भारतीय शिक्षा- गति, दुर्गति, दुर्दशा

Amit Srivastav

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अमित श्रीवास्तव

भारतीय शिक्षा प्राचीनकाल से ही मानव-जीवन का अभिन्न अंग रही है। क्योंकि शिक्षा ही मस्तिष्क का संवर्द्धन कर दक्षता प्राप्ति द्वारा जीवन को संतोषजनक बनाती है। शिक्षा ही मनुष्य जीवन में गति प्रदान करती है। समाज में ऐसी धारणा है कि शिक्षा का सर्वव्यापीकरण 20वीं शताब्दी में ही संभव हुआ था। आज शिक्षा मानव की मूलभूत आवश्यकता बन गई है। प्रत्येक व्यक्ति में सीखने और अपने आपको शिक्षित करने की ललक जग चुकी है और शिक्षा ही उसे आवश्यक ज्ञान द्वारा जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए सुसज्जित करती है। शिक्षा वह नींव है जिस पर आधुनिक समाज के स्तम्भ खड़े हैं।

अनौपचारिक एवं सस्ती शिक्षा आज अति विशिष्ट हो गई है। इसका कार्यक्षेत्र भी काफी विस्तृत हो गया है। प्लेटो और अरस्तु सहित भारत में सम्मानित गुरुकुल परम्परा से लेकर आज तक लम्बी यात्रा तय की है। अधिकांश देशों में शिक्षा का राष्ट्रीयकरण हो गया है। भारत एक ऐसा आदर्श देश है जहां शिक्षा को सरकार अनुदान देकर संचालित कराती है जैसे बेसिक शिक्षा परिषद जो प्राथमिक स्तर तक शिक्षा मुहैया कराती है माध्यमिक शिक्षा परिषद बारहवीं तक आगे अनुबंधित विश्वविद्यालय वगैरह। बताने का तात्पर्य यह है कि सरकार सीधे तौर पर देश के भविष्य निर्माताओं को शिक्षा प्रदान नहीं करतीं 1947 में जब अंग्रेजों से गांधी द्वारा एग्रीमेंट के तहत भारत को लिया गया उस समय लगभग पांच सौ छप्पन रियासतों के हाथ देश का बागडोर था। लोकतंत्र की स्थापना कर उन रियासतों को सरकार अपने हाथ में ले तो ली कुछ रियायत आज भी अपने बागडोर को सम्भाले हुए हैं। जिन्हें सरकार अनुदान देकर संचालित कराती है उन्हीं में परिषद, निगम वगैरह आते हैं जो न राज्य सरकार हैं न केन्द्र की सरकारी विभाग…..।

आतें हैं अपने मुल मुद्दे पर विज्ञान और प्रौद्योगिकी की शिक्षा देते समय विषय-वस्तु के संगत स्वीकृत सिद्धांतों एवं प्रक्रियाओं को स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन भारत जैसा विकासशील देश आर्थिक दबाव के कारण शिक्षा पर अधिक व्यय वहन नहीं कर सकता है। हमारी शिक्षा पर व्यय हमारे सकल घरेलू उत्पाद का लगभग मात्र 2.8 प्रतिशत है जबकि विकसित देशों में सामान्यत: स्वीकृत मानदंड 6 प्रतिशत या उससे भी अधिक है। इसके फलस्वरुप शिक्षा यहां बड़े प्रचार से वंचित रही है और इसका कारण है-शिक्षा का निजीकरण।

बिते युगों में शिक्षा ज्ञान की उदेश्य से जो गुरुकुल में ऋषि मुनियों द्वारा दी जा रही थी धीरे-धीरे समय के साथ-साथ लोकतंत्र आते ही लुप्त होती गयी। उस शिक्षा से शिक्षा ग्रहण करने वालों के अन्दर सभ्य समाज का निर्माण करने की जानकारी और सभ्यता का ज्ञान था। आज अग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों में न सभ्यता है न मात-पिता के प्रति समर्पण आज अभिभावक इन अग्रेजी माध्यम के निजी विद्यालयों से शिक्षा दिला उच्च पद पर तो पहुंचा दे रहे हैं लेकिन पद मिलते ही गरीब मात-पिता के प्रति आदर भाव भी समाप्त होते देखी जा सकती है। यहां हमें आदिशक्ति द्वारा त्रिदेवों की उत्पत्ति, ज्ञान से परिपूर्ण, ब्रम्हा में अहंकार, विष्णु में सामान्य भाव व शिव जो कम ज्ञान प्राप्त थे में उत्पत्ति करने वाली की तलाश और समर्पण भाव देखने को मिलता है ठीक उसी प्रकार आज मात-पिता अच्छी शिक्षा दिला पुत्र को अभिमानी बना अपने खुद पुत्र-पुत्रियों से तिरस्कृत होते देखे जा सकते हैं। कारण यह है कि आज की शिक्षा शास्त्र व ज्ञानवर्धक नही वामपंथियों द्वारा प्रस्तुत ध्वस्त अनैतिकता से भरा पड़ा शिक्षा का ज्ञान कराया जा रहा है। भारत में सरकार शिक्षा के प्रति अपनी दायित्व निभाने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि मानसिकता यह है कि समाज गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सरकार की खामियों को समझ जायेगी और गन्दी राजनीति करने और समाज को लूटने में दाल गलना मुस्किल हो सकता है।

सर्वशिक्षा अभियान चला भारत देश में शिक्षा के स्तर को उठाने के लिए सरकार के सतत् प्रयासो के फलस्वरूप लगभग दो-तिहाई आबादी शिक्षित तो हो गई है। लेकिन अभी भी भारत को 21वीं शताब्दी में विश्व के सबसे अधिक अशिक्षित लोगों का देश की उपाधि दी जाती है। सरकार तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को लेकर शिक्षा कार्यक्रमों को आगे बढ़ा पाने में अपने को असहाय पाती है। भारत में कितना वास्तविक शिक्षित लोग हैं भारतीय बैंकों में देखकर सही अंदाजा लगाया जा सकता है। यहां तो अठुठा लगाने वाले ग्राम पंचायतों का संचालन करने वाले ग्राम प्रधानों से भी अंदाजा लगाया जा सकता है। शिक्षा के प्रति सरकार के पास कोषों की कमी एक गंभीर समस्या है। अत: शिक्षा, खासकर उच्च शिक्षा, के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी की जरूरत है। बहुत पहले ही पश्चिम ने शिक्षा के निजीकरण को प्रेरित किया। हम लोग इसका अनुसरण अब कर रहे हैं। वर्तमान शिक्षा नीति केवल यही सुनिश्चित करती है कि छात्र नियमित रूप से कक्षा में जाते हैं या नहीं।

1984 के दशक वामपंथी दलों के समर्थन में बनी इन्दिरा गांधी की सरकार में वामपंथियों द्वारा भारतीय ज्ञानवर्धक शिक्षा का ध्वस्तीकरण हुआ जो आज भी वही चल रही है। यह शिक्षा छात्रों को सही अर्थ में पढ़ाने या शिक्षित करने की चेष्टा नहीं करती है। कक्षाओं में उपस्थिति से इसके दोनों अभिप्राय और वर्तमान व्यवस्था का अन्त हो जाता है। नियमित उपस्थिति को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ चलाई, जैसे- मध्याह्न भोजन, निशुल्क पाठ्य सामग्री, छात्रों को भय व डंडमुक्त विद्यालयों में आठवीं तक के छात्रों को अनुतीर्ण न करना भी शिक्षा को ध्वस्त करना ही है।

अंग्रेजी हुकुमत सहित लोकतंत्र गठन के 1984 तक शिक्षा गुणवत्तापूर्ण था जो भी लोग उस दौरान शिक्षित हुए आज के शिक्षित लोगों से लाख गुना अधिक बुद्धिमान, मात्रा का ज्ञानी, अंग्रेजी के विद्वान हैं। आज दी जा रही शिक्षा के माध्यम से न तो मात्रा का ज्ञान न अंग्रेजी भाषा का कोई विद्वान है। शिक्षा के निजीकरण दौर में अंग्रेजी माध्यम के विद्यार्थियों को ट्रांसलेशन तो बहुत दूर वर्ड मेनिंग भी नही आती। कहने का तात्पर्य यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आई है। विशिष्ट श्रेणी के पब्लिक स्कूलों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता खासकर ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों से प्रमाणित हो गई है। शिक्षा एक विशेष लक्ष्य है और इस तरह से संस्थानों को उनके समर्पित शिक्षकों और प्रतिभाशाली योग्य छात्रों ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्थान बनाकर ऐन-केन-प्रकारेण प्रतिष्ठित किया है। सरकार की दोषपूर्ण शिक्षा नीति के साथ सरकारी विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है। निजी विद्यालय बुनियादी सुविधाओं का उचित प्रबंध रखते हैं। सरकार के अधिनस्थ विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकतम विद्यालयों में भवन और पाठ्‌यक्रम के अतिरिक्त सुविधाओं का अभाव है और कभी-कभी शिक्षक भी नहीं होते हैं। इन स्कूलों में बर्बादी और भ्रष्टाचार जोरों पर होता है।

दूसरी तरफ, शिक्षा के निजीकरण से अक्षमता, भ्रष्टाचारी शिक्षक, उपकरण, प्रयोगशालाएँ और पुस्तकालयों जैसे मानवीय संसाधनों के अपर्याप्त उपयोग को दूर किया जा सका है। जो अब हमारी शिक्षा पद्धति के अनिवार्य अंग बन गए हैं। लेकिन शिक्षा के निजीकरण का नकारात्मक पहलू भी है। यह भविष्य में मुनाफे और निहित आर्थिक लाभों को लाती है। श्रेष्ठ स्कूलों में अत्यधिक शुल्क लिया जाता है जो सामान्य भारतीय की सामर्थ्य से बाहर है। ये समर्थ और असमर्थ लोगों के बीच एक खाई उत्पन्न करती है। मतलब शिक्षा को दो भागों में विभाजित कर दिया है। एक गरीबी शिक्षा जो सरकार के अधिनस्थ विद्यालय व एक अमीरी शिक्षा जो निजी विद्यालयों द्वारा दी जाने लगी है। शिक्षा के निजीकरण ने समाज के उच्च वर्गो के स्वार्थ के लिए अमीरों और गरीबों के बीच विषमता को बढ़ाने का काम किया है। 1984 के दशक तक जब शिक्षा का वामपंथी करण निजीकरण ध्वस्तीकरण नही हुआ था तब तक एक छत के नीचे एक ही व्यवस्था में गरीब व अमीर बच्चे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा ग्रहण करते थे। तब भी भारतीय देश विदेश में अपनी शिक्षा के दम पर लोहा मनवाते थे। जिन भी पदों पर नियुक्ति मिलती कर्तब्य निष्ठा के साथ अपने दायित्व का निर्वहन करते थे। लेखनी में किसी प्रकार की अशुद्धि नही होती थी। आज जो भी लेखनी का कार्य करने वाले ज्यादातर आरक्षण धारियों की नियुक्ति हुई है से जनता त्रस्त है। शर्म की बात है देखकर भी लिखने में शब्दों, अंकों या मात्राओं को गलत लिख परेशानी में डाल दिया जाता है।

आज निजी क्षेत्र तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा उपलब्ध कराने में भी रुचि लेता हुआ जान पड़ता है। इनमें से कुछ संस्थान विभिन्न मदों पर छात्रों से लाखों रुपए लेकर भी उन्हें बुनियादी सुविधाएँ नहीं दे पाते हैं। यह शिक्षा के निजीकरण के मूल उद्देश्य को मात देता है। वैसे भी यदि निजी क्षेत्र प्राथमिक/उच्च विद्यालय शिक्षा में संलग्न है तो उनमें से अधिकांश संस्थानों में मुख्यत: सरकारी निधि या सहायता प्राप्त संस्थानों में अनुदान से प्राप्त धन को अक्सर दूसरे नाम पर खर्च करके स्थिति को बदतर बना दिया जाता है। इस तरह के संस्थानों के शिक्षकों को शायद ही कभी पूरा वेतन दिया जाता है जबकि उन्हें सरकारी वर्ग के समान पूर्ण रकम की प्राप्ति की रसीद देनी होती है और उनके कार्यकाल की कोई गारंटी नही होती है। ईसाई मिशनरियों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों को छोड़कर शेष निजी स्कूलों के शिक्षकों को अनुबंध के आधार पर रुपए दिए जाते हैं। यह कुप्रथा अब निजी इंजीनियरिंग और चिकित्सा संस्थानों में भी फैल गयी है। चूंकि अध्यापन से जुड़े लोगों को बढ़िया देखभाल और उचित भुगतान नही की जाती है, इसलिए दीर्घकाल में इसका खामियाजा शिक्षा को भुगतना पड़ता है। शिक्षा के निजीकरण के गुण और दोष दोनों है। यदि यह नियंत्रित नहीं है तो इसके दोष सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति को पंगु बना सकते हैं। फिर भी, शिक्षा के परिदृश्य से निजी क्षेत्रों को बाहर रखना संभव नही है क्योंकि सरकारी निधि शिक्षा को सर्वव्यापक बनाने के आदर्श को पूरा करने के लिए अपर्याप्त है। देश के बहुत-से क्षेत्रों में शिक्षा के लिए अधारभूत सुविधाएँ तक नही हैं। इस प्रकार, निजी क्षेत्र की शिक्षा में संलग्नता आवश्यकता बन गई है।

शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी में आ रहीं अड़चनों को कम से कम करने की आवश्यकता है। निजी क्षेत्रों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख भूमिका अदा करने के लिए ध्यान देते हुए प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए हमें राज्य और केन्द्र दोनों से स्पष्ट एवं पारदर्शी सरकारी नीति की जरूरत है क्योंकि शिक्षा भारतीय संविधान में समवर्ती सूची के अन्तर्गत आती है। इस नीति में सभी दलों को एक समान भूमिका अपनानी होगी। नियंत्रक तंत्र को निष्पक्ष और स्वतंत्र होना चाहिए। दोषी को सख्त और दण्डित करने के नियम लागू करना आवश्यक है। इस तरह के सभी लाभप्रद तंत्रों द्वारा अपनी स्थिति मजबूत कर लेने के बाद सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अपने आपको धीरे- धीरे अलग करना चाहिए।

सरकार की मंशा जब निजीकरण ही है तो आम जनमानस क्या कर सकता? इसका परिणाम आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा तब आम जन को पछतावे के शिवा कुछ हासिल नहीं होगा बढती महगाई, बढती बेरोजगारी के दौर में आम जन अपने बच्चों की शिक्षा निजी क्षेत्र की विद्यालयों से कब तक दिला पायेगा यह गर्त का विषय है। फिलहाल सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर जोर देना चाहिए जहाँ इसकी नीति हल-मुल और दयनीय अवस्था में है। इसका मुख्य कारण एक ही कार्य का दो तरह का पारिश्रमिक स्थाई अध्यापकों को ज्यादा वेतन ऊपर से पूरी आजादी शिक्षा मित्रों अनुदेशों प्री प्राइमरी संचालिका आंगनवाड़ी को कम मानदेय ज्यादा जिम्मेदारी यह सरकार की गंदी राजनीति का कुशल परिचय है। वेदों के अनुसार शैक्षणिक संस्थाएं एक देवालय के समान है जहाँ शिक्षा की सुगंध फैली होती है। आज अधिकतर शैक्षिक संस्थाएं व्यवसायिक दुकानों में बदल गई है जहाँ शिक्षा बेची जाती है।

सरकार और निजी संस्थान दोनों शिक्षा के व्यवसायीकरण के लिए समान रूप से जिम्मेदार है। एक तरफ, शिक्षा के निजीकरण से शिक्षा व्यवस्था में कुछ अनुकूल परिवर्तन आया है, वहीं दूसरी तरफ, इसने गंभीर समस्याओं को भी जन्म दिया है जिनका यदि समय रहते समाधान नहीं किया गया तो भारत के भविष्य की नींव को हिला सकती है। शिक्षा में गुणवत्ता तो अभी दूर तक नजर नहीं आ रही इस लखेदूआ शिक्षा मतलब बिना पढाई पास मतलब मूलभूत शिक्षा से भी आम जन वंचित हो जायेगा। और कल भी अंगुठा टेक थे आज भी हैं आने वाले समय में भी रहेगें। बच्चों की जगह अब भारत में आधार पढ़ने लगा है ऐसे ही आधार को पढाने और पास करने की प्रथा विधमान रही तो वो दिन दूर नहीं जब भारत में पढें लिखें अंगुठा टेक देखने को मिलें।

शैक्षिक संस्थानों के प्रशासकों के लिए समय आ गया है कि शिक्षा की पवित्रता और महत्ता को महसूस करें और इसका व्यवसायीकरण न करें। यह सरकार की जवाबदेही है कि उचित कानून बनाकर शिक्षा के निजीकरण से उत्पन्न समस्याओं को रोके ताकि देश की नींव को सुरक्षित रखा जा सके। जिस देश की शिक्षा प्रणाली जैसी होती है उस देश का वैसा ही भविष्य निर्माण होता है सरकार को सभ्यता युक्तिसंगत व पारदर्शी शिक्षा को बढ़ावा देने की कोशिश करना चाहिए ताकि सभ्य समाज का निर्माण सम्भव हो। उस मात-पिता पर क्या गुज़रती होगी जो अपना पेट काट बच्चों को पढ़ाने के लिए उन अंग्रेजी माध्यम की विद्यालयों से शिक्षा दिला ऊंचे-ऊंचे पदों पर बच्चों को पहुंचाने और खुद बच्चों से तिरस्कृत हो बुढ़ापे में नरकीय जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। वैसी शिक्षा को समाज से दूर और गुरुकुल शिक्षा का महत्व समझ मूलभूत सभ्य समाज निर्माण युक्त शिक्षा का बढावा दिया जाये। आज भारतीय शिक्षा अपनी गति, दुर्गति, दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। नयी शिक्षा नीति के तहत एक देश एक पाठ्यक्रम सभ्य समाज निर्माण युक्त शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता है।