गोकर्ण धुंधकारी का जन्म कैसे हुआ: धुंधकारी को कैसे मिली प्रेत योनी से मुक्ति- धर्म ग्रंथों के मंथन से सम्पूर्ण जानकारी

Amit Srivastav

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आत्मा कैसे होती है प्रेतात्मा उद्धारक कथा में गोकर्ण धुंधकारी की कथा कहानी में जानिये, कैसे किसका हुआ जन्म, क्या था जीवन का इतिहास, कैसे मिली प्रेत योनी से धुंधकारी को मुक्ति, कैसे मिला गोकर्ण को भगवान विष्णु के परमधाम में स्थान। यह पौराणिक कथा बहुत ही रोचक मार्गदर्शी धर्म ग्रंथों सहित श्रीमद्भागवत पुराण के मंथन से सुस्पष्ट भाषा में लिखी गई है, इस पौराणिक धार्मिक कथा को अंत तक पढ़िए शेयर किजिये, जागरूकता के साथ जरुरतमंदों तक भेज कर पुर्ण का भागी बनिए।

गोकर्ण धुंधकारी की कथा में – आत्मदेव ब्राह्मण:

आत्मदेव एक धनवान विद्वान ब्राह्मण था। अपने कर्म धर्म में नियमित लगा रहता था किन्तु पुत्र विहीन था। आत्मदेव ब्राह्मण की पत्नी धुन्धुली रुपवान अवगुणों की खान पूर्ण यौवनावस्था में दुष्ट प्रवृत्ति की कलही महिला थी। धुन्धुली को भय था पुत्र उत्पन्न करने पर रूप यौवन में कमी आ सकती है और प्रसव पीड़ा झेलनी पड़ सकती है। संतान सुख से वंचित आत्मदेव ब्राह्मण दुखी होकर एक दिन घर से निकल जंगल में चला गया और वहां पुत्र प्राप्ति के लिए तपस्या करने लगा। एक दिन- एक ऋषि आत्मदेव ब्राह्मण के पास से गुजर रहे थे कि ऋषि व आत्मदेव की नज़र एक दूसरे पर पड़ी, ऋषि को देख आत्मदेव ने ऋषि को प्रणाम किया तब ऋषि ने पूछा ब्राह्मण देवता आप के तपस्या का उद्देश्य क्या है? आत्मदेव ने अपनी सब व्यथा कह सुनाई, ऋषि ने कहा आपके भाग्य में आपकी पत्नी धुन्धुली द्वारा संतान सुख लिखा ही नही है। इसलिए आप संतान प्राप्ति का हठ त्याग दिजिये। संतान से सुख नही कष्ट भोगना पड़ेगा। आत्मदेव ब्राह्मण ने ऋषि से हठपूर्वक कहा हे ऋषिवर मुझे आप ज्ञान मत दिजिये, मुझे आप पुत्र प्राप्ति की आशिर्वाद दिजिये। तब ऋषि ने आत्मदेव ब्राह्मण को एक अभिमंत्रित फल भेंट किया और कहा इस फल को ले जाकर अपनी पत्नी को ग्रहण करा दो, जिससे एक सुयोग्य पुत्र की प्राप्ति होगी। वो पुत्र बहुत बड़ा ज्ञानी और धर्म का पालन करने वाला होगा। आत्मदेव खुशी मन ऋषि द्वारा प्राप्त फल लेकर अपने घर लौट आया और अपनी पत्नी धुन्धुली को देकर कहा इस फल को खा लो इससे पुत्र की प्राप्ति होगी यह ऋषि का वचन है। धुन्धुली यह बात अपनी बहन को बताई, बहन ने कहा कि पुत्र उत्पन्न करने के बाद तुम्हारे रुप यौवन इतने सुंदर नही रह पायेंगे और प्रसव पीड़ा भी झेलनी ही पड़ेगी, धुन्धुली इससे बचने का अपनी बहन से उपाय पूछी, बहन की नज़र अपनी बहन धुन्धुली की धन संपदा पर टिकी हुई थी। वो चाहती थी धुन्धुली बांझ बनी रहेगी और मेरे एक पुत्र को ले लेगी तो यह सब धन संपदा पर मेरे पुत्र का अधिकार हो जायेगा। बहन ने कहा इस फल को अपनी बांझ गाय को खिला दो और कुछ दिन बाद प्रसव पीड़ा आत्मदेव को बता मेरे घर चलना, जो मुझे होने वाला पुत्र है वो मै तुम्हें दे दूंगी। यह बात आत्मदेव को पता भी नहीं चलेगा और तुम्हारा रुप यौवन भी बचा रहेगा, प्रसव पीड़ा भी नही झेलनी पड़ेगी। कपटी बहन की इस बात पर धुन्धुली बहुत खुश हुईं और उस फल को बांझ गाय को खिला दिया। कुछ समय बाद प्रसव पीड़ा का बहाना कर धुन्धुली अपनी कपटी बहन के घर चली गई।

धुन्धुली अपनी प्रसव पीड़ा कि बहाना कर पती आत्मदेव से कही मुझे सेवा सत्कार कि आवश्यकता है। प्रसव का समय नजदीक आ रहा है, मुझे पीडा हो रही है, आप मुझे हमारी बहन के घर पहुंचा दिजिये, जिससे मेरी और होने वाले पुत्र की देखभाल हो सके। स्वजन स्वभाव का ब्राह्मण आत्मदेव ने अपनी पत्नी का त्रियाचरित्र समझ नही सका और उसे उसकी बहन के घर पहुंचा चला आया। कुछ महिनों बाद धुन्धुली की बहन को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। आत्मदेव को सूचना मिली कि आप का मनोरथ पूरी हुई, आप पिता बन गए हैं। आत्मदेव बहुत खुश हुआ और जाकर अपनी पत्नी को उस पुत्र के साथ अपने घर लाया और पुत्र का नामकरण धुंधकारी किया। धुंधकारी बचपन से ही शैतान प्रवृति का होने लगा धीरे-धीरे तीन माह बीत चुका था।

ऋषि द्वारा दिए गए फल को धुन्धुली अपनी बांझ गाय को खिलाकर प्रसव पीड़ा की ढोंग रच अपनी बहन के घर चली गई थी। ऋषि द्वारा प्राप्त फल बांझ गाय ने खाया था फलस्वरूप गाय को एक पुत्र हुआ जिसका पूरा शरीर मनुष्य का था और कांन गाय के समान था। गौ माता के पेट से उत्पन्न होने के कारण आत्मदेव ने नाम गोकर्ण रखा जो शुरू से ही बहुत बड़ा ज्ञानी और भक्ति मार्ग पर चलने लगा। गौ माता के पेट से ब्राह्मण आत्मदेव के यहां जन्मा बालक ही गोकर्ण के नाम से विख्यात भागवत वक्ता के रूप प्रचलित हुआ, जो तुंगभद्रा नदी के किनारे एक गांव में रहने वाले आत्मदेव ब्राह्मण परिवार का था।

आत्मदेव धुन्धुली धुंधकारी गोकर्ण और गो माता पंच रुप की कथा:

गोकर्ण धुंधकारी का जन्म कैसे हुआ: धुंधकारी को कैसे मिली प्रेत योनी से मुक्ति- धर्म ग्रंथों के मंथन से सम्पूर्ण जानकारी

स्वजन स्वभाव सहित ज्ञानी, बुद्धिमान और धनवान आत्मदेव ब्राह्मण के भाग्य में कुलक्षर्णी, अभिमानी, दुराचारी पत्नी धुन्धुली की प्राप्ति हुई थी। साथ ही धुन्धुली को धन की लालची बहन का साथ मिला था, जिसके गर्भ से धुंधकारी का जन्म हुआ। अपनी बहन के पति आत्मदेव द्वारा अर्जित धन को हड़पने की लालच में अपने गर्भ से उत्पन्न पुत्र को अपनी बहन धुन्धुली को दे दी। वो धुंधकारी ही आत्मदेव धुन्धुली के मृत्यु का कारण बन गोकर्ण को घर छोड़ निकलने का कारण बना और अपने कर्म अनुसार प्रेत योनी को प्राप्त हुआ। तो आइये जानिए थोड़ा विस्तार से।
धुंधकारी चार माह का हुआ तब गौ माता के पेट से गोकर्ण का जन्म हुआ। शुरू से ही धुंधकारी दुष्ट प्रवृत्ति का था गोकर्ण से ईर्ष्या करता न पढ़ाई लिखाई करता न गोकर्ण को पढ़ने देता झगड़ा विवाद धुंधकारी के रग-रग में भरा पड़ा था रोज दिन कलहपूर्ण जीवन सबका व्यतीत होने लगा एक दिन गोकर्ण के उपदेश से प्रेरित हो आत्मदेव जंगल को चला गया और बताएं मार्ग पर चलकर भगवान में लीन हो स्वर्ग लोक को चला गया। आत्मदेव द्वारा घर त्याग चले जाने के बाद धुंधकारी से पीड़ित धुन्धुली कुएं में कुद अपना प्राण त्याग दी फिर गोकर्ण घर छोड़कर भगवान की भक्ति का गुणगान करने निकल गया। गोकर्ण जगह-जगह जाकर भागवत कथा कहता और दूर रहकर अपना जीवन यापन करता। इधर धुंधकारी आत्मदेव द्वारा अर्जीत संपत्ति को लूटाना शुरू कर दिया और पांच वेश्याओं को लाकर घर में रख दुराचारी बन चुका था। एक दिन वो पांचों वेश्याएं मिलकर धुंधकारी की हत्या कर दी। धुंधकारी अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ और आत्मा प्रेतात्मा के रूप में भटकने लगी। एक रात गोकर्ण के सपने में धुंधकारी आकर अपनी सारी बात बता प्रेत योनी से मुक्त कराने के लिए विलाप करने लगा। स्वप्न के बाद गोकर्ण अपने घर गया तो सपने में धुंधकारी द्वारा बताई गई सब बातें सच सामने आ गई। अकाल मृत्यु को प्राप्त अपने अनुज की आत्मा को प्रेत योनी से मुक्त कराने का मार्ग गोकर्ण ने सुर्य देव से पूछा।

गोकर्ण धुंधकारी का जन्म कैसे हुआ: धुंधकारी को कैसे मिली प्रेत योनी से मुक्ति- धर्म ग्रंथों के मंथन से सम्पूर्ण जानकारी

गोकर्ण जब भगवान सुर्य देव से धुंधकारी की आत्मा को प्रेत योनी से मुक्ति का मार्ग जाना फिर गांव के लोगों को अपने यहां श्रीमद्भागवत कथा सुनने के लिए आमंत्रित किया। एक सात गांठ का बांस धुंधकारी के नाम स्थापित किया और व्यास के आसन पर गोकर्ण बैठकर सात दिनों तक सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत कथा को कहा सभी श्रोता नियमित समय से आकर पूरी कथा सुनते रहे। सातवें दिन श्रीमद्भागवत कथा का समापन कर हवन-पूजन कर प्रसाद वितरण किया उधर धीरे-धीरे सात गांठ वाले बांस के छिद्र में बैठकर नियमित कथा सुनने वाले धुंधकारी की आत्मा को प्रेत योनी से मुक्त हो गई, प्रत्येक दिन की कथा के साथ-साथ बांस की सात गांठ एक-एक कर फटते रहे सातवें दिन सातों गांठ फट गयें और धुंधकारी की आत्मा प्रेतयोनि से मुक्त हो भगवान विष्णु के परम धाम को चली गई।
उसके बाद गोकर्ण ने यही श्रीमद्भागवत कथा पुरुषोत्तम मास में कहा, आस-पड़ोस के गांव वालों ने आकर श्रीमद्भागवत कथा को नियमित रूप से सुना सातवें दिन व्यास की गद्दी पर विराजमान गोकर्ण सहित सभी श्रोता भगवान विष्णु के परम धाम के लिए प्रस्थान किया।

भगवान विष्णुजी ने ब्रह्माजी को चार श्लोक सुनाए थे। उन चार श्लोक को ब्रह्माजी ने नारद जी को सुनाया उसी चार श्लोक को नारद जी ने कुवांरी सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न प्रथम पुत्र जो ऋषि पराशर की संतान हैं वेदव्यास जिन्हें साँवले वर्ण का होने के कारण नाम कृष्णदैपायन भी कहा जाता है को सुनाया, चार श्लोक रुपी मंत्र के आधार पर वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत पुराण की रचना की इस श्रीमद्भागवत पुराण में वेदव्यास चार श्लोक से अठारह हजार श्लोकों का रचना की है और श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता कहे जाते हैं। भगवान विष्णु के मुख से निकला चार श्लोक से ही भगवान विष्णु को चतुःश्लोकी भगवान कहा गया है। पुरुषोत्तम मास में यह चार श्लोक या श्रीमद्भागवत कथा पढ़ने सुनने से हर तरह के पाप नष्ट हो जाते हैं। अब जानिए श्रीमद्भागवत कथा के अठारह सौ श्लोकों को संक्षेप रुप में जो भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी से कहा और ब्रह्माजी द्वारा नारद जी व नारद जी द्वारा श्रीमद्भागवत के रचयिता वेदव्यास से कहा गया वो चार लाइनें सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत कथा का दर्शन करा देती है।

भगवान विष्णु ब्रह्माजी से कहते हैं – सृष्टिकाल की शुरुआत से पहले केवल मैं ही था। सत्य भी मैं था और असत्य भी मैं था। सृष्टि में मेरे अलावा कुछ भी नहीं था न मेरे अलावा कुछ रहेगा। जब प्रलयकाल आता है सृष्टि पूरी तरह खत्म हो जाती है तब सिर्फ मै रहता हूं। जो सब सृष्टि मे दिव्य रूप दिखाई देता है वह मै हूं। सृष्टि के प्रलयकाल के बाद जो बचा रह जाता है वह मै ही बचा रह जाता हूं।
मूल तत्त्व आत्मा है जो दिखाई नहीं देती है। इसके अलावा सत्य जैसा जो कुछ भी दिखता है वह सब माया है। आत्मा के अलावा जो भी किसी जीव को आभास होता है वो सब अन्धकार और परछाई के समान झूठ है।
जिस प्रकार पंच महाभूत यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश संसार की छोटी या बड़ी सभी चीजों में होते हुए भी उनसे अलग रहते हैं। उसी तरह मैं उसी तरह से सक्षम से सुक्ष्म रुप में आत्म स्वरूप सबमें होते हुए सबसे अलग रहता हूं। आत्म-तत्त्व को जानने की इच्छा रखने वालों के लिए केवल इतना ही जानने योग्य है कि सृष्टि की शुरुआत से सृष्टि के अंत तक तीनों लोक चौदहो भुवन स्वर्ग, मृत्यु, नर्क लोक व तीनों काल भूत, भविष्य व वर्तमान काल में जो कुछ भी एक तरह का दिखाई देता है वही आत्म तत्व है।

चार श्लोक रुपी मंत्र जाप की विधि:

ब्रह्म मुहूर्त में सुबह जल्दी उठकर नहाएं और पीले वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की मूर्ति या तस्वीर के सामने आसन लगाकर बैठ जाएं।
फिर नमो भगवते वासुदेवाय नमः मंत्र बोलते हुए भगवान विष्णु की पूजा करें। भगवान विष्णु की मूर्ति पर जल, फूल, तुलसी पत्ता और अन्य सुगंधित चीजें फल मिष्ठान आदि अपनी यथाशक्ति चढ़ाएं। उसके बाद हमारे द्वारा ऊपर बताए गए चार श्लोक रुपी मंत्र को बोलें। फिर भगवान विष्णु को नैवेद्य लगाकर प्रणाम करें। आरती वंदन करें और प्रसाद का वितरण कर भगवान विष्णु से अपनी कामना वयक करते प्रसाद ग्रहण करें।
इन्हीं चंद शब्दों के साथ पितृपक्ष में श्राद्धकर्म के साथ प्रेतयोनि से मुक्ति का मार्ग सुलभ करती लेखनी पर अपनी कलम को हम भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के वंशज अमित श्रीवास्तव विराम देते हुए अंत में श्रीमद्भागवत पुराण की जय, भागवत वक्ता गोकर्ण जी के रूप में व्यास जी की गद्दी पर बैठे कथा वाचक की जय, की जयघोष करते लेखनी के लिए प्रेरणादायी शक्तियों को प्रणाम करते, पित्रोदा हव्य और कव्य सहित सभी आत्माओं का आशिर्वाद की कामना करता हूं। आप भी इस लेखनी से प्रभावित हो अपने पूर्वजों अपने पितरों की आत्मा की शुद्धि व शांति के लिए धर्म मार्ग पर अग्रसर हों।

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Click on the Google search link पितृपक्ष में श्राद्धकर्म का महत्व- जानिए श्राद्धकर्म करने की विधि-विधान सम्पूर्ण सही जानकारी। अज्ञानता में न करें कुछ वैसा काम जिससे पितृपक्ष में आपके पित्र हों नाराज जिसका भुक्तभोगी होना पडे सालों साल इसलिए इस ब्लू लाइन पर क्लिक किजिये पढ़िए शेयर किजिये ताकि कुप्रथाओं से बचकर सही मार्ग पर अग्रसर हो करें अपने पूर्वजों की आत्मा को शान्ति हेतू कार्य। सभी पित्रो की कृपा दृष्टि सदैव लाभकारी बनी रहे इन्हीं शुभ मंगलकामनाओ के साथ मोंक्ष दायिनी गंगा मईया की जय।

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