यहां प्रयाग न गंगासागर यहां न रामेश्वर काशी। तिर्थराज चित्तौड़ देखने को मेरी आंखें प्यासी।।

आज आपको चित्तौड़गढ़ के राजा रतन सिंह कि प्रेम, बलिदान की ऐतिहासिक इतिहास कि ओर ले चल रहे हैं। जहां प्रेम और बलिदान दोनों ही एक अद्भूत उदाहरण हम समाज के लिए राजा रत्नसेन और पद्मावती ने चित्तौड़गढ़ देखने के लिए छोड चले। इनके आगे-पीछे की इतिहास को भी चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव की कलम इस आर्टिकल में उजागर किया है। रानी पद्मावती पर फिल्म और धारावाहिक भी बनाया गया है। जो कई युगों बाद भी प्रेम और बलिदान की याद दिलाती है। पद्मावत की रचना 14 वीं शताब्दी से 16 शताब्दी में मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा की गई। पद्मावत 57 खण्ड में विभाजित एक वृहद ग्रन्थ है, इसमे पुर्वाद की कथा काल्पनिक और उत्तरार्द्ध की कथा ऐतिहासिक है। इस ग्रन्थ में नायक रत्नसेन की तुलना में नायिका पद्मावती को अधिक महत्व दिया गया है। जायसी सूफ़ी विचारधारा के कवियों में आते हैं। यह ग्रन्थ प्रेम पर आधारित है। इस ग्रन्थ में राजा रत्नसेन उर्फ रतन सिंह व पद्मावती की प्रेम और बलिदान की कहानी समाहित है। प्रेमाख्यान परम्परा का समृद्ध इतिहास है। प्रेमाख्यान शब्द प्रेम और आख्यान दो शब्दों से मिलकर बना है। आख्यान का शाब्दिक अर्थ होता है – कोई पुरातन वृतांत अथवा कथानक। हिन्दी साहित्य में प्रेमाख्यान का अर्थ होता है – प्राचीन कथा जो प्रेम पर आधारित हो। प्रेम शब्द का प्रयोग सूफ़ीयों ने एक विशेष अर्थ में किया है। सूफियों में लौकिक प्रेम द्वारा अलौकिक प्रेम वर्णन की परम्परा रही है। प्रेमाख्यान परम्परा में प्रेम का लौकिक और अलौकिक प्रेम दोनों ही ग्रहण किया जाता है। प्रेमाख्यान परंपरा पूर्णतः भारतीय परंपरा है। यह वैदिक काल से चली आ रही है। सूफी प्रेमाख्यान काव्य परम्परा का मूल तत्व क्या है? इस विषय पर अलग-अलग मत है।

आते हैं राजा रतन सिंह और पद्मावती की प्रेम व बलिदान की ऐतिहासिक कहानी पर। राजा रतन सिंह कि सबसे छोटी और अंतिम रानी पद्मावती थी। पद्मावती सिंहल द्वीप के राजा गंधर्वसेन की पुत्री थी। जो बालपन से ही बहुत चंचल और शिकार करने की शौकीन थी। एक समय की बात है, रानी नागमती की मोतियों से बना खुबसूरत हार टूट गया और उसमे जड़ी सिंहल द्वीप की मोतियां बिखर गयी। तब राजा रतन सिंह स्यम् सिंहल द्वीप में मोतियां लाने गये थे। उसके पहले ही पद्मावती का तोंता, पद्मावती की सुन्दरता का बखान राजा रतन से कर चुका था। रतन की दो इच्छा थी, एक तो मोतियां लाने की, दूसरी पद्मावती की सुन्दर रुप को देखने की। रतन सिंह सिंहल द्वीप राजा गंधर्वसेन की राज्य में गये। वो मोतियों की तलाश में थे, कि पद्मावती एक मृग को अपना शिकार बनाने के लिए अपनी तीर छोड़ दी, जो राजा रतन सिंह को जा लगी। पद्मावती अपने शिकार का पीछा करते दौड़ने लगी तो देखी उनके द्वारा छोड़ी गई तीर रतन सिंह के सीने में लग चुकी है, लेकिन जो तीरंदाजी जानलेवा थी, उसके प्रभाव से रतन सिंह विचलित भी नहीं थे। रतन के सीने से पद्मावती तीर निकाल जख्म पर मलहम लगाई। धीरे-धीरे रतन कुछ समय यूँ ही पद्मावती के साथ रह गए, फिर एक दूसरे से परिचय हुआ। रतन सिंह पद्मावती के साथ राज दरबार में गये जहां गंधर्वसेन से उनकी पुत्री का हाथ मांगा। गंधर्वसेन पद्मावती का विवाह चित्तौड़ के राजा रतन सिंह से कर दिया। रतन मोतियों सहित पद्मावती को सबसे छोटी रानी बना अपने राजमहल पहुंचे। जहां धूमधाम से दोनों का स्वागत हुआ।

राजपुरोहित, राजदरबार गुरु तांत्रिकों की देवी लोना चमारिन का शिष्य राधव चेतन से रतन और पद्मावती ने आशिर्वाद के लिए मुलाकात की। जो पद्मावती से कुछ प्रश्न पूछ संतुष्ट हो आशिर्वाद प्रदान किया। राधव चेतन तंत्र विद्या में महारत हासिल किया था। राघव चेतन लोना चमारिन को अपना गुरु बना शाबर मंत्र से एक सिद्ध तांत्रिक था। जहिकर गुरु चमारिन लोना। सिखा कामरू पाढ़ित टोना।। दूजि अमावस महं जो देखावे। एक दिन राहु चांद कहं आवै।। यह लोना चमारिन को समर्पित पंक्ति पद्मावत में लिखा गया है। जिससे स्पष्ट है कि लोना चमारिन 11 वीं शताब्दी की ही थी। राजघराने का गुरु होते हुए भी पद्मावती के सुन्दर रुप पर मोहित राधव चेतन, रतन और पद्मावती के मिलन को छुपकर देख रहा था। तब तक पद्मावती को आभास हुआ यहां कोई है और हाथ में लिए खंजर से रतन ने वार किया। जो खंजर राधव चेतन के सीने में जा लगी। राजदरबार में राधव चेतन पर दोष सिद्ध हुआ और दंड का भागी हुआ। वह वही राधव चेतन जिसने अपने तंत्र विद्या से एक दिन अमावस्या की रात में चांद दिखा दिया था।

एक दिन रतन सिंह अपने दरबार में ज्योतिषियों से पूछा आज कौन सी तिथि है, ज्योतिषियों ने बताया कि आज अमावस्या है, वहीं दरबार में बैठा राज गुरु राघव चेतन ने कहा आज दूईज है। इस बात का निर्णय कर पाना उस समय कठिन था क्योंकि? दिन का समय था। राजा ने कहा ठीक है आज अमावस है या दूईज इसका निर्णय रात को होगा। और अगर अमावस हुईं तो राघव चेतन को दंड मिलेगा और ज्योतिषियों को धन, अगर ज्योतिषियों की गणना गलत हुईं आज दूईज हुई तो ज्योतिषियों को दंड मिलेगा और राघव चेतन को धन। साम होते ही हर किसी कि नज़र आसमान के तरफ़ थी। जब रात्रि होने लगी तो सबने आसमान में दूईज की चांद देखी, सभी ज्योतिष हैरान थे, कि एक कि गड़ना गलत हो सकती है, हम सभी कि गड़ना एक साथ गलत कैसे हो गई। तब तक राघव चेतन के तंत्र विद्या का प्रभाव खत्म हुआ और चांद लुप्त हो गया। तब सभी ने देखा आज दूईज नही अमावस ही है यह दूईज की चांद दिखाना राघव चेतन की तंत्र विद्या है। राजा रतन सिंह ने राघव चेतन को राज से निष्कासित करने का दंड दे दिया। पद्मावती ने कहा ऐसे दोषी को मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। इसे निष्कासित किया जा रहा है, जो उचित नहीं है राज्य के लिए खतरा बन जायेगा। हुआ भी वैसा ही। राघव चेतन अपने अपमान का बदला लेने की आग में जलता हुआ, अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में जा पहुंचा।

अलाउद्दीन अईयास लंपट स्वभाव का था। जो अपने चचा की हत्या कर दिल्ली की गद्दी हासिल किया था। राघव चेतन की मुख से पद्मावती की सुन्दरता और वीरता का बखान सुनकर पद्मावती को हासिल करने की योजना बनाई। पहले तो राजा रतन सिंह को पद्मावती के साथ अपने दिल्ली दरबार में दावत पर आने का न्योता भेजा, जिस निमंत्रण में राजपूतों की तौहीनी थी। निमंत्रण में दंभ भरा हुआ था, उस निमंत्रण को राजा रतन सिंह ने अस्वीकार कर दिया। उसने बाद लंपट अलाउद्दीन खिलजी राघव चेतन के बताएं अनुसार चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। चित्तौड़ का सुरक्षित वो सात दरवाजा पार कर महल में आना अलाउद्दीन के लिए आसान नहीं था, तब चित्तौड़ के मैदान में अलाउद्दीन डेरा डाल युद्ध का एलान कर दिया। रतन सिंह अपने सेनापति गोरा-बादल को अपने हिन्दू राजाओं के पास मदद के लिए भेजा, रतन सिंह के मुताबिक यही मौका था, कि सभी एक होकर खिलजीयों का तख्तापलट करें, लेकिन अफसोस कोई भी हिन्दू राजाओं ने अलाउद्दीन खिलजी के खिलाफ राजा रतन सिंह का साथ देने के लिए तैयार नही हुआ। धीरे-धीरे अलाउद्दीन चित्तौड़ के मैदान में सात माह बिता दिया। इस दौरान राजमहल में जाने वाली हर खाद्यपदार्थों को भी रोक दिया। उसी दौरान दिपावली का त्योहार राजमहल में धूमधाम से मनाते हुए देख राघव चेतन की मंत्रणा पर अपने कुछ सिपाहियों को संधि का प्रस्ताव दे, रतन सिंह के दरबार में भेजा और मित्रता का दिखावा किया। रतन सिंह अलाउद्दीन को अपने दरबार में अकेले आने की अनुमति दे दी। जब अलाउद्दीन खिलजी महल में आया तो उसकी आंखें रानी पद्मावती की तलाश में थी। खिलजी की विचलित नजर को देखकर रतन सिंह ने पूछा इतनी हैरत से क्या देखना चाहते हो ? तब खिलजी ने कहा अपनों से मुझे मिलाईए तब रतन सिंह अपने भाई सेनापति सभी का परिचय देते हुए कहा यही तो सब हमारे अपने हैं।

तब भी उसके निगाहों की चंचलता को विराम नहीं लग रहा था। तब खुलकर कह दिया अपनी छोटी रानी पद्मावती से मुझे मिलाकर मुझे विदा किजिये। इस बात पर ठाकुरों की खून खौलने लगा और रतन सिंह ने कहा हमारे तुम मेहमान न होते तो अभी तुम्हारा सर तुम्हारे धड से अलग कर देता। तब खिलजी शतरंज का पासा फेंकते कहा बचा लिजिये अपनी रानी को, वो तो अब हमारी हुई फिर शतरंज का खेल शुरु हुआ। रतन सिंह को दिल्ली वापस होने से पहले अपने सिविल में निमंत्रण पर बुलावा दे, खिलजी अपने सिविल में चला गया। निहत्थे रतन सिंह खिलजी के बुलाने पर दावत पर चले गए। जो रानी पद्मावती को अंदेशा था, वही हुआ। रतन सिंह को बंदी बना अलाउद्दीन दिल्ली के लिए रवाना हो गया। सिविल में बचा था तो बस राघव चेतन। कुछ समय इन्तज़ार के बाद जब रतन सिंह सिविल से बाहर नहीं आये तो सेनापति गोरा-बादल अपने सैनिकों के साथ शिविर में प्रवेश कर गए। तब वहां कोई भी नहीं था। राघव चेतन को देखकर सैनिकों के होस उड गयें। राघव चेतन को बंदी बनाने का प्रयास हुआ तब अलाउद्दीन का पत्र राघव चेतन ने सैनिकों को दे, कहा मेरा अलाउद्दीन इंतजार कर रहा है मुझे जल्द जाना होगा अन्यथा रतन सिंह कि जान को खतरा है। उस पत्र के माध्यम से रतन सिंह के रिहाई के बदले पद्मावती को अलाउद्दीन ने दिल्ली दरबार में बुलाया था। पद्मावती को जब पता चला तो पत्र के जबाव में पत्र भेज मिलने के पीछे कुछ शर्तों को रख दी। जिसमें अहम शर्त था राघव चेतन का सिर काट मेरी सभी शर्त मंजूर होने पर चित्तौड़गढ़ भेजने की। लंपट अलाउद्दीन पद्मावती से मिलने का आतुर था। सभी शर्तों को मान राघव चेतन का सिर काटकर शर्त मंजूरी का संदेश भेज दिया। इधर पद्मावती अपने नीतियों का कुशल परिचय देते हुए आठ सौ पालकियो में कुशल सैनिकों को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हो गई। वहां खिलजी अपने चचेरे भाई से घायल था। जित कर लाई गई एक राज कि रानी को पद्मावती का सेवा सत्कार व देखरेख करने का भार सौप दिया। वह पद्मावती को राजा रतन सिंह से मिलाकर सुरंग के रास्ते निकल जाने का मार्ग प्रशस्त कर दी। उधर रतन सिंह घायल खिलजी से मिला और सुरंग के रास्ते पद्मावती के साथ निकल लिए।

इधर सेनापति गोरा-बादल अपने वीर सिपाहियों के साथ अलाउद्दीन की सेना से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये। उसके बाद खिलजी अपनी सेना लेकर चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। अपनी तोपों से चित्तौड़ किले की मजबूत दिवालों को तोड़ दिया। थोड़ी सी सेना के साथ राजा रतन सिंह अलाउद्दीन के सामने बहुत समय तक ठीक नहीं सकें और रतन सिंह को छल से मौत के घाट उतार दिया। यह सूचना पाते ही पद्मावती खिलजी की मनसा को भांप सोलह सौ महिलाओं के साथ जौहर कर गई। अंत में खिलजी के मंसूबे पर पानी फिर गया।

चित्तौड़गढ़ को पांचवीं सदी में मौर्य वंशज चित्तरांगन मौरी ने 13 किलोमीटर की लम्बाई 692 एकड़ में पहाड़ी पर बसाया था। आज चित्तौड़गढ़ इतिहास के पन्नों में है। मौरी वंश का अंतिम शासक मान सिंह मोरी के बाद 728 ईस्वीं में गोहिल वंश के शासक आये। गोहिलों के शासन के बाद रावल वंश का शासन चला। गोहिलों ने अपने राजकुमारी को दहेज में चित्तौड़ का किला दे दिया। राजकुमारी से रावल वंशज बप्पा रावल की शादी हुई थी। 7वीं से 13 वीं सदी तक सुख-वैभव काल था। सुख-वैभव और पराक्रम की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। 14वीं से 16वीं सदी चित्तौड़ के लिए बुरा दिन था। रावल वंश के शासक रतन सिंह के शासन के दौरान पद्मावती को हासिल करने के लिए 1303 ईस्वीं में लंपट अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। रानी पद्मावती तो हाथ नहीं आई लेकिन 13 साल तक चित्तौड़ पर राज किया। इस दौरान हजारों मंदिर भी तोड़वा दिया। 1325 में राणा हमीर ने चित्तौड़ को अपना किला बनाया और राणा वंश यानी सिसोदिया वंश का शासन चलना शुरू हुआ। सबसे ज्यादा सिसोदिया वंश ने चित्तौड़ पर राज किया। रानी कर्णावती, रानी मीरा, पन्ना धाय, महाराणा प्रताप, भामाशाह आदि का इतिहास चित्तौड़ से जुड़ा हुआ है। चित्तौड़ का इतिहास – भारत में चित्तौड़ का इतिहास सैकड़ों कहानियों का गवाह है। जो वर्तमान के लिए गर्भ का विषय है। अपनी सम्मान को बचाने के लिए यहां कि बहन-बहू-बेटि क्षत्राणीयों के मार्गदर्शन में वीरतापूर्वक अपने आप को अग्नि में समर्पित कर दिया लेकिन सम्मान को ठेस नही लगने दी। चित्तौड़ की धरती पर राजपूत राजाओं ने अन्याय अत्याचार के खिलाफ लड़ा। दुनिया भर में वीरता, बलिदान, त्याग व साहस का जो परिचय यहां के इतिहास से मिलता है, उस सभी को समाहित करने पर इतिहास का सैकड़ों पन्ना भर जायेगा।

हिन्दू मुस्लिम एकता का परिचय भी यहां दिखाई देता है। जब मुगल बाबर ने चित्तौड़ पर आंखें दिखाई तब खन्वा के युद्ध में राणा सांगा का साथ महमूद लोदी और हसन खान चिश्ती ने दिया था। जब अहमद शाह चित्तौड़ को लूटने पहुंचा तब रानी कर्णावती ने चित्तौड़ की रक्षा के लिए मुस्लिम मुहबोला भाई हुमायूं को राखी भेजी थी। महाराणा प्रताप के खिलाफ सभी सगे संबंधी मुगल अकबर का साथ दिया तब प्रताप का सेनापति बन पठान योद्धा हाकम खान युद्ध में बलिदान दिया। चित्तौड़ का नालायक बेटा बनवीर ने चित्तौड़ पर ही अत्याचार शुरू किया। राणा विक्रम सिंह की हत्या कर चचेरा भाई बनवीर चित्तौड़ की गद्दी पर बैठना चाहता था, तब चित्तौड़ राज का वारिस उदय सिंह पालना में था, को बनवीर से बचाने के लिए गुर्जर जाती की पन्नाधाय ने चित्तौड़ के वारिस उदय सिंह को कुंभलगढ़ भेज अपने बेटे चंदन को पालना में डाल बनवीर के तलवार से उदय सिंह के जगह अपने बेटे का बलिदान दिया। बनवीर चंदन को उदय सिंह समझ अपनी तलवार से दो टुकडा कर दिया। महाराणा प्रताप की मदद जब कोई सगे-संबंधियों ने नही किया तब चित्तौड़ का एक वैश्य अपना सबकुछ बेचकर बारह हजार सैनिकों का खर्च उठाया। प्रताप और अकबर की लड़ाई में हिन्दू राजाओं ने प्रताप के खिलाफ अकबर से जा मिले। तब प्रताप की सेना बन अकबर से लडऩे के लिए घूमंतु आदिवासी गड़रिया लोहार ही साथ आये थे। जब अकबर ने राणाप्रताप को पराजित कर दिया तब फूलकंवर की नेतृत्व में चित्तौड़ की सभी महिलाओं ने आखिरी जौहर की थीं।


चित्तौड़गढ़ से जुड़ी मीरा – राणा सांगा के बेटे भोजराज के साथ मेवाड़ की राजकुमारी मीरा की शादी हुई लेकिन मीरा कभी रानीवासा में नही रही। मीरा शुरू से ही श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन थी जो विवाह बाद भी अपनी भक्ति का अलख जगाई – मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई। ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन वो तो गली-गली हरी गुण गाने लगी अगले लेख में पढ़ने के लिए यहां क्लिक किजिये।
6 thoughts on “रानी पद्मावती और रत्नसेन की प्रेम व बलिदान की कहानी – चित्तौड़गढ़”