गुरु गोरखनाथ और राजा भर्तृहरि की कहानी इसमे यह जानकारी दी गई है, भर्तृहरि कैसे बने राजा से बैरागी। तीसरी रानी पिंगला का त्रियाचरित्र।
करो चेत म चेतर जागो गुरु जी गोरख चेला आया है।
तुम्हें त्रिया राज से ले जाने में हनुमत से टकराया है।।
शिव अंश गुरु गोरखनाथ की जन्म से शुरू लेखनी में आप सब ने जाना गुरु गोरखनाथ का जन्म कैसे हुआ_गुरु गोरखनाथ की मृत्यु कैसे हुई _गोरखनाथ के गुरु कौन थे और कुछ शाबर मंत्र से सम्बन्धित रोचक जानकारी। उसी लेखनी में गोरखनाथ ने अपने गुरु शिव अश मछनदरनाथ को त्रिया राज्य से कैसे छुडाया वर्णन किया हूं। अब आगे गुरु गोरखनाथ के जीवन से जुड़ी ऐतिहासिकता से भरी रोचक धार्मिक कथा कहानी कि ओर भगवान चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव की कलम।
राजा भर्तृहरि गुरु गोरखनाथ की कहानी

उज्जैन शिप्रा नदी के समीप राजा भर्तृहरि का गुफा है। माना जाता है राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी से धोखा खाकर बैरागी हुए और यहीं उन्होंने तप किया था। आज भी यह राजा भर्तृहरि की गुफा शिप्रा नदी के किनारे सुनसान इलाके में स्थित है। गुफा का द्वार बहुत छोटा है। अंदर सांस लेने में परेशानी होती है, घुटन सा महसूस होता है। गुफा की ऊंचाई भी बहुत कम है, ऊपर छत एक पत्थर की शिला से निर्मित है। अंदर जाने में सावधानी रखनी पड़ती है, बाहरी प्रकाश लेशमात्र भी नही जाता। अंदर पर्यटकों की सुविधा के लिए प्रकाश की व्यवस्था की गई है। यहीं पास में एक और गुफा इससे भी छोटी है, जो भर्तृहरि के भतीजे गोपीचंद की है।

गुफा में एक पत्थर की प्रतिमा राजा भर्तृहरि की है। यहां धुनी की राख है, जो हमेशा गर्म रहती है। यहीं से एक रास्ता जाता है, जो चार धाम का रास्ता बताया जाता है। यह रास्ता बहुत गौर से देखने पर दिखाई देता है। अकेले जाने में भय सा महसूस होता है। राजा भर्तृहरि की एक गुफा वर्तमान के उत्तराखंड में भी है, जहां प्रथम नाथ भोलेनाथ शिव के मस्तक पर विराजमान चंदमा का जन्म सियालकोट के राजा सलवान द्वारा पुत्रेष्ठी यज्ञ के फलस्वरूप रानी इच्छरा के गर्भ से बेटा पूरणमल के रूप में हुआ था। जिसे अपनी सौतेली छोटी माता रानी लोना चमारी के त्रियाचरित्र से हाथ-पांव खोना पड़ा था। उन्हें गुरु गोरखनाथ पुनः हाथ पैर प्रदान कर शिव इच्छा से अपना शिष्य बना चौरंगीनाथ बनाया इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नारी नही नारंगी है नारंगी नही सब रंगी है, ढ़कें तो सब करूमा ढ़कें नही तो नंगी की नंगी है। को पढ़ने के लिए गूगल पर मेरी लेखनी सर्च किजिये पढ़िए बेल आइकन को दबा एक्सेप्ट कर लिजिए ताकि गूगल से हमारे अपडेट का नोटिफिकेशन आपको मिलता रहे – Click on the link राजा सलवान बेटा पूरणमल बना चौरंगीनाथ सौतेले बेटे के प्रति रानी लोना चमारी का त्रियाचरित्र।
राजा भर्तृहरि रानी पिंगला की कथा

पत्नी ने दिया धोखा राजा भर्तृहरि हुए बैरागी।
वर्तमान में उज्जैन महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध है। यहीं के राजा गंधर्वसेन की दो पत्नियाँ थीं। एक पत्नी से पुत्र भर्तृहरि का जन्म हुआ दूसरी से विक्रमादित्य का जन्म हुआ था। गंधर्वसेन के बाद उज्जैन के राजपाठ पर दोनों भाइयों में बड़े भर्तृहरि का अधिकार हुआ। भर्तृहरि को धर्म व नितिशास्त्र का ज्ञान था। जब राज्याभिषेक हुआ तब तक उनकी दो पत्नियाँ थीं। राजा भर्तृहरि को ज्ञात हुआ एक बहुत सुंदर युवती है जिसका नाम पिंगला है, देखने की इच्छा जागृत हुई, जब राजा भर्तृहरि ने पिंगला को देखा उसकी सुन्दरता पर मोहित हो, राजा भर्तृहरि ने पिंगला से विवाह कर लिया। अब राजा भर्तृहरि तीनों रानियों में सबसे अधिक पिंगला से प्रेम करने लगे। उसके रुप जाल में मोहित सबसे अधिक भरोसेमंद समझा। यहां तक कि अपने कर्तव्यों को भी भूलना शुरू कर दिया, पिंगला के रुप जाल में फंस अधिक से अधिक समय उसके साथ ही व्यतीत करने लगे। उसी समय भर्तृहरि के राज महल में गुरु गोरखनाथ का आगमन हुआ। राजा भर्तृहरि तपस्वी गोरखनाथ के नाम से परिचित थे। भर्तृहरि ने तपस्वी गुरु गोरखनाथ का बहुत आदर सत्कार किया। आदर सत्कार से प्रसन्न होकर गोरखनाथ भर्तृहरि को एक फल देते हुए कहा इसे खा लो सदैव जवान बने रहोगे। तुम्हें कभी बुढ़ापा नही आयेगी, जिस भोग विलास में लगे हो उससे मन नही हटेगा, तुम्हारी सुंदरता भी सदैव बनी रहेगी। इतना बड़ा चमत्कारी फल भर्तृहरि की सेवा भाव से प्रसन्न हो गोरखनाथ देकर वहां से चले गए। अब राजा भर्तृहरि इस चमत्कारी फल को हाथ में लिए सोच-विचार में पड़ गए मुझे अन्य जवानी और सुन्दरता की क्या आवश्यकता मुझे तो रानी पिंगला से ही सबसे अधिक प्रेम है उसी की जवानी सुन्दरता बनी रहे इसलिए इस फल को रानी पिंगला को खिलाना अच्छा रहेगा। चमत्कारी फल को भर्तृहरि ने पिंगला को देकर खासियत बताया। रानी पिंगला फल लेकर रख ली महाराज इसे खा लूंगी आप निश्चित रहिए। अब रानी पिंगला उस फल को लेकर सोचने लगी कि इस फल को खुद खाने से अच्छा रहेगा कि अपने प्रेमी कोतवाल को खिला दूं। ताकि मुझे भरपूर जीवन भर तृप्त करता रहेगा उसकी जवानी सदैव बनी रहेगी, तो मेरे काम आयेगी। इस सोच-विचार से रानी पिंगला उस चमत्कारी फल को अपने प्रेमी कोतवाल को खाने के लिए दे दिया। पिंगला से कोतवाल को फल का चमत्कार पता हो गया। अब कोतवाल के मन में आया इस फल को अपनी प्रेमिका उस कोठे वाली को खिला दूं, जिसे प्रेम करता हूं। उसकी जवानी सुन्दरता बनी रहेगी तो मेरे ही काम आयेगी। यह सोच-विचार कर कोतवाल उस फल को लेकर वैश्या के पास गया और उस फल का चमत्कार बता खाने के लिए दे दिया। कोतवाल वैश्या से सुख भोग वापस हो गया उस फल को वो वैश्या हाथ में लिए सोच-विचार करने लगी। इस फल को खा कर मुझे क्या फायदा ता उम्र जीवन इसी नर्क में डूबी रहूँगी। उसके मन में विचार आया यह फल राजा के योग्य है वो खा लें तो, राज्य का भला होगा, कभी बुढापा नही आयेगी, हमेशा जवानी बनी रहेगी। राज्य की प्रजा को भर्तृहरि जैसा राजा मिलना भी मुश्किल है। इस सोच-विचार के बाद वैश्या उस फल को लेकर राजा भर्तृहरि के पास गयी। राजा भर्तृहरि से मिलकर फल की खासियत बताई और राजा भर्तृहरि को दे, खाने का निवेदन किया कि आप खा लिजिये, जवान बने रहने तो राज्य की प्रजा का भला ही करेगें। राजा भर्तृहरि वैश्या के मुख से उस चमत्कारी फल का वही बखान सूना जो गुरु गोरखनाथ ने भर्तृहरि को बताया और भर्तृहरि ने रानी पिंगला को देते हुए बताया था। अब राजा वैश्या से पूछें यह बताओं इस फल को तुम्हें किसने दिया। तब वैश्या ने कहा महाराज आपके राज का कोतवाल मुझसे प्रेम करता है, यह फल मुझे आपका कोतवाल दिया कि मै खा लूं मेरी जवानी बनी रहेगी, तो उसके काम आऊंगी। राजा भर्तृहरि सोच-विचार में पड़ गए और कोतवाल को दरबार में बुलाया। राजा ने कहा सच बता दोगे तो जीवन दान मिलेगा झूठ बोला तो मृत्युदंड। राजा ने पूछा जो फल तुम वैश्या को दिए वो फल तुम्हें कहाँ से मिला, मृत्युदंड की भय से कोतवाल ने सच बता ही दिया कि रानी पिंगला मुझसे प्यार करती हैं वो ये फल मुझे खाने के लिए दीं की मेरी जवानी बनी रहे और मै उनके काम आता रहूं। राजा भर्तृहरि ने अपनी सबसे प्रिय रानी को राजदरबार में उपस्थित होने का आदेश भेजा। पिंगला जब राजदरबार में उपस्थित हुई तो राजा ने सच बताने पर क्षमा दान झूठ बोलने पर मृत्युदंड देने की बात कही। अब रानी पिंगला ने बताया वो फल मै कोतवाल को दे दी, क्योंकि मैं उससे प्रेम करती हूं। जैसे आपने वो फल मुझे दिया कि आप मुझसे प्रेम करते हैं। वैश्या ने फल राजा को देकर अपनी विचार पहले ही बता दी थी तो उसे दोबारा राजदरबार में बुलाने की जरुरत नहीं पड़ी। राजा अपनी सबसे खास पत्नी पिंगला से धोखा खाया और सब राजपाठ अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंप कर संन्यास ग्रहण कर लिया।
राजा भर्तृहरि की कहानी

उपरोक्त पैराग्राफ में शिल्पा नदी के किनारे भर्तृहरि की जो गुफा को बताया हूं वहीं 12 वर्ष तक कठोर तपस्या किए। भर्तृहरि की कठोर तपस्या को देखकर इन्द्र के मन में शंका हुई कि भर्तृहरि इन्द्रलोक पाने की इच्छा से तपस्या कर रहा है। तपस्या भंग करने के लिए इन्द्र ने एक बहुत बड़ा पत्थर का शिला धकेला की इसी के नीचे भर्तृहरि दबकर मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। तपस्या में लीन भर्तृहरि उस पत्थर की शिला को अपनी हथेली से रोक लिया और तपस्या भंग नही होने दी। वही शिला भर्तृहरि गुफा पर छत के रुप में आज भी है जिसपर हथेली का चिन्ह स्पष्ट प्रकट होता है। हथेली का निशान बहुत बड़ा है इसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है, भर्तृहरि का शरीर बहुत बिशाल रहा होगा।
राजा भर्तृहरि की परिक्षा

गुरु गोरखनाथ के साथ रहने वाले शिष्यों को एक समय अहंकार हो गया। गुरु के शिष्यों में अहंकार – हम सबसे अधिक आज्ञाकारी हैं, तो हम सबसे आज्ञाकारी हैं। यह बात गुरु गोरखनाथ के सामने आई, साथ रहने वाले शिष्य सबसे अधिक अपने को आज्ञाकारी समझने लगे हैं। गुरु गोरखनाथ एक समय अपने शिष्यों को लेकर उज्जैन के राजा भर्तृहरि के पास पहुंचे। उसी राजा भर्तृहरि के पास 365 रसोइया रहा करते थे, जो राजा के परिवार सहित अतिथियों का भोजन बनाते थे। अब राजा भर्तृहरि गुरु गोरखनाथ को अपना गुरु रुप में पाने की इच्छा से तपस्या करने लगे थे। और अपने भोजन के लिए भिक्षा मांग खा रहे थे। गोरखनाथ ने अपने शिष्यों को दिखाया और बताया इसके अंदर से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार सब खत्म हो गया है। यह अब अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़ संकल्प लिया है। शिष्यों ने कहा इस भोग विलासी राजा की आप परिक्षा लें। गोरखनाथ भर्तृहरि के सम्मुख अपने शिष्यों के साथ प्रस्तुत हुए। वैरागी भर्तृहरि शास्वत प्रणाम किया और अपने को शिष्य रुप में स्वीकार करने का आग्रह किया। गुरु गोरखनाथ ने भर्तृहरि से कहा जाओ भंडारे के लिए लकड़ियों का प्रबन्ध करो। वैरागी भर्तृहरि नंगे पांव जंगल में लकड़ियां एकत्रित कर लाने चले गए। उधर से एकत्रित लकड़ी अपने सिर पर रखकर आ रहे थे कि गोरखनाथ अपने शिष्यों को कहा जाओ उसे धक्का मारो, लकड़ी गीर जाए ला न सके। शिष्यों ने वैसा ही किया, लकड़ी भी गीर गई और भर्तृहरि भी जमीन पर गीर पडे। भर्तृहरि ने फिर बोझ उठाया और चलते रहे। उन लोगों के तरफ़ देखा तक नही कहा सब ईश्वर इच्छा है। चेले आकर गुरु जी को सब बात बताए। गुरु ने कहा देखा भर्तृहरि क्रोध पर विजय प्राप्त कर लिया है। शिष्यों को अब भी संतोष नहीं हुआ। तब शिष्य औघड़ नाथ ने कहा मै नही मानता। और परिक्षा लेनी चाहिए। तब गोरखनाथ एक सुन्दर महल का निर्माण अपने योग माया से कर सब सुख संपन्न बना दिया। शिष्यों सहित भर्तृहरि को उस महल में लेकर गये। जहां सुन्दर युवतियां तरह-तरह का प्रदर्शन कर आदर सत्कार करने में लगी हुई थीं। भर्तृहरि उन सुन्दर युवतियों को देख कामी भी नही हुए न ही उनके प्रदर्शन आकर्षण का कोई प्रभाव पड़ा। फिर गोरखनाथ अपने शिष्यों से पुछा अब तो विश्वास हुआ भर्तृहरि अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लिया है। अब भी औघड़ नाथ संतुष्ट नहीं थे। तब गोरखनाथ ने कहा भर्तृहरि तुम्हें हमारा शिष्य बनने के लिए मरुस्थल में नंगे पैर बिना रुके योजन कोष की यात्रा करनी होगी सुर्योदय से सुर्यास्त के बीच कभी रुकना नही है। इस बीच छाव में नही जाओगे, न ही अन्न-जल ग्रहण करोगे। भर्तृहरि आज्ञा का पालन करने निकल पड़े। भर्तृहरि राजस्थान के मरूभूमि में पहुंच धधकती रेत में नंगे पैर चलने लगे। धीरे-धीरे छव दिन बित गया। सातवें दिन अदृश्य शक्ति से अपने चेलों के साथ गोरखनाथ भर्तृहरि के राह में चले गए। सभी ने देखा निरंतर भर्तृहरि यात्रा करता जा रहा था। गोरखनाथ प्रसन्न भाव से कहा देखो कैसे आज्ञाकारी शिष्य है। इस बात से अन्य शिष्यों के मन में ईर्ष्या भाव उत्पन्न हुआ। फिर गोरखनाथ अपनी योग माया से राह में एक पेड़ खड़ा कर दिया। जब अचानक छाव में पैर पड़ा भर्तृहरि उछलकर हटा ये तो गुरु आदेश का उल्लंघन हो गया। वैसे उछला जैसे आग में पैर पड गया हो। फिर भी चेलों के मन में संतुष्टी नही थी। तब गुरु गोरखनाथ अपना भेष बदल भर्तृहरि के सामने प्रस्तुत हुए और परिचय पुछा फिर कहा थोड़ी छाया का उपयोग कर लो बेटा बैठो कुछ बातें करनी है। तब भर्तृहरि ने कहा नही मै रुक नहीं सकता गुरु आदेश है नंगे पैर छांव से दूर मरूभूमि में निरंतर यात्रा करने की। गोरखनाथ आगे अपनी योग विद्या से काटा उत्पन्न कर अन्तर्ध्यान हो गए और अपने शिष्यों को लेकर देखने लगे। भर्तृहरि उन काटों पर भी चलते गये थोड़ी सी आंह तक नही की। आगे निकलने के बाद सोचा कांटों पर चलना शायद चलते हुए सपना देखा था। फिर चेलों का मन भांप बहुत ज्यादा ताप उत्पन्न किया और रास्ते में एक बृक्ष उत्पन्न कर नीचे घड़े में पानी रख दिया। ताप को सहन करते बृक्ष के छांव से अपने को बचाते सुखे मुख को जल देने की इच्छा को त्यागते भर्तृहरि आगे बढ़ते गये। प्यास से ब्याकुल जल देखकर त्याग करना पड़ा कि गुरु आदेश भंग हो जायेगी। फिर अपने रास्ते में भर्तृहरि ने गुरु गोरखनाथ को देखा शास्वत प्रणाम कर आगे बढ़ता रहा। तब गोरखनाथ ने कहा भर्तृहरि तुम्हारे गुरु आदेश पालन करने से मै प्रसन्न हुआ अब रुको और मुझसे वर मांग लो। भर्तृहरि आगे बढ़ते जा रहे थे और कहा गुरु जी आप मुझपर प्रसन्न हैं, यही मेरे लिए सबसे बड़ा वर्दान है। भर्तृहरि ने कहा आज मेरी तपस्या पूरी हो गई अब मुझे कुछ भी मांगने को बचा ही नहीं। तब गोरखनाथ ने कहा गुरु के आदेश का अनादर मत करो। तुम्हें आज कुछ न कुछ मांगना ही पड़ेगा। तभी रेत में एक सूई दिखी भर्तृहरि ने सूई उठाकर कहा गुरुजी इसमे धागे का प्रबन्ध कर दिजिये अपनी फटी वस्त्र सी लूं। यह त्याग और गुरु आदेश कि शिक्षा हमे भर्तृहरि की परिक्षा से लेनी चाहिए। आज शिष्य गुरु आदेश क्यूँ नहीं मानते। कारण उन्हें ऐसी शिक्षा ही नहीं दी जाती। Click on the link गुरु गोरखनाथ का जन्म कैसे हुआ_गुरु गोरखनाथ के गुरु कौन थे _गुरु गोरखनाथ का शाबर मंत्र_ सम्पूर्ण जानकारी के लिए यहां क्लिक किजिये।

राजा भर्तृहरि की रचना
बैरागी बन राजा भर्तृहरि – वैराग्य पर वैराग्य शतक, नीति शतक, श्रृंगार शतक की रचना की। भर्तृहरि की यह रचना काफी प्रसिद्ध है। यह तीनों ही रचना पढ़ने पढ़ाने योग्य है। दुर्भाग्य है भारत सनातनी होने का सिर्फ ढोंग कर रहा है इन सनातन ग्रन्थों को इतिहास में शामिल तक नही करता।
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