शिक्षा का बदलता स्वरूप: प्राथमिक शिक्षा: गुरूकुल, परिषदीय, कान्वेंट शिक्षा पर एक विश्लेषण

Amit Srivastav

शिक्षा का बदलता स्वरूप: प्राथमिक शिक्षा: गुरूकुल, परिषदीय, कान्वेंट शिक्षा पर एक विश्लेषण

भूत, वर्तमान और भविष्य की शिक्षा में जमीन आसमान का अंतर फिर भी सभ्य समाज का निर्माण करने में वर्तमान शिक्षा की अपंगता।
यह एक गंभीर मुद्दा है जिस पर आज हम भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के वंशज- अमित श्रीवास्तव विस्तार से विश्लेषणात्मक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं, जो कटू सत्य है। इस विश्लेषणात्मक विचारणीय लेखनी को समय निकाल कर हर किसी को पढ़ने और समझने की आवश्यकता है, सबको समुचित शिक्षा मुहैया हो इस उद्देश्य से गहन मंथन, जांच पड़ताल के बाद कलम अग्रसर है। वैसे तो समय-समय पर हमारे द्वारा शिक्षा को लेकर तमाम लेखनी लिखीं और प्रकाशित की गई है, उसी क्रम में पढ़िए शिक्षा पर आधारित प्राचीन काल से वर्तमान व भविष्य की शिक्षा व्यवस्था की रूप-रेखा पर यह विचारणीय लेखनी। शिक्षा का बदलता स्वरूप में प्राथमिक शिक्षा – गुरूकुल, परिषदीय, प्राइवेट, कान्वेंट विद्यालयों की शिक्षा और व्यवस्था।

प्राचीन काल में ऋषि मुनियों द्वारा शिक्षा दी जाती थी, जहां शिक्षा दी जाती थी, उस विद्या के मंदिर को गुरूकुल कहा जाता था। उस समय शिक्षा कि शुरुआत- शिष्टाचार से आरम्भ होती थी। सर्वप्रथम गुरु द्वारा शिष्य को शिष्टाचार सिखाया जाता था। तत्पश्चात सभ्यता की पाठ पढ़ाई जाती थी। उस समय के गुरू और शिष्य के सम्बंध को वर्तमान में मास्टर साहब और छात्र कहा जाता है। बोलचाल की भाषा मास्टर साहब को अध्यापक लिखा जाता है। प्राचीन समय में हर किसी को शिक्षा उपलब्ध नही होती थी, किन्तु जिन्हें शिक्षा मिल जाती थी – वो लोग समाज के लिए मार्गदर्शक होते थे। उनके रग-रग में शिष्टाचार विधमान रहता था, अभद्रता नाम की चीजें लेस मात्र की नही रहती थीं। वैसी गुरूकुल की शिक्षा त्रेता, द्वापर युग तक ही सिमित रह गईं।

कलियुग की शिक्षा:

त्रेता द्वापर इस प्राचीन युग के बाद कलियुग का आगमन हुआ और हर कार्य में कल और छपट होने लगा। “भरत खंड” ऋषि मुनियों की इस तपोभूमि से निष्कासित प्रचेता के सौ पुत्रों ने ही रेगिस्तान की भूमि मक्का-मदिना सऊदी अरब से मुस्लिम काबिले की स्थापना किया, वही वंशज इस देव भूमि पर आ-आकर अपना अधिपत्य स्थापित करते रहे और हमारी भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का काम किया।

अग्रेजी हुकूमत की शिक्षा व्यवस्था

अग्रेजी हुकुमत तक जहां तहां प्राचीन गुरूकुल शिक्षा व्यवस्था मुगलों द्वारा ध्वस्त करने के बाद बची खुची थी, उसे पूरी तरह अग्रेजी हुकूमत में ध्वस्त कर कान्वेंट शिक्षा को बढ़ावा मिला। आईए समझते हैं –

कान्वेंट शिक्षा क्या है?

1947 में सत्ता हस्तांतरण के साथ अग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजियत छोड़ गए। जी हां – यह थोड़ा कटू है किन्तु सत्य है। अग्रेज अईयास किस्म के होते थे और हैं। उस समय में उन्हें नाजायज़ सम्बन्ध बनाने की एक सौख थी और नाजायज़ सम्बन्धों से उत्पन्न बच्चों की परवरिश कराना अपना दायित्व समझते थे। उसी क्रम में अंग्रेज कुछ गिने-चुने जगहों पर आवासीय विद्यालयों की स्थापना कर, उन बच्चों की परवरिश और शिक्षा दिलाने का प्रबंध किए। उन जगहों पर एक फादर और एक मदर मुख्य जिम्मेदार अधिकारी होते थे और उसके मार्गदर्शन में बच्चों की परवरिश होती थी। वही नाजायज औलादें उन देखरेख करने वाले को फादर, मदर या सिस्टम कहा करते थे। वहां शिक्षा अंग्रेजों लिपि में दी जाती थी, जिसे आज हम सौख से स्वीकार कर रहे हैं। अग्रेज चले गए अंग्रेजियत हमे दे गए। उनकी अग्रेजी लिपि और हमारी अग्रेजी लिपि में अंतर दिखाई देता है। उनकी अग्रेजी ग्रामण विहीन हैं और हमारी अग्रेजी लिपि ग्रामण युक्त होते हैं। आज उनके पैटर्न पर चल रहे कान्वेंट विद्यालयों के बच्चों से हमारे अग्रेजी माध्यम के बच्चों की तुलना की जाए तो स्पष्ट रूप से उनका सारा शिक्षा रूपी दूध पानी नजर आयेगा। क्यूँकि स्पष्ट रूप से देखने को मिल जायेगा कि न तो उन्हें अंग्रेज़ी ग्रामण की जानकारी है न ही अग्रेजी से शुद्ध अपनी मातृभाषा हिंदी ट्रान्सलेट की।
हमारे भारतीय संस्कृति के अनुसार माता पिता किसी एक को कहा जाता है। चाचा-चाची, मामा-मामी, मौसी मौसा आदि लोग होते हैं, लेकिन उनके अग्रेजी भाषा फादर, मदर का हिन्दी रूपांतरण पिता माता एक से अधिक हो ही नहीं सकता। उनके बोलचाल में हमारे कईयों रिश्ते को एक ही शब्दों से संबोधित किया जाता है। तो क्या उचित है, क्या अनुचित है विचार करना चाहिए ? हमारी हिंदी भाषा उत्तम है या उनकी अग्रेजी, जिसमें हमारी कईयों रिश्ते एक ही शब्दों में समाहित कर हमारे समाज को दुविधा में डाल रही हों।

वर्तमान शिक्षा का पर्दाफाश:

अंग्रेजों से हिनदुस्तान में सत्ता हस्तांतरण के बाद रियासतों को तोड़कर सरकार का गठन हुआ। जिसमें परिषद, निगम वगैरह सरकार मे नही आये। परिषद, निगम के कर्मी उसी वजह से सरकार के कर्मी के रूप में नही आते हैं। इनके साथ सरकार का समझौता हुआ कि सरकारी धन से आपके कार्य का संचालन किया जायेगा, जिसमें देखरेख के लिए सरकार का मुख्य कर्मी नियुक्त किया जाएगा। यहां शिक्षा पर चर्चा कर रहे हैं, तो इसी पर बता दें जैसे शिक्षा विभाग में अध्यापक परिषद का कर्मी तो वहीं ब्लाक स्तर पर नियुक्त खंड शिक्षा अधिकारी, जिले पर वेशिक शिक्षा अधिकारी राज्य सरकार का कर्मी होता है।
भारत के राज नेता भारत के नागरिकों को विश्व गुरु बनने का झूठा सपना दिखाते हैं, जिस देश में शिक्षा विश्व बैंक के अनुदान पर संचालित होती है, वो भी आधा तोर आधा मोर के पैटर्न पर “विश्व बैंक के अनुदान का भी पैसा बांट लिया जाता है” वैसा देश विश्व गुरु कैसे बन सकेगा- गंभीर मुद्दा है। शिक्षा देश के भविष्य की नीव होती है और शिक्षा पर ही समुचित खर्च करने में असमर्थ भारत सरकार विश्व बैंक के सहारे आज अटल बिहारी वाजपेयी शासन काल से चल रही है। सर्व शिक्षा अभियान विश्व बैंक की योजना है और इस योजना के तहत विश्व बैंक भारत सरकार को अनुदान देकर भारत देश की शिक्षा को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए योगदान देता है। यहां तक कि विश्व बैंक से आ रहे धन को भी बंदरबांट कर “खा पीकर” विश्व बैंक को गुमराह किया जाता है, कि समुचित रूप से खर्च किया गया। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि विश्व बैंक से आने वाले कर्मियों के पारिश्रमिक में से भी सरकार कटौती कर लेती है और मध्यान्ह भोजन को भी जिम्मेदार कर्मचारियों द्वारा हड़प लिया जाता है। बच्चों को मानक के अनुसार शायद ही कहीं भोजन दिया जाता हो।

1984 के लोकसभा चुनाव में “इंदिरा गांधी” कांग्रेस की सरकार वामपंथी दलों के सहयोग से बनी थी, जिसमें मुख्य मंत्रालयों में वामपंथी दलों के नेता मंत्री रूप में रहे। शिक्षा मंत्रालय ने एक ही झटके में प्राथमिक से लेकर सम्पूर्ण ग्रेजुएशन तक की किताबों को बदल दिया और नये-नये पाठ्यक्रम लाये गये। तबसे आज तक हमे अकबर बादशाह अलाउद्दीन औरंगजेब का इतिहास पढ़ाया जाता है और हम बड़ी सौख से पढ़ते भी हैं। आज 11 सालों से तीसरी बार केंद्र में सनातन धर्म रक्षकों की सरकार चल रही है, तो पुनः हमारे सनातन इतिहास को अब तक क्यों नहीं लाया गया? क्या यह सिर्फ सनातन रक्षक कहे जाने वाले हैं? सनातन की रक्षा क्या मुगलों के इतिहास में निहित है? हम अगर अपने पूर्वजों की इतिहास पढ़ते तो शायद इस इतिहास से बहुत बेहतर होता। क्योंकि? हमारे पूर्वज ऋषि मुनि धर्म की रक्षा करने वाले रहे हैं और धर्म विरोधी ब्रह्मा के वंश में प्रचेता के वंशजों ने शुरू से ही यज्ञ हवन-पूजन धर्म को नष्ट करने वाले रहे। भारत भूमि से निष्कासित प्रचेता के वंशजों का इतिहास पढ़वाने से अच्छा है, हमे धर्म की रक्षा करने वाले ऋषि मुनियों से उत्पन्न वंशजों राजाओं का इतिहास पढ़ाया जाए।

सभ्यता शिष्टाचार विहीन शिक्षा का परिणाम

प्राचीन शिक्षा के मुकाबले हमारी वर्तमान शिक्षा तो पूरी तरह से ध्वस्त ही है। शिक्षा से न ही सभ्यता, नही शिष्टाचार प्राप्त हो रहा है। एक गरीब माता-पिता अपने बच्चे को किसी तरह वैसी शिक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम हो जा रहे हैं, जिससे बड़े पद की प्राप्ति हो जाए। वही बच्चे आगे चलकर न ही अपने माता-पिता का सम्मान करता न कमजोर नात रिस्तेदारों से कोई रिश्ता निभाता। इसका मुख्य कारण है कि हमारे उन बच्चों में शिष्टाचार की शिक्षा दी ही नही गई है। वैसे बच्चों के माता-पिता ही अपने बच्चों से त्रस्त हो खून के आंसू रोते हैं। उन बच्चों को अपने ग़रीब सामान्य भाषा में बातचीत करने वाले माता-पिता ही पसंद नहीं आते, जब हाई-फाई फैसिलिटी में चले जाते हैं। यह सभ्यता और शिष्टाचार का अभाव नही तो और क्या है?

ऊपर आपने भूतपूर्व शिक्षा में गुरूकुल शिक्षा और कान्वेंट शिक्षा को समझ ही चुके हैं। यहां वर्तमान शिक्षा और भविष्य पर थोड़ी चर्चा करते हैं।
वर्तमान शिक्षा को सुदृढ़ बनाने के उद्देश्य से सरकार ध्यान नहीं दे रही है। न ही हमारे मुल पाठ्यक्रम सनातन इतिहास हमे पढ़ाया जाता है न ही शारीरिक और मानसिक रूप से हमें सुदृढ़ बनाने वाली शिक्षा पर जोर दिया गया है।

शिक्षा का बदलता स्वरूप: प्राथमिक शिक्षा: गुरूकुल, परिषदीय, कान्वेंट शिक्षा पर एक विश्लेषण

वर्तमान प्राथमिक शिक्षा की स्थिति को दिनोंदिन सरकार ध्वस्त करते जा रही है। मूल समस्या प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी, जिसे सरकार दूर करने की जरूरत नहीं समझ रही है। जिस कारण प्राथमिक विद्यालयों की पांचों कक्षाएं एक साथ समुचित रूप से संचालित नही होतीं। जो थोड़े शिक्षक हैं, उनके ऊपर गैर शैक्षणिक कार्यों की जिम्मेवारी, जिससे- जो शिक्षक हैं वो भी अपने दिमाग को दो भागों में विभाजित कर उथल-पुथल में शिक्षा दे रहे हैं, जिससे गुणवत्ता में सुधार होने की कोई संभावना नहीं है। सम्पूर्ण कार्य आफलाइन के साथ साथ आनलाईन भी करने होते हैं। इससे अध्यापकों का दिमाग एक तरफ मोबाइल पर लगा हुआ रहता है, तो दूसरे तरफ गैर शैक्षणिक कार्यो के साथ ही पांचों कक्षाओं पर। तमाम तरह के एप्स का निरिक्षण और उसपर कार्य प्रथम वरियता क्रम में रखा गया है। शिक्षकों का एक ही कार्य का दो तरह का पारिश्रमिक जो भेद-भाव प्रदान करता है। गांव गलियों में प्राइवेट विद्यालयों के बढ़ावा से पारिषद की विद्यालयों में बच्चों की कमी हुआ है। इन तमाम कारणों से वेशिक प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों की दिनोंदिन कमी हो रही है, जिसका लाभ अब सरकार उठाने के लिए एक कदम बढ़ाने वाली है। वो कदम यह है कि कम बच्चों वाले विद्यालयों को तोड़कर दूसरे विद्यालयों में मर्ज किए जाने की संभावना ज्यादा दिखाई दे रही है। सरकार शिक्षा व्यवस्था में सुधार करने के बजाय विद्यालयों को तोड़ने की तरफ़ ध्यान दे रही है। निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकार अपनी जिम्मेदारी और हो रहे खर्च को बचाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रही है। सरकार अपने कमियों को दूर करने के बजाय कम से कम नियुक्त शिक्षकों के सर ठीकरा फोड़ गांव के बच्चों के लिए सुविधाजनक शिक्षा को जटिल और महंगी शिक्षा के तरफ़ धकेलने के लिए कम बच्चों वाले प्राथमिक विद्यालयों को तोड़कर अपने खर्च में बचत करने के लिए योजना तैयार कर रही है। कम बच्चों वाले विद्यालयों को बंद किया जाता है तो, उस गांव के गरीब परिवारों के छोटे छोटे बच्चे दूसरे गांवों के विद्यालयों में जाने में असमर्थ होगें, जिससे वो गरीब परिवारों के बच्चे शिक्षा से वंचित हो जायेगें या माता-पिता पर शिक्षा का अतिरिक्त बोझ प्राइवेट विद्यालयों में पढ़ाने से उठाना पड़ेगा। गांव गलियों में बिना मान्यता प्राप्त विद्यालय उन गरीब परिवारों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा किसी भी किमत पर नही देगा और बच्चों का भविष्य चौपट होने की संभावना बढ़ेगी।

संविधान के अनुच्छेद 21A इस नियमावली में यह बात स्पष्ट है कि 6 वर्ष से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिलता है। केन्द्र व राज्य के कानून द्वारा निर्धारित किया गया है। वर्ष 2002 दिसम्बर में 86 वें संशोधन द्वारा सम्मलित इस अनुच्छेद में शिक्षा को प्रारम्भिक स्तर बाल्यकाल में शैक्षिक विस्तार में गुणवत्ता सुनिश्चित का अधिकारिक दर्जा प्रदान किया गया है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा पर विश्व बैंक की मोटी रकम खर्च होती है। गरीब देशों की श्रेणी में बदहाल स्थिति को सुधारने के लिए सबसे अहम भूमिका शिक्षा का होता है। विश्व बैंक लगातार भारतीय शिक्षा कि स्थिति सुधारने के लिए तरह-तरह कि योजनाओं के साथ अनुदान देता रहा है। फिर भी सरकार के गलत नीतियों के कारण शिक्षा में गुणवत्ता नही आ रही है, सिर्फ़ साक्षरता दर बढ़ाने का काम किया जा रहा है। जिस शिक्षा से देश का नीवं मजबूत होता है उसी शिक्षा योजना को पूरी तरह से सरकार अपने हाथ लेकर बच्चों के लिए सुविधाजनक निशुल्क शिक्षा मुहैया कराने से कोसों दूर भागती रही है और अब पहले से चल रहे गांव की प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति खराब कर, बंद करने की फिराक में लगी हुई है। जिससे गांव के गरीब बच्चों सहित माता-पिता को तमाम तरह की परेशानियों से निपटना पड़ेगा और ज्यादातर गरीब परिवारों के बच्चे शिक्षा की मूल धारा से वंचित होगें। स्कूलों को बढ़ाने और निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ देने के बजाए अपने जिम्मेदारी से सरकार पीछे हट शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। शिक्षा का निजीकरण आने वाले समय के लिए प्रमुख समस्याएं उत्पन्न करेंगी।

भारत में प्राथमिक शिक्षा कि वर्तमान स्थिति क्या है?

विश्व बैंक प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सुधार और विकास के लिए भारत को विभिन्न परियोजनाओं के माध्यम से वित्तीय सहायता “अनुदान” प्रदान करता है। विश्व बैंक का भारतीय प्राथमिक शिक्षा पर खर्च का उद्देश्य भारतीय प्राथमिक शिक्षा में सुधार, गुणवत्ता युक्त शिक्षा, बुनियादी ढांचे का विकास, शिक्षकों के प्रशिक्षण, शैक्षिक समावेश को बढ़ावा देने पर केन्द्रित होता है। भारत में प्राथमिक शिक्षा के लिए विश्व बैंक की कुछ प्रमुख परियोजनाएं और वित्तीय सहायता प्रदान इस प्रकार है।

सर्व शिक्षा अभियान, Sarva Shiksha Abhiyan- SSA : सरस्वती परियोजना

यह एक विश्व बैंक का भारतीय प्राथमिक शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। भारत की दयनीय स्थिति में गिरती शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए भारत सरकार को 2001 में इस परियोजना के तहत बड़ी रकम विश्व बैंक ने देना शुरू किया ताकि भारतीय शिक्षा का स्तर उठाया जा सके और बच्चे शिक्षा से वंचित न हों। 2014 तक इस योजना के तहत विश्व बैंक भारत को लगभग ₹16.000 करोड़ 2.5 बिलियन डॉलर से अधिक का अनुदान दिया है।

वर्ष 2020 में शुरू हुईं यह परियोजना भारत के 6 राज्यों हिमाचल प्रदेश, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान में शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए लक्षित किया है। इस योजना के तहत अनुदान का उद्देश्य शिक्षण और सीखने की गुणवत्ता में सुधार करना एवं परिणाम आधारित ढांचे को लागू करना है। इस योजना के तहत विश्व बैंक का अनुदान राशि लगभग ₹3,700 करोड़ 500 मिलियन डालर विश्व बैंक ने भारत को अनुदान दिया है।

मध्यान्ह भोजन योजना: MID-DAY MEAL SCHEME

विश्व बैंक मध्यान्ह भोजन में बड़ा अनुदान देता रहा है। विश्व बैंक के अनुदान से भारत के विद्यालयों में मध्यान्ह भोजन कि उपलब्धता सुनिश्चित की गई। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत इतना सम्पन्न देश नही है जो बच्चों को स्कूल में मध्यान्ह भोजन पर होने वाले खर्च का बोझ भी उठा सके। तो अनुमान लगा सकते हैं भारत अपने देश की नीव मजबूत मतलब बच्चों की शिक्षा के प्रति कितना जिम्मेदारी निभा रहा है। विश्व बैंक ने सर्वशिक्षा अभियान के शुरूआती दौर में स्कूली बच्चों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने के उद्देश्य से स्कूलों में मध्यान्ह भोजन की उपलब्धता अनुदान देकर सुनिश्चित किया। जिससे बच्चों की स्कूलों में संख्या बढ़ाने में मदद मिले और सभी बच्चों को निशुल्क शिक्षा का अधिकार दिया जा सके। विश्व बैंक की ये परियोजनाएं विशेष रूप से प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर संरचनात्मक सुधारों और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के प्रसार पर ध्यान केंद्रित करती हैं, जिससे भारतीय शिक्षा प्रणाली को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप लाने में मदद मिले।

भूत, वर्तमान और भविष्य की शिक्षा व्यवस्था में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन यह कटु सत्य है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली सभ्य समाज का निर्माण करने में अपंग साबित हो रही है। यदि हम समाज के लिए एक सकारात्मक भविष्य चाहते हैं, तो हमें शिक्षा में नैतिकता, शिष्टाचार, और जीवन मूल्यों का समावेश करना होगा। शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान का अर्जन नहीं, बल्कि एक सभ्य, संस्कारित और सशक्त समाज का निर्माण करना होना चाहिए।
शिक्षा का बदलता स्वरूप हमारे समाज और भविष्य पर गहरा प्रभाव डालता है। प्राचीन गुरूकुल शिक्षा प्रणाली में नैतिकता, शिष्टाचार, और व्यवहारिक ज्ञान का महत्व था, जबकि वर्तमान में शिक्षा केवल पुस्तकीय ज्ञान और रोजगार पाने तक सीमित हो गई है। मुगलिया और अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली ने भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को कमजोर किया और आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में नैतिक मूल्यों का अभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
भविष्य की शिक्षा व्यवस्था को अधिक समावेशी, संस्कारित, और नैतिक बनाना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा का उद्देश्य केवल तकनीकी और व्यावसायिक दक्षता प्रदान करना नहीं होना चाहिए, बल्कि एक सभ्य, सशक्त, और नैतिक समाज का निर्माण करना भी होना चाहिए। परिषदीय विद्यालयों में कम हो रहे बच्चों का कारण जानना चाहिए न कि सरकार को अपनी जिम्मेदारी से भागते हुए स्कूलों को बंद कर निजी क्षेत्रों के स्कूलों को बढ़ावा देना चाहिए।
प्राचीन काल की शिक्षा व्यवस्था में शिष्टाचार, सभ्यता, और समाज के प्रति जिम्मेदारी का गहरा भाव था। ऋषि-मुनियों के गुरुकुलों में दी जाने वाली शिक्षा समाज के मार्गदर्शन और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए एक मजबूत नींव थी। हालांकि, समय के साथ यह व्यवस्था क्षीण हो गई और अंग्रेजी शासन के दौरान पूरी तरह से समाप्त हो गई, जिसे कान्वेंट शिक्षा व्यवस्था ने प्रतिस्थापित किया।
अंग्रेजों के जाते ही अंग्रेजी संस्कृति का प्रभाव हमारे शिक्षा तंत्र पर हावी हो गया। आज के कान्वेंट स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा न केवल हमारी सभ्यता और रिश्तों को कमजोर करती है, बल्कि इसमें शिष्टाचार और नैतिक मूल्यों का भी अभाव है। यह एक चिंता का विषय है कि आज की शिक्षा प्रणाली में छात्रों के अंदर समाज के प्रति संवेदनशीलता और नैतिकता का विकास करने पर पर्याप्त जोर नहीं दिया जा रहा है।
1984 से शिक्षा में किए गए बदलावों के तहत हमें हमारी संस्कृति और इतिहास से हटाकर बाहरी आक्रमणकारियों का इतिहास पढ़ाया जा रहा है, जो हमारी संस्कृति को कमजोर करने का ही एक प्रयास प्रतीत होता है। आज के युग में शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्रियाँ हासिल करना रह गया है, जिसमें शिष्टाचार, सम्मान और संस्कारों का अभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
अतः, समाज और सरकार दोनों को शिक्षा व्यवस्था पर गंभीर मंथन कर इसे पुनः एक समृद्ध, संस्कारित और नैतिक आधार प्रदान करने की दिशा में कार्य करना होगा।
इसके लिए  गुणवत्ता, नैतिकता, और संस्कारों को पुनः स्थापित करने पर जोर देना होगा। तभी एक सच्चे अर्थों में सभ्य और उन्नत समाज का निर्माण हो सकेगा, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक होगा।
आज यह आवश्यक है कि शिक्षा का उद्देश्य समाज और संस्कृति के प्रति जिम्मेदार नागरिकों का निर्माण हो। भविष्य में ऐसी शिक्षा व्यवस्था का निर्माण जरूरी है जो छात्रों को शारीरिक, मानसिक और नैतिक रूप से सशक्त बनाए, ताकि वे न केवल अपने परिवार और समाज का सम्मान करें, बल्कि भारत को सही मायनों में “विश्व गुरु” बनाने में योगदान दें।

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