रंथो में है।
 
महर्षि पराशर के अनुसार देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधिद्वार जो कर्म तिल-यव और दर्भ-कुश तथा मन्त्रो से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध है।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

श्राद्धकर्म करने वालों के लिए अहम जानकारी 

पितृपक्ष में जो पिता विहीन हैं वो यथाशक्ति विधि विधान से श्राद्धकर्म अवश्य करें। श्राद्ध करने से पुर्वजो की आत्मा तृप्त होकर आशिर्वाद देती है। अगले प्राप्त जन्मों में सुख-समृद्धि शांति मिलती है। अपने पितृ जन का श्राद्ध करने वाले को पितृपक्ष में कुछ खास बातों का ध्यान रखना होता है जो बहुत ही कम लोगों को जानकारी है। सिर का मुंडन पितृपक्ष के भीतर या अपने तिथि पर नहीं करवानाचाहिए। क्योंकि धर्मसिंधु में यह बात कही गयी है कि पितृ पक्ष में सिर के बाल जो भी गिरते है वो पितरों के मुख में जाते हैं। ऐसे में सिर के बाल पितृ पक्ष आरंभ होने के 1 दिन पूर्व बनवाएं या भूल वश नहीं बनवा पाते हैं तो पितृ विसर्जन के दिन अपराह्न काल में या अगले दिन बनवाएं। सिर का बाल, दाढ़ी, मुंछ, नाखून काटना यहां तक कि स्त्री के साथ सोना संबंध बनाना श्राद्धकर्म करने वालों के लिए वर्जित है। श्राद्धकर्म न करने वालों को पितृपक्ष में बाल, दाढ़ी, मुछ, नाखून कटवाना चाहिए।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

महर्षि वृहस्पति तथा श्राद्ध तत्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के अनुसार- जिस कर्म विशेष में दुग्ध-घृत-मधु से युक्त सुसंस्कृत- अच्छी प्रकार से पकाए हुये, उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए, उसे श्राद्ध कहते हैं। इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध के सम्बन्ध में मिलता है- देश काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाए उसे श्राद्ध कहते हैं। जो प्राणी विधिपूर्वक शान्त मन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार चक्र में नही आता। अतः हर प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये श्राद्ध करना चाहिये। इस संसार मे श्राद्ध करने वालों के लिये श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारी उपाय नही है।

इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा की गयी है।
श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम्।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षण:।।
अर्थात-इस जगत में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नही है, अतः वुद्धिमता यही है मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये। इतना ही नही, श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु बढ़ा देता है, पुत्र प्रदान कर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्य की वृद्धि करता है, शरीर मे बल पौरुष की वृद्धि का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है।
आयु: पुत्रान् यथा स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयायात् पितृपूजनात्।।
श्राद्ध से मुक्ति- श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुखमय तो बनाता ही है, परलोक भी सुधारता है और अंत मे मुक्ति भी प्रदान करता है।
आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च ।
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्ध तर्पिता:।।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

मार्कण्डेय पुराण- श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्ध कर्ता को दीर्घ आयु, सन्तति, धन, विद्या, राज्य, सुख, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।

अत्रि संहिता में वर्णित है- जो पुत्र भ्राता पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकर्म श्रद्धानुष्ठान-में संलग्न रहते हैं, वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं।
पुत्रो व भ्रातरो वापि दौहित्र: पौत्रकस्तथा।
पितृकार्ये प्रसक्ता ये ते यान्ति परमां गतिम्।।
सुमन्तु जी यहां तक लिखें है कि जो श्राद्ध करता है, जो उसके विधि विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है प्रेरित करता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है इन सबको श्राद्ध का पुण्य फल अवश्य प्राप्त होता है।
उपदेष्टा नुमन्ता च लोके तुल्य फलौ स्मृतौ।
श्राद्ध न करने से हानि- शास्त्र में श्राद्ध न करने से होने वाली जो हानि बताई गई है उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः श्राद्ध तत्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिये तत्पर रहना अत्यंत आवश्यक है। यह सर्वविदित है मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी नही ले जा सकता है तब पाथेय- अन्न जल कैसे ले जा सकते है? उस समय उसके सगे सम्बन्धी श्राद्ध विधि से जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है। शास्त्र में मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है, सर्वप्रथम शवयात्रा के अंतर्गत छ:पिंड दिए जाते हैं- जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत- पिशाचों द्वारा होने वाली वाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही दशगात्र में दिए जाने वाले दश पिंडो के द्वारा जीव को आतिवाहक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है। यह मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

अब आगे उसे पाथेय- रास्ते के भोजन अन्न जल आदि की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तम षोडसी में दिए जाने वाले पिण्डदान से उसे प्राप्त होता है। यदि सगे-सम्बन्धी पुत्र-पौत्रादि न दे तो भूख-प्यास से उसे वहां महादारुण दुख होता है।

लोकांतरेषु ये तोयं लभन्ते नान्यमेव च।
दत्तं न वंशजैर्येषां ते व्यथां यान्ति दारुणम्।।
श्राद्ध न करने वाले को कष्ट- श्राद्ध न करने वाले को पग पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है। अपार दुख और कष्ट देने के बाद मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे सम्बन्धियो का रक्त भी चूसने लगता है। 
साथ ही साथ वह श्राप भी देते हैं-
श्राद्धं न कुरुते मोहात् तस्य रक्तं पिवन्ति ते ब्र पुत्रः।
पितरस्तस्य शापं दत्वा प्रयान्ति च नागरखण्ड।।
फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही सहन करना पड़ता है। उस परिवार में सुयोग्य पुत्र उत्पन्न नही होता, कोई निरोग नही रहता, लंबी आयु नही होती, किसी तरह का कल्याण प्राप्त नही होता और मरने के बाद नरक भी जाना पड़ता है।
न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुष:
न च श्रेयोधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्
हारीत श्राद्धमेतन्न कुर्वाणो नरकं प्रति पद्यते
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

विष्णु स् उपनिषद् में भी कहा गया है- देवपितृ कार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् तै उप-१-११-१अर्थात देवता तथा पितृ कार्यो में मनुष्य को कदापि प्रमाद नही करना चाहिये। प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।

पितरों को श्राद्ध प्राप्ति कैसे होती है?

यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियां पितरों को कैसे मिलती है, क्योकि विभिन्न कर्मो के अनुसार मृत्यु के वाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष, कोई तृण, आदि रुप प्राप्त करते हैं।
श्राद्ध में दिए गए छोटे से छोटे पिंड से हाथी का पेट कैसे भरेगा? इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिंड को कैसे खा सकती है? देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ? इन प्रश्नों का शास्त्र में सुस्पष्ट उत्तर है कि नाम गोत्र के माध्यम से विश्वेदेव एवं अग्निश्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कब्य पितरों को प्राप्त करा देते हैं।
यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया तो दिया गया अन्न उसे वहां अमृत रूप होकर प्राप्त हो जाता है। मनुष्य योनि में अन्न रूप में तथा पशु योनि में तृण रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है। नागादि योनियों में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थो के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

नाममन्त्रास्तथा देशा भवन्तरगतानपि।

प्राणिन: प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमांगतान्।।
देवो यदि पिता जात: शुभकर्मानुयोगत:।
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेप्यनुगच्छति ।।
मर्तयत्वे ह्यन्नरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत्।
श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्वे प्युपतिष्ठति।।
 
पानं भवति यक्षत्वे नाना भोगकरं
तथा- जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी न किसी प्रकार ढूढ ही लेता है, उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी न किसी प्रकार पहुंचा ही देता है। नाम गोत्र, ह्रदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्प पूर्वक दिए हुए पदार्थो को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुंचा देता है। जीव चाहे सैकड़ो हजारों योनियों को भी पार क्यो न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
 
यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सोविंदेतमातरम्।
तथा तं नयते मन्त्रोजंतुर्यत्रावतिष्ठते।।
नामगोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नंनयन्ति तम्।
अपि योनि शतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति।।
नामगोत्रंपितृणाम् तु प्रापकं हव्यकव्ययो:।
श्राद्धस्यमन्त्रस्तस्तत्त्वमुप लभ्येत्भक्तित:।।
अग्निश्वात्तादयस्तेषामधिपत्येव्यवस्थिता:।
नाम गोत्रास्तथा देशा भवन्त्युद्भवतामपि।।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

ब्राह्मण भोजन से श्राद्ध की पूर्णता- सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रकिया है- पिण्डदान और ब्राह्मण भोजन। 

मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वे मन्त्रो द्वारा बुलाये जाने पर उन-उन लोको से तत्क्षण श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं। सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्मकणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं। वेद में बताया गया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है।
इममोदनंनिदधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणम् लोकजितं स्वर्गम्।
अथर्व-४-३४-८- इमं ओदनम्, इस ओदनोपलक्षित भोजन को – ब्राह्मणेषु नि दधे, ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूं। यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्ग लोक को जीतने वाला है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनु ने लिखा है।
यस्यास्येनसदास्न्नती हव्यानित्रिदिवौकस:।
कव्यानिचैवपितरः किं भूतमधिकं तत:।।
अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर क़व्य को ग्रहण करते हैं। पितरों के लिये लिखा है-कि ये अपने कर्मवश अंतरिक्ष मे वायवीय शरीर धारण कर रहते हैं।अंतरिक्ष मे रहने वाले इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है।
ये मनोजव होते हैं अर्थात इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है। ये स्मरण से ही श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं। इनको सब लोग इसलिये नही देख पाते क्योकि इनका शरीर वायवीय होता है।
 
तस्य तेपितरः श्रुत्वाश्राद्धकालमुपस्थितम्।
अन्योन्यंमनसा ध्यात्वा सम्पतन्तिमनोजवा:।।
ब्राह्मणैस्तेसहास्नन्तिपितरो ह्यन्तरिक्षगा:।
वायुभूतास्तुतिष्ठन्ति भुक्त्वायान्ति परांगतिम्।।
 
इस विषय मे मनुस्मृति में भी कहा गया है श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों में पितर गुप्त रुप से निवास करते हैं।
प्राणवायु की भांति उनके चलते समय चलते हैं और वैठते समय वैठते है। श्राद्धकाल मे निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप या वायु रूप में पितर आते हैं।
निमंत्रितान् हि पितरउपतिष्ठन्तितान् द्विजान्।
वायुबच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते।।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

मनु-३/१८९ मृत्यु के उपरांत पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नही पाता। शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि- तिर इव वैपितरो मनुष्येभ्य: अर्थात सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यो से छिपे हुए से होते हैं। अतएव सूक्ष्म शरीर धारी होने के कारण ये जल अग्नि तथा वायु प्रधान होते हैं, इसलिये लोक-लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नही होती।

धन अभाव मे भी श्राद्ध की व्यवस्था ?

धन की परिस्थिति सबकी एक सी नही रहती। कभी कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है, इस दृष्टि से शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है- यदि अन्न खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध कर देना चाहिये।
तस्माच्छ्राद्धंनरो भक्त्या शाकै रपि यथा विधि।
यदि शाक खरीदने में भी असमर्थ हो तो तृण काष्ठ आदि को वेचकर द्रव्य एकत्रित करें और उन पैसों से शाक ख़रीदकर श्राद्ध करे।
 
तृणकाष्ठार्जनंकृत्वा प्रार्थयित्वा वराटकम्।
करोति पितृ कार्याणि ततो लक्षगुणो भवेत्।।
 
अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है अतः फल लाख गुना होता है। देशविशेष और कालविशेष के कारण लकड़ियाँ भी नही मिलती। ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया है कि घास से श्राद्ध हो सकता है। घास काटकर गाय को खिला दें।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

यह व्यवस्था पद्मपुराण में दी गई है। इसके साथ ही इस सम्बंध की एक छोटी सी घटना प्रस्तुत की है। एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यंत ग्रस्त था। उसके पास इतना पैसा नही था कि शाक खरीदा जा सके। इस तरह वह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में नही था। आज ही श्राद्ध तिथि थी। कुतप काल भी आ पहुंचा था। इस काल के समाप्ति पर श्राद्ध नही हो सकता था। वेचारा घबरा गया- रो पड़ा, श्राद्ध करे तो कैसे करें ? एक विद्वान ने उसे सुझाया अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरो के नाम पर गाय को खिला दो वह दौड़ गया और घास काटकर गायों को खिला दी। इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देवलोक की प्राप्ति हुई।

एतत् पुण्य प्रसादेन गतोसौसुरमन्दिरम्-
ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि घास का भी मिलना सम्भव नही होता। तब श्राद्ध कैसे करें?
शास्त्र ने इसका समाधान यह किया है कि श्राद्धकर्ता को देश कालवश जब घास का भी मिलना सम्भव न हो तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाये। दोनों भुजाओं को उठाकर-
निम्नलिखित श्लोक से पितरो की प्रार्थना करे-
न मेस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितृन्नतोस्मि।
तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयेतौ कृतौ भुजौ वर्तम्नि मारुतस्य।। 
 
अर्थात हे मेरे पितृगण मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है न धान्य आदि है। हाँ मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति है। मै इन्ही के द्वारा तृप्त करना चाहता हूं। आप तृप्त हो जाये। मैंने- शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप, दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
यह स्मरण अवश्य रखें – श्राद्ध कार्य मे साधन धन सम्पन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य- कंजूसी, नही करनी चाहिये।
वित्तशाठ्यम् न समाचरेत्।
अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
उपयुक्त अनुकल्पो से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी न किसी तरह श्राद्ध को अवश्य करें। शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दों में श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है।
श्राद्ध जरुर करें –
अतोमूलै: फलैर्वापितथाप्युदकतर्पणै: पितृतृप्तिंप्रकुर्वीत्।
श्राद्ध छोड़े नहीं- नैव श्राद्धम् विवर्जयेत्।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

श्राद्ध का अधिकारी कौन ?

पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है। बहुत पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह की सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये। विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है। यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है। यदि पुत्र अलग-अलग हो तो उन्हें वार्षिक श्राध्द अलग अलग करना चाहिये।

मृते पितरों पुत्रेणक्रिया कार्या विधानत:!
वहव:स्युर्यदापुत्रा: पितुरेकत्रवासिनः।।
सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्ठे नैव तु यत्कृतम्।
द्रव्येण चाविभक्तेनसर्वेरैव कृतं भवेत्।।
वीरमित्रोदय श्राद्ध प्राप्त में प्रचेता का वचन
एकादशाद्या:क्रमशो ज्येष्ठस्य विधिवत् क्रिया:।
क़ुर्युर्नैकेकश: श्राद्धमाब्दिकं तु प्रथक् प्रथक्।।
 
उपरोक्त- यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यवस्थाएं प्राप्त है। स्मृतिसंग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध के अधिकारी पुत्र पौत्र प्रपौत्र दौहित्र- पुत्री का पुत्र, भाई, भतीजा, भानजा, पिता, पत्नि, माता, पुत्र, वधु, बहन सपिंड- स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक का परिवार, तथा सोदक – आठवी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के परिवार कहे गए हैं।
 
मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यंतं सपिंडा:।
अष्टमारभ्य चतुर्दशपुरूषपर्यंतं सोदका:।।
पंचदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:।
पित्रादयस्त्रयश्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रय:।।
सप्तम:स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यम् वुधै:स्मृतम्।
सापिंड्यम् सोदकं चैव सगौत्रम् वै क्रमात्।।
एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्।।
 
लघवाश्वलायन स्मृति–२०/८२-८४ में कहा गया है, इनमें पूर्व,-पूर्व के न रहने पर क्रमश: बाद के लोगो का श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है।
 
पुत्र पौत्राश्च तत्पुत्रः पुत्रिका पुत्र एव च।
पत्नि भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा।।
भगिनी भागिनेयश्च सपिंड: सोदकस्तथा।
असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदा:स्मृताः।।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

स्मृति-संघ, श्राध्द कल्प- विष्णुपुराण के अनुसार पुत्र पौत्र प्रपौत्र भाई भतीजा अथवा अपनी सपिंड सन्तति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्ध क्रिया करने का अधिकारी होता है। यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदक की सन्तति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा समानोदक को इसका अधिकार है। मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर स्त्री ही इस क्रिया को करे अथवा यदि स्त्री भी न हो तो साथियों में से ही कोई करे या बाँधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके प्रेत कर्म करावे।

पुत्र:पौत्र:प्रपौत्रोवा भ्राता वा भ्रातृसन्तति:।
सापिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते।।
तेषामभावे सर्वेषां समानोदक सन्तति:।
मातृपक्ष सपिंडेन सम्बद्धा ये जलेन वा।।
कुलद्वेपि चोच्छिन्नो स्त्रिभि: कार्या: क्रिया नृप।
सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया:।।
उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनी पति:।
 
हेमाद्रि के अनुसार पिता की पिण्डदानादि क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिये। पुत्र के अभाव में पत्नी करे पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिये-
पितु: पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदक क्रिया।
पुत्राभावे तु पत्नीस्यात् पत्न्यभावे तु सोदर:
हेमाद्रि में शंख का वचन
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

मार्कण्डेय पुराण

में बताया गया है कि चूंकि राजा सभी वर्णों का बन्धु होता है। अतः सभी श्राद्धाधिकारी जनों के अभाव होने पर राजा उस मृत व्यक्ति के धन से उसके जाति के बांधवों द्वारा भलीभांति दाह आदि सभी और्ध्वदैहिक क्रिया कराये।

सर्वाभावे तु नृपति:कारयेत तस्य रिक्वत:।
तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्या: सकला:क्रिया:।।
शास्त्रों में श्राद्ध के अनेक भेद है, किंतु यहाँ उन्ही श्राद्धों को उल्लेखित कर रहा हूं, जो अत्यंत आवश्यक और अनुष्ठेय है।
 
 

मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गये है।

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते ।।
नित्य नैमित्तिक और काम्य -भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं। 
 

यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है।

नित्य,नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम्।
पार्वणम् चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं वुधै।
प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राध्द कहते हैं। इसमें विश्वेदेव नही होते तथा अशक्ता अवस्था में केवल जल प्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है।
अहन्यहनि यच्छ्राद्धम् तन्नित्यमिति कीर्तितम्।
वैश्विदेवविहीनं तदशक्तावुदकेन तु।।
तथा एकोदिष्ट श्राद्ध को नैमित्तिक श्राध्द कहते हैं, इसमें भी विश्वेदेव नही होते। किसी कामना की पूर्ति निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध को काम्यश्राद्ध कहते हैं।
वृद्धिकाल में पुत्रजन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य मे जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृध्दि श्राद्ध – नांदिश्राद्ध, कहते हैं। पितृपक्ष, अमावस्या अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव- विश्वेदेव सहित, श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं। विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्यपुराण नित्य, नैमित्तिक, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन, गोष्ठी, शुद्धयर्थ कर्मांग, दैविक, यात्रार्थ, तथा पुष्ट्यर्थ ये द्वादश प्रकार के श्राद्ध बताये गये हैं।
नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्।
पार्वणम् चेति विज्ञेयं गोष्ठीम् शुद्धयर्थमष्टकम्।।
कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्।
यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम्।।
ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गये है। प्रायः सभी श्राद्धों का अंतर्भाव उपर्युक्त पञ्चश्राद्धों में हो जाता है।
जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्ड का पितृपिण्डो में सम्मेलन किया जाये, उसे सपिण्डन श्राध्द कहते है। समूहों में जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं। शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है, उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं। गर्भाधान, सीमन्तोनयन, तथा पुंसवन आदि संस्कारो के समय जो श्राध्द किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं। सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ठ हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो श्राध्द किया जाता है, उसे दैविक श्राध्द कहते हैं। तीर्थ के उद्देश्य से देशांतर जाने के समय घृत द्वारा जो श्राद्धकिया जाता है, उसे यात्रार्थश्राध्द कहते है। शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिये जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पुष्ट्यर्थ श्राध्द कहते हैं।
उपर्युक्त सभी श्राद्ध श्रोत स्मार्त्त भेद से दो प्रकार के होते हैं। पिण्डपितृयाग- अमावश्यायां पिण्डपितृयाग: – इस वचन के अनुसार पिंडपितृयाग – अमावश्या के लिए होता है। इस याग को करने का अधिकार केवल अग्निहोत्री को है, को श्रोतश्राद्ध कहते हैं। और एकोदिष्ट, पार्वण, तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरणतक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते हैं।
पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व
श्राद्ध के ९६अवसर है। बारह मास की अमावश्याएँ, सत्ययुग, त्रेतादि, युगों की प्रारम्भ की चार युगादि तिथियाँ, मनुओं के आरंभ की चौदह, मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियाँ, बारह वैधृति योग, बारह व्यतीपात योग, पंद्रह महालय श्राद्ध- पितृपक्ष, पांच अष्टका, पांच अनवष्टका, तथा पांच पूर्वेद्यु: ये ९६अवसर श्राद्ध के लिये है।
अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालया:।
अष्टकान्वष्टकापूर्वेद्यु:श्राद्धैर्नवतिश्च षट्।।
 

पितृ दोष या पितरों की नाराजगी को दूर करने के लिए कई धार्मिक और आध्यात्मिक उपाय भारतीय संस्कृति में बताए गए हैं। इन उपायों का उद्देश्य पितरों को शांति और संतुष्टि प्रदान करना है। यहाँ कुछ पितरों की नाराजगी का संकेत और प्रमुख उपाय बता रहे हैं।

पितृपक्ष - श्राद्ध कर्म का महत्व

1. श्राद्ध कर्म और तर्पण

श्राद्ध: अपने पितरों का श्राद्ध कर्म पंडित या पुरोहित के मार्गदर्शन में विधिवत कराना चाहिए। श्राद्ध कर्म पितृ पक्ष (भाद्रपद की पूर्णिमा से अश्विन मास की अमावस्या तक) के दौरान किया जाता है।
तर्पण: पितरों की शांति के लिए जल तर्पण करें। गंगा, यमुना या किसी पवित्र नदी में तर्पण करना शुभ माना जाता है।

2. पिंडदान

पिंडदान पितरों को समर्पित अनुष्ठान है। इसे गयाजी, काशी, हरिद्वार, अयोध्या या किसी अन्य पवित्र स्थल पर जाकर विधिपूर्वक करना लाभकारी होता है।

3. पितृ अमावस्या पर दान

अमावस्या के दिन पितरों की शांति के लिए गरीबों को भोजन, वस्त्र, और अन्य आवश्यक वस्तुएं दान करें।
ब्राह्मण भोज भी कराना लाभकारी होता है।

4. कव्र्य या व्रत

पितृ दोष निवारण के लिए अमावस्या, एकादशी या अन्य विशेष तिथियों पर व्रत रखने से पितरों की नाराजगी कम होती है।
शास्त्रों में विशेष रूप से अमावस्या के दिन उपवास रखने का महत्व है।

5. पीपल वृक्ष की पूजा

पीपल के पेड़ की पूजा करने से पितृ दोष का निवारण होता है। शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं और “ॐ पितृभ्यो नमः” का जाप करें।

6. रुद्राभिषेक और महामृत्युंजय जाप

शिवलिंग पर रुद्राभिषेक करना और महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना पितरों की शांति के लिए अत्यंत प्रभावी माना जाता है।

7. विशेष मंत्रों का जाप

“ॐ पितृभ्यः नमः” मंत्र का नियमित रूप से जाप करने से पितरों की नाराजगी दूर होती है।
पितरों के लिए विशेष रूप से पितृ सूक्त का पाठ करना भी लाभकारी होता है।

8. किसी तीर्थ स्थान पर अनुष्ठान

गया, हरिद्वार, प्रयाग, काशी, अयोध्या आदि तीर्थ स्थानों पर जाकर पितरों के नाम पर दान और अनुष्ठान करना चाहिए।

9. गौदान और ब्राह्मण भोजन

गौदान (गाय का दान) करना और ब्राह्मणों को प्रेम पूर्वकभोजन कराना पितृ दोष को शांत करने का एक महत्वपूर्ण उपाय है।

10. सर्वपितृ अमावस्या पर पूजा

सर्वपितृ अमावस्या के दिन पितरों के लिए विशेष पूजा और दान करना चाहिए, क्योंकि यह दिन सभी पितरों की शांति के लिए समर्पित है।
इन उपायों को श्रद्धा और विश्वास के साथ करने से पितरों की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में शांति, समृद्धि और उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।
पित्र की नाराजगी को दूर करने के उपायपितृ (पूर्वजों) की नाराजगी को पहचानने के लिए भारतीय संस्कृति और धर्म में कई संकेत और लक्षण माने जाते हैं। यहाँ कुछ प्रमुख संकेत दे रहे हैं।

1. असामान्य सपने

यदि आपको बार-बार पूर्वजों या दिवंगत परिजनों से जुड़े सपने आते हैं, जिसमें वे दुखी या नाराज दिखते हैं, तो यह पितृ दोष का संकेत माना जाता है।

2. पारिवारिक समस्याएँ

घर में लगातार तनाव, अशांति, और आपसी कलह होना। अनायास ही घर के अंदर बदबूदार हवा महसूस होना। भोजन स्वादहीन होना। भोजन से अचानक बाल या कंकड़ पत्थर दिखाई देना। बिना किसी कारण के घर के सदस्यों की स्वास्थ्य समस्याएं या आकस्मिक दुर्घटनाएँ होना। सब पितरों की नाराजगी का संकेत है।

3. आर्थिक तंगी

परिवार में आर्थिक समृद्धि होने के बावजूद अचानक से पैसे की तंगी या नुकसान हो सकता है।

4. संतान से संबंधित समस्याएँ

संतान सुख में बाधा आना, विवाह या संतान के जन्म में विलम्ब या संतान का बीमार रहना पितृ दोष के संकेत माने जाते हैं।

5. श्राद्ध कर्म में बाधा

श्राद्ध के समय यदि कोई बाधा आती है या श्राद्ध कर्म सही तरीके से नहीं हो पा रहे हैं, तो यह भी पितरों की नाराजगी का सूचक होता है।

6. धार्मिक कार्यों में अरुचि

यदि किसी को धार्मिक कार्यों में अरुचि हो रही है या उन्हें सम्पन्न करने में लगातार कठिनाइयां आ रही हैं, तो यह भी एक संकेत हो सकता है।

पितृदोष निवारण के उपाय

नियमित रूप से पितृ तर्पण, श्राद्ध या पिंडदान करना चाहिए।
अमावस्या के दिन पितरों के नाम पर दान करना या भोजन का वितरण करना चाहिए।
किसी योग्य पुरोहित से परामर्श लेकर पितृ दोष निवारण के लिए विशेष पूजा, अनुष्ठान कराना चाहिए।
पितरों की नाराजगी दूर करने के लिए श्रद्धा और समर्पण के साथ इन उपायों का पालन करना लाभकारी माना जाता है।

Click on the link जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति कौन किसके वंशज में आप जानिए किसके वंशज हैं और गोत्र कैसे प्राप्त हुआ हमारी 21वीं प्राचीन वंश लेखनी के भाग एक से चार तक में मौजूद है। बहुमूल्य समय में से समय निकाल पढ़ना चाहिए और अपनों को शेयर कर यह जानकारी देनी चाहिए जो सनातन धर्म से है और दुर्लभ जानकारी है आप सब के समक्ष आपकि भाषा में। 

click on the Google search links amitsrivastav.in साइड पर जाकर पढिए गोकर्ण धुंधकारी का जन्म कैसे हुआ धुंधकारी को कैसे मिली प्रेत योनी से मुक्ति सम्पूर्ण जानकारी एक क्लिक में।