AK Pandey महाकुंभ में हुई भगदड़ की सही और सटीक रिपोर्टिंग कुछ साहसिक पत्रकारों ने किया है। वहीं संस्थानिक मीडिया के बंधन में बंधे ऐसे पत्रकारों ने कई रिपोर्ट जरूर भेजी है। कारपोरेट मीडिया संस्थानों ने कोई महत्वन दिया नहीं दिया।
घटना के बाद जिस तरीके से सरकारी आंकड़ों पर ही केवल रिपोर्टिंग हो रही थी और अब तक हो रही है। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अधिकांश संस्थानिक मीडिया जनता के समक्ष अपने मीडिया धर्म की दायित्व निभाने में असफल रही है।
गोदी मीडिया क्या है? गोदी मीडिया और वर्तमान सत्ता, गोदी मीडिया की संपूर्ण गाथा इस लेख में
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लगातार कुंभ में हो रही अव्यवस्थाओं पर करारा सवाल संस्थानिय मीडिया पर जोरदार तरीके से नही उठाया गया। महाकुंभ की व्यवस्थाओं की रिपोर्टिंग सही तरीके से हुई होती तो व्यवस्था से संबंधित कमियां सामने आती, जिसे दबाव में आकर प्रशासन सुधारता और इस तरह की बड़ी घटना नही हुई होती।
मीडिया का काम सरकारी संस्थाओं के कामों पर निगरानी करना होता है, यानी अव्यवस्थाओं और कमियों की रिपोर्ट जनता के सामने करना होता है। परंतु मीडिया लगातार सरकार की महिमा मंडन में ही जुटी रही है। प्रशंसा वाले और महिमा मंडन करने वाली खबरें और आर्टिकल से रिपोर्ट भरी पड़ी हुई हैं। आलोचनात्मक रिपोर्ट मीडिया से गायब है।

साहसिक पत्रकारों की आलोचनात्मक रिपोर्ट मीडिया की बचाई साख
कुंभ मे भगदड़ के बाद स्थानीय मीडिया की रिपोर्टिंग पर लगातार सवाल उठ रहे थे? दरअसल सरकारी आंकड़ों के सहारे रिपोर्टिंग हो रही थी जबकि इस घटना के पीछे के कारण और जिम्मेदार अधिकारियों से कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा था!
हालांकि कुछ मीडिया संस्थानों के साहसिक पत्रकारों ने इस घटना से संबंधित साहसिक प्रश्न पूछना शुरू किया तो प्रशासन तंत्र की नाराजगी कैमरे पर दिखाई भी दिया।
उन्हें रिपोर्टिंग से रोका भी गया। एक चैनल के पत्रकार के साथ अभद्रता भी की गई। सरकार के कामों की निगरानी और सवालों के जवाब खोजने वाले इस पत्रकार के साथ जब अभद्रता हो सकती है तो अंदाजा लगा सकते हैं की जनता के साथ कितनी बदसलूकी हुई होगी।
हालांकि कुछ साहसिक पत्रकारों ने जब सरकार और प्रशासन से सवाल पूछना शुरू किया तो उनको रिपोर्टिंग करने से रोका गया। इन पत्रकारों की आलोचनात्मक रिपोर्ट ने कुंभ की अवस्थाओं की कई काली कलई खोल कर रख दी है। किस तरीके से भीड़ को नियंत्रित करने में लापरवाही से लेकर हताहतों के इलाज तक में लापरवाही सामने आई है। हालांकि इन रिपोर्ट के बाद दूसरे संस्थानिय मीडिया ने भी इस दिशा में अपनी पत्रकारिता शुरू की और खबरें प्रसारित करना शुरू किया। इससे मीडिया की साख बचती हुई नजर आई।
लेकिन कुछ अनसुलझे सवाल
सांस्थानिक मीडिया से सबसे बड़ा सवाल यह है कि घटनाओं के बाद जीरो ग्राउंड रिपोर्टिंग उस तरह से क्यों नहीं की गई; जैसे पिछली सरकारों के समय की जाती थी।
महाकुंभ 2025 के हादसे की जांच करने वाली न्यायिक की टीम ने जब अफसर से सवाल पूछें तो वे जवाब नहीं दे पाएं।
आयोग ने ये 4 सवाल पूछें-
1- जब आपको पता था कि इतनी ज्यादा संख्या में भीड़ आने वाली है तो सुरक्षा के इंतजाम क्या किए थे?
2- यह घटना संगम क्षेत्र के अलावा और किन-किन स्थानों पर हुई
3- मीडिया में जो वीडियो वायरल हो रहे हैं, उनकी क्या हकीकत है? क्या झूंसी में भी कोई घटना हुई है?
4- सभी घटनाओं के सीसीटीवी फुटेज दिखाइए। भीड़ कंट्रोल के लिए बनाई प्लानिंग का प्रबंधन का विवरण दीजिए।
कारपोरेट मीडिया की भूमिका
महाकुंभ की तैयारी और प्रबंधनक को लेकर इतनी कमियां होने के बावजूद भी कॉर्पोरेट मीडिया की तरफ से महिमा मंडन वाली जो खबरें परोसी जा रही थीं, उस पर भी सवाल उठता है? आज की मुख्यधारा वाली कॉर्पोरेट मीडिया अपनी जिम्मेदारियां से क्यों बच है? यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि चकाचौंध वाली मीडिया सरकार के PR की तरह काम कर रही है। आम जनता की फिक्र इन मीडिया को नहीं है।
बहरहाल संस्थानिक मीडिया (कारपोरेट मीडिया) के चाल, चरित्र और चेहरा पर सवाल पिछले कई वर्षों से उठता रहा है। दरअसल बड़ी-बड़ी संस्थानिक मीडिया पूंजीपतियों के हाथ की बनी हुई कठपुतली हैं। इसलिए मीडिया की इन मुख्यधारा से सच्ची और अच्छी पत्रकारिता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।

महाकुंभ में हुई भगदड़ और अव्यवस्थाओं की रिपोर्टिंग को लेकर संस्थानिक मीडिया की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं। सरकारी आंकड़ों के आधार पर रिपोर्टिंग करने और प्रशासनिक लापरवाहियों पर गंभीरता से सवाल न उठाने के कारण मीडिया अपनी निष्पक्षता साबित करने में असफल रही।
हालांकि, कुछ साहसिक पत्रकारों ने जिम्मेदार अधिकारियों से तीखे सवाल पूछकर वास्तविक स्थिति को उजागर किया, जिससे मीडिया की बची-खुची साख बचाने में मदद मिली। इन पत्रकारों को रिपोर्टिंग से रोकने और अभद्रता झेलने की घटनाओं ने यह भी दिखाया कि सत्ता के खिलाफ सच बोलना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
संस्थानिक मीडिया पर पूंजीपतियों और सरकार के प्रभाव का आरोप नया नहीं है, लेकिन महाकुंभ की घटनाओं ने इसे और अधिक स्पष्ट कर दिया है। यदि मीडिया का यह रुख जारी रहा, तो जनता का भरोसा पूरी तरह खत्म हो सकता है। निष्पक्ष और साहसिक पत्रकारिता ही लोकतंत्र की असली ताकत है, और इसकी रक्षा करना पत्रकारों की नैतिक जिम्मेदारी है। Click on the link ब्लाग पोस्ट पढ़ने के लिए ब्लू लाइन पर क्लिक किजिये।
लेख रिपोर्ट : अभिषेक कांत {मेला क्षेत्र प्रयागराज}
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