जानिए कैसे वासना का शोधन, प्रेम का उत्कर्ष और कुंडलिनी की ऊर्जा से संभोग समाधि में परिवर्तित हो सकता है। तंत्र, वेदांत, मनोविज्ञान के समन्वय से मानव चेतना की गहराइयों को उजागर करता यह लेख दैवीय प्रेरणा लिखा गया है।
पिछले लेख में आपने पढ़ा संभोग, वासना और हवस में क्या अंतर है? धार्मिक, वैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से शैक्षणिक विश्लेषण अब दूसरे भाग मे मानव चेतना और कामशक्ति —संभोग से समाधि तक की यात्रा, वासना का शोधन, प्रेम का उत्कर्ष और आत्मिक मिलन का गूढ़ रहस्य जो अत्यंत दुर्लभ प्रेम और सृजन की देवी भैरवी, कामेश्वरी, माँ कामाख्या की प्रेरणा से चित्रगुप्त वंशज-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में प्रस्तुत है।
Table of Contents
1. भूमिका: जब इच्छा ही सृजन बन गई
इस विशाल ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य क्या है? भारतीय ऋषियों ने इसका उत्तर “काम” में खोजा — वह प्रथम इच्छा जो सृष्टि की पहली हलचल थी। आदिशक्ति ब्रह्माणी जिसने अपने काम भाव से ब्रह्मा, विष्णु फिर शिव को उत्पन्न किया। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में स्पष्ट कहा गया है: “कामो हृदि संजतो मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्।” अर्थात्, जब कुछ भी नहीं था — न आकाश, न पृथ्वी, न प्रकाश — तब सबसे पहले जगत-जननी आदिशक्ति के हृदय में “काम” उत्पन्न हुआ। यह काम कोई साधारण वासना नहीं थी, बल्कि चेतना की पहली लहर थी, जो सृष्टि के प्रवाह को जन्म देने वाली थी।
यही इच्छा ब्रह्मांड को गति देती है, ग्रहों को घुमाती है, जीवन को जन्म देती है। लेकिन यही काम जब अज्ञान के अंधकार में डूब जाता है, जब चेतना का प्रकाश उससे दूर हो जाता है, तब वह “वासना” बन जाता है। और जब वासना और गहराई में उतरती है, तो “हवस” का रूप ले लेती है — जो आत्मा को विस्मृत कर देती है। इस लेख में हम उस रहस्यमयी यात्रा को समझेंगे जो संभोग से शुरू होकर समाधि में समाप्त होती है। यह यात्रा न केवल शारीरिक है, बल्कि चेतना की ऊर्ध्वगामी यात्रा है — जहाँ इच्छा से आरंभ होकर इच्छाहीन आनंद तक पहुँचा जा सकता है।

2. कामशक्ति: सृजन का वैज्ञानिक और आध्यात्मिक तंत्र
हर जीव में एक मूलभूत ऊर्जा होती है — विज्ञान इसे reproductive energy कहता है, जो प्रजाति को आगे बढ़ाती है। लेकिन भारतीय तंत्रशास्त्र इसे केवल जैविक नहीं मानता, यह आध्यात्मिक ऊर्जा भी है। इसे कुंडलिनी कहा गया है, जो मूलाधार चक्र में सुप्तावस्था में सर्प की तरह कुण्डली मारे सोई रहती है। जब यह ऊर्जा जागृत होती है और ऊपर की ओर बढ़ती है, तो व्यक्ति का संपूर्ण रूपांतरण हो जाता है — शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो यह कामशक्ति सृजनशीलता (creativity), स्मरणशक्ति, आत्मविश्वास और ध्यान क्षमता से गहराई से जुड़ी है। जब यह ऊर्जा केवल शारीरिक स्तर पर खर्च होती है — बिना जागरूकता के — तो थकान, मानसिक अवसाद, चिड़चिड़ापन, बिमारी और असंतोष उत्पन्न होता है। लेकिन जब वही ऊर्जा जागरूकता, प्रेम और ध्यान के साथ रूपांतरित होती है, तो यह “सत्यदर्शन” का माध्यम बन जाती है। यही वह ऊर्जा है जो कवि को कविता लिखने, लेखक को लेखन करने, वैज्ञानिक को आविष्कार करने और योगी को समाधि में ले जाने की शक्ति देती है।
3. वासना: जब इच्छा चेतना से गिर जाती है
वासना का अर्थ केवल “यौन इच्छा” नहीं है। वासना वह मानसिक प्रवृत्ति है जो अंधेपन से किसी भी विषय में लिप्त हो जाती है — चाहे वह भोग हो, धन हो, पद हो या प्रतिष्ठा। उपनिषदों में कहा गया है: “वासना एव संसारः” — अर्थात्, संसार का मूल कारण वासना ही है। जब तक मनुष्य के भीतर “मैं चाहता हूँ”, “मुझे चाहिए” की भावना है, तब तक वह बंधन में है।
लेकिन वासना को दबाना समाधान नहीं है। दमन से ऊर्जा दबी रहती है और कभी न कभी विस्फोटक रूप ले लेती है। सही मार्ग है — वासना को समझना, उसे देखना और परिवर्तित करना। ध्यान की रोशनी में जब आप अपनी इच्छाओं को साक्षी भाव से देखते हैं, तो वही वासना धीरे-धीरे प्रेम में बदलने लगती है। यह प्रक्रिया वासना के शोधन की पहली सीढ़ी है।
4. प्रेम: जब इच्छा करुणा बन जाती है
प्रेम काम का विरोधी नहीं है — वह उसका परिष्कृत, दिव्य रूप है। जहाँ काम में “मैं” और “तू” का भेद रहता है, वहीं प्रेम में वह भेद मिट जाता है। प्रेम में व्यक्ति दूसरे में स्वयं को देखता है — यही आत्मीयता की पराकाष्ठा है। भारतीय दर्शन में प्रेम को “भक्ति” कहा गया है, जिसकी धातु “भज्” का अर्थ ही है — मिलना, जुड़ना, एक हो जाना।
जब प्रेम शरीर से मन की ओर, फिर मन से आत्मा की ओर यात्रा करता है, तो वह समाधि में परिवर्तित हो जाता है। इसलिए ऋषियों ने कहा— “काम से भागो नहीं, उसे प्रेम में बदल दो।” क्योंकि प्रेम ही कामशक्ति का उच्चतम रूप है — जहाँ इच्छा करुणा बन जाती है, और स्वार्थ प्रेम में विलीन हो जाता है।
5. हवस: जब काम विकृति बन जाता है
हवस वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी इच्छा पर नियंत्रण पूरी तरह खो देता है। वह आनंद नहीं चाहता, बल्कि केवल उपभोग चाहता है। यह वह स्थिति है जब मनुष्य आत्मा से नहीं, इंद्रियों से संचालित होता है। हवस का परिणाम हमेशा विनाशकारी होता है — न केवल दूसरों के लिए, बल्कि स्वयं के लिए भी।
मनोविज्ञान कहता है कि हवस दमन (repression) का परिणाम नहीं, बल्कि अज्ञान और असंतुलन का परिणाम है। जब व्यक्ति अपने भीतर के प्रेम, करुणा और स्नेह के स्रोत से कट जाता है, तब वह बाहरी शरीरों में पूर्णता खोजने लगता है — और यहीं से पतन की शुरुआत होती है। हवस वासना का विकृत रूप है, जो चेतना को नीचे खींचता है।
6. संभोग: केवल शरीर का नहीं, आत्मा का संवाद
संभोग का संस्कृत अर्थ है — “सम् + भुज्” अर्थात् “पूर्णता से अनुभव करना”। यह केवल भोग नहीं, बल्कि जीवन के आनंद का उत्सव है। जब दो आत्माएँ एक-दूसरे में लीन होकर स्वयं को विसर्जित करती हैं, तब वह मिलन ब्रह्मानंद का रूप ले लेता है।तंत्रशास्त्र में इसे “मिथुन योग” कहा गया है, जहाँ स्त्री और पुरुष केवल शरीर नहीं, बल्कि शक्ति और शिव का प्रतीक होते हैं। यहाँ संभोग कोई क्रिया नहीं, बल्कि ध्यान का रूप है। एक क्षण में दो आत्माएँ परमात्मा का अनुभव करती हैं। यह वह पवित्र मिलन है जहाँ ऊर्जा का आदान-प्रदान आत्मिक स्तर पर होता है।

7. तांत्रिक दृष्टिकोण: शिव और शक्ति का मिलन
तंत्र कहता है — “यत्र स्त्री तत्र देवता” — जहाँ स्त्री है, वहाँ ईश्वर है। स्त्री शरीर में शक्ति का निवास है और पुरुष में शिव का। जब दोनों चेतनाएँ प्रेम, सम्मान और साधना के माध्यम से मिलती हैं, तो वही महामैथुन कहलाता है — जो संसार के सभी बंधनों को काट देता है।
यहाँ संभोग वासना नहीं, साधना है। कुलार्णव तंत्र, कामाख्या तंत्र, विज्ञान भैरव तंत्र और तंत्रालोक जैसे ग्रंथों में इस मिलन को “योग का सर्वोच्च बिंदु” कहा गया है। यह वह अवस्था है जहाँ ऊर्जा शरीर से उठकर सहस्रार चक्र में विलीन हो जाती है — जहाँ केवल “एकत्व” रह जाता है, द्वैत नहीं।
8. कुंडलिनी ऊर्जा का जागरण और कामशक्ति का रूपांतरण
मनुष्य के भीतर की सुप्त ऊर्जा मूलाधार चक्र में सर्प की तरह कुण्डली मारे सोई रहती है। इसे जागृत करने के तीन प्रमुख मार्ग हैं — संभोग, ध्यान और भक्ति। जब यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती है, तो इंद्रियों की ऊर्जा बुद्धि, अंतर्ज्ञान और समाधि में परिवर्तित हो जाती है।
कुंडलिनी का जागरण कोई जादू नहीं है। यह निरंतर प्रेम, आत्म-स्वीकृति, ध्यान और जागरूकता का परिणाम है। तंत्र में कहा गया है: “कामोत्तेजना ब्रह्मानन्दाय परिवर्त्यते।” अर्थात्, जब कामशक्ति को जागरूकता से देखा जाए, तो वही शक्ति ब्रह्मानंद में परिवर्तित हो जाती है।
9. गृहस्थ का मार्ग: भोग में योग की संभावना
अक्सर माना जाता है कि आध्यात्मिकता केवल संन्यास में है, लेकिन भारतीय परंपरा कहती है कि गृहस्थ जीवन ही सबसे बड़ा योग है। तुलसीदास जी ने कहा—
“गृहस्थ आश्रम धर्म कहावा, तहाँ ब्रह्मचर्य रहत जग भावा।”
गृहस्थ वह है जो भोगते हुए भी बंधता नहीं। वह अपने साथी के शरीर में देवत्व देखता है, न कि इच्छा का उपकरण। जब यौन संबंध सम्मान, स्नेह, प्रेम और आत्मिक जुड़ाव पर आधारित हो, तब वही संबंध पवित्र और योगमय हो जाता है। यही दृष्टि गृहस्थ को योगी बना देती है।
10. काम से समाधि तक: चेतना की ऊर्ध्व यात्रा
योग कहता है — जब इंद्रियाँ संयमित होकर भीतर की ओर लौटती हैं, तब मन स्थिर होता है। और जब मन स्थिर होता है, तभी समाधि संभव है। कामशक्ति का शुद्ध प्रयोग चेतना को ऊपर उठाने की प्रक्रिया है।
संभोग से उत्पन्न वही ऊर्जा ध्यान में बदल सकती है — यदि उसमें जागरूकता हो। तंत्र इसे “साक्षी मैथुन” कहता है, जहाँ व्यक्ति अपने भीतर घट रही ऊर्जा को साक्षी भाव से देखता है। यही साक्षी भाव समाधि का द्वार खोलता है।
11. आधुनिक विज्ञान और तांत्रिक ज्ञान का संगम
न्यूरोसाइंस बताता है कि यौन ऊर्जा के दौरान मस्तिष्क में डोपामिन, ऑक्सीटोसिन और सेरोटोनिन का स्तर बढ़ता है, जो आनंद, बंधन और सृजनशीलता को बढ़ाता है। लेकिन यदि व्यक्ति उस ऊर्जा को केवल शरीर तक सीमित रखता है, तो उसका प्रभाव अस्थायी होता है।
तंत्र कहता है — वही रसायन ध्यान और जागरूकता के माध्यम से मस्तिष्क के ऊपरी केंद्रों में परिवर्तित हो सकता है, जिससे स्थायी आनंद (आनंदमय कोश) का अनुभव होता है। इस प्रकार आधुनिक विज्ञान और प्राचीन तंत्र एक ही बात कहते हैं — ऊर्जा नष्ट नहीं होती, रूपांतरित होती है। कामशास्त्र संभोग से समाधि की ओर किताब के लिए सम्पर्क करें 7379622843 पर पीडीएफ बुक मे उपलब्ध।

12. Conclusion निष्कर्ष: इच्छा से आरंभ, समाधि पर समाप्त
> प्राचीन शास्त्रों की शिक्षा आज भी समाज में स्वस्थ संबंध और परिपक्व दृष्टिकोण के लिए महत्वपूर्ण है। कामशक्ति का मार्ग इच्छा से शुरू होता है, पर अंत में वह इच्छा रहित आनंद में समाप्त होता है। संभोग से समाधि की यह यात्रा वही व्यक्ति तय कर सकता है जो— अपनी इच्छा को समझता है, – उसका साक्षी बनता है, और उसे प्रेम में रूपांतरित करता है।
वासना को न तो दबाना है, न भड़काना — केवल रूपांतरित करना है। जब यह रूपांतरण होता है, तब मनुष्य केवल सुखी नहीं, बल्कि “पूर्ण” हो जाता है। दैवीय कलम से अमित श्रीवास्तव कि लेख को बार-बार पढ़ने के लिए अपने मोबाइल स्क्रीन पर एप्स में रखें — क्योंकि amitsrivastav.in Google top website न केवल जानकारी देता है, बल्कि चेतना को जागृत करने का मार्ग भी दिखाता है।
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