करवा चौथ भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए उपवास करने की परंपरा के रूप में जाना जाता है। करवा चौथ का नाम “करवा” अर्थात मिट्टी का घड़ा और “चौथ” अर्थात चौथे दिन से लिया गया है, जो कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को पड़ता है। इस वर्ष 2024 में करवा चौथ 20 अक्टूबर को है।
करवा चौथ हिंदू धर्म में मनाए जाने वाले विशेष व्रतों में से एक है, जिसे मुख्य रूप से उत्तर भारत, राजस्थान, पंजाब-हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। इस व्रत में सुहागन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए पूरे दिन उपवास रखती हैं और रात में चंद्र दर्शन के बाद व्रत को तोड़ती हैं। करवा चौथ का इतिहास और पौराणिक कथाएँ बहुत ही रोचक और प्रेरणादायक हैं।
करवा चौथ की ऐतिहासिक कहानी

करवा चौथ की सबसे प्रचलित कहानी में वीरवती नामक एक रानी का उल्लेख मिलता है, जो अपने भाइयों के परिवार की एकमात्र बहन थी। पहली बार जब उसने करवा चौथ का व्रत रखा, तो वह बिना कुछ खाए प्यास और भूख से बहुत कमजोर हो गई। यह देखकर उसके भाइयों को चिंता हुई और उन्होंने एक योजना बनाई। उन्होंने एक पेड़ के पीछे आईने से कृत्रिम चंद्रमा बनाया और वीरवती को व्रत तोड़ने के लिए कहा। जैसे ही उसने व्रत तोड़ा, उसे यह ज्ञात हुआ कि उसका पति मृत हो गया है। वह अत्यंत दुखी होकर भगवान शिव से प्रार्थना करने लगी। उसकी भक्ति और समर्पण देखकर माता पार्वती ने उसके पति को पुनर्जीवित कर दिया। इस तरह से करवा चौथ का व्रत उसकी सच्ची भक्ति और प्रेम के प्रतीक के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
करवा चौथ व्रत की कथा
करवा चौथ व्रत की कथा भारतीय संस्कृति में प्रचलित कई पौराणिक और धार्मिक कथाओं से जुड़ी हुई है। करवा चौथ की प्रमुख कथा है वीरवती की कथा, जो अधिकांश महिलाओं द्वारा सुनी और सुनाई जाती है। यह कथा करवा चौथ व्रत के महत्व और इस व्रत की शक्ति को दर्शाती है।
वीरवती की कथा
प्राचीन समय में एक वीरवती नाम की अत्यंत सुंदर और संस्कारी महिला थी, जो सात भाइयों की अकेली बहन थी। वीरवती का विवाह एक राजा से हुआ था। शादी के बाद, उसने अपने पहले करवा चौथ का व्रत रखा, जिसमें पति की लंबी आयु और सुख-समृद्धि के लिए पूरे दिन भूख-प्यास से रहना होता है। वीरवती ने पूरी श्रद्धा और निष्ठा से इस व्रत को रखा।
चूँकि वीरवती का यह पहला व्रत था, इसलिए वह दिनभर भूखी-प्यासी रहने से बहुत कमजोर हो गई। उसकी यह स्थिति उसके भाइयों से देखी नहीं गई, और वे अपनी बहन को भूखा-प्यासा देख कर चिंतित हो गए। उन्होंने उसे व्रत तोड़ने के लिए बहलाने की योजना बनाई। भाइयों ने एक पेड़ के पीछे जाकर एक बड़ा दर्पण लगाया जिससे ऐसा प्रतीत हो कि चाँद निकल आया है। वीरवती ने इस नकली चाँद को देखकर व्रत तोड़ दिया और खाना खा लिया।
व्रत तोड़ने के तुरंत बाद वीरवती को यह दुखद समाचार मिला कि उसके पति की मृत्यु हो गई है। वीरवती यह सुनकर अत्यधिक दुःखी हो गई। उसने भगवान से प्रार्थना की और अपने पति की मृत्यु का कारण पूछने लगी। तब एक देवी ने उसे बताया कि उसने बिना चाँद देखे और विधिपूर्वक व्रत पूरा किए बिना ही अपना व्रत तोड़ दिया था, जिसके कारण उसका पति स्वर्गवासी हो गया।
यह सुनकर वीरवती ने अपने पति को पुनः प्राप्त करने का संकल्प लिया और फिर से पूरे विधि-विधान से करवा चौथ का व्रत किया। उसकी अटूट श्रद्धा और निष्ठा से प्रसन्न होकर यमराज ने उसके पति को जीवनदान दिया। तब से महिलाएँ यह मानती हैं कि यदि करवा चौथ व्रत सच्चे मन और विश्वास के साथ किया जाए तो उनके पति की लंबी आयु और सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
करवा और यमराज की कथा
एक अन्य महत्वपूर्ण कथा करवा नामक एक पतिव्रता स्त्री की है। करवा अपने पति के साथ नदी के किनारे रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान कर रहा था, तभी एक मगरमच्छ ने उसे पकड़ लिया। करवा ने अपने तप और सतीत्व के बल पर मगरमच्छ को धागे में बांध लिया और यमराज से उसे मृत्युदंड देने की प्रार्थना की।
यमराज ने करवा की निष्ठा और समर्पण देखकर मगरमच्छ को दंड दिया और करवा के पति को जीवनदान दिया। तभी से करवा चौथ को पतिव्रता स्त्रियों के समर्पण और उनके पतियों की रक्षा के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है।
करवा व्रत का महत्व
करवा चौथ का व्रत केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह पति-पत्नी के अटूट प्रेम, समर्पण और विश्वास का पर्व है। इस दिन महिलाएँ पूरे दिन निर्जल व्रत रखती हैं और रात को चंद्रमा का दर्शन करने के बाद पति के हाथ से पानी पीकर अपना व्रत तोड़ती हैं। यह व्रत पति की लंबी आयु और परिवार की खुशहाली के लिए किया जाता है।
करवा व्रत की परंपराएँ
करवा चौथ की परंपराओं में महिलाओं के लिए सोलह श्रृंगार का विशेष महत्व होता है। वे पूरे दिन निर्जल व्रत रखती हैं और सांझ के समय करवा (मिट्टी के छोटे बर्तन) की पूजा करती हैं। इस करवा में जल भरकर उसे माता पार्वती को समर्पित किया जाता है। शाम को महिलाएं समूह में इकट्ठी होकर करवा चौथ की कथा सुनती हैं और चंद्रमा के उदय होने का इंतजार करती हैं। चंद्र दर्शन के बाद महिलाएं अर्घ्य देकर अपने पति के हाथ से पानी पीकर व्रत तोड़ती हैं।
आधुनिक काल में करवा चौथ
आज के समय में करवा चौथ केवल धार्मिक मान्यताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि यह त्योहार पति-पत्नी के बीच प्रेम, विश्वास और समर्पण का प्रतीक बन चुका है। विशेष रूप से उत्तर भारत के गांवों व शहरों में इसे बहुत ही उत्साह से मनाया जाता है। बाजारों में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ, साड़ी, और पूजा सामग्री की खूब बिक्री होती है।
करवा चौथ न केवल एक धार्मिक व्रत है, बल्कि यह भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों के प्रति सम्मान, विश्वास और प्रेम को व्यक्त करने वाला त्योहार भी है। इसकी ऐतिहासिक कथाएँ और परंपराएँ आज भी हमारे समाज में प्रासंगिक हैं। करवा चौथ का व्रत भारतीय स्त्रियों की शक्ति, भक्ति, और समर्पण का प्रतीक है, जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है।