कश्मीर को अपनी प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक समृद्धि और आध्यात्मिक गहराई के लिए “धरती का स्वर्ग” कहा जाता था, “Kashmir Issue” आज आतंक, हिंसा और मानवीय त्रासदी की छाया में डूबा हुआ है। महिलाओं, बच्चों और निर्दोष नागरिकों के खिलाफ हो रहे जघन्य अपराध—बलात्कार, हत्याएं, अपहरण और आतंकी हमले—ने इस घाटी को मातम और भय के साये में डुबो दिया है। इन अत्याचारों पर हमारी सामूहिक चुप्पी अब केवल उदासीनता नहीं, बल्कि एक नैतिक और सामाजिक अपराध बन चुकी है।
भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में प्रस्तुत लेख कश्मीर की वर्तमान स्थिति, इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों को गहराई से विश्लेषित करते हुए इस सवाल का जवाब तलाशता है कि हमारी खामोशी क्यों और कैसे? इस त्रासदी को और गहरा रही है। विशेष रूप से, कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत और इसके विनाश को विस्तार से शामिल किया गया है ताकि इस जटिल मुद्दे की गहरी समझ विकसित हो।
Table of Contents
कश्मीर का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य: एक समृद्ध विरासत (Kashmir Issue)
कश्मीर का इतिहास और संस्कृति हजारों वर्षों से हिंदू, बौद्ध, इस्लामी और सूफी परंपराओं का संगम रही है। इसकी सांस्कृतिक पहचान, जिसे “कश्मीरियत” के रूप में जाना जाता है, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता और बौद्धिक उत्कृष्टता का प्रतीक रही है। कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को समझना आज की त्रासदी को संदर्भ देने के लिए महत्वपूर्ण है।
प्राचीन कश्मीर: सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र
वैदिक और बौद्ध युग: कश्मीर का इतिहास 3,000 ईसा पूर्व से शुरू होता है, जब यह वैदिक सभ्यता का हिस्सा था। ऋग्वेद में कश्मीर की नदियों और पहाड़ों का उल्लेख मिलता है। प्राचीन ग्रंथों में इसे “शारदा देश” के रूप में जाना जाता था, जो विद्या और ज्ञान की देवी शारदा का केंद्र था।
बौद्ध प्रभाव: 3वीं शताब्दी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म कश्मीर में फला-फूला। कश्मीर में बौद्ध विहार और स्तूप बनाए गए, और यह बौद्ध दर्शन का एक प्रमुख केंद्र बन गया। 4वीं शताब्दी में, कश्मीर में आयोजित एक बौद्ध संन्यासी सम्मेलन ने बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शैव दर्शन: कश्मीर ने 8वीं-9वीं शताब्दी में कश्मीर शैव दर्शन को जन्म दिया, जिसे त्रिक दर्शन के रूप में भी जाना जाता है। आचार्य अभिनवगुप्त और वासुगुप्त जैसे विद्वानों ने इस दर्शन को विश्व स्तर पर प्रसिद्ध किया। कश्मीर शैव दर्शन ने आत्मा, शिव और विश्व की एकता पर जोर दिया, जो आज भी भारतीय दर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।
सांस्कृतिक केंद्र: कश्मीर प्राचीन काल में एक बौद्धिक केंद्र था। “राजतरंगिणी” (12वीं शताब्दी), कल्हण द्वारा रचित एक ऐतिहासिक ग्रंथ, कश्मीर के इतिहास और संस्कृति का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज है। यह विश्व के पहले इतिहास-लेखन प्रयासों में से एक माना जाता है।
मध्यकाल: सूफी और इस्लामी प्रभाव
इस्लाम का आगमन: 14वीं शताब्दी में इस्लाम का कश्मीर में प्रवेश हुआ। बुलबुल शाह जैसे सूफी संतों ने इस्लाम का प्रचार किया, जिसे स्थानीय आबादी ने सहजता से अपनाया। सूफी परंपराओं ने कश्मीर में सह-अस्तित्व की भावना को मजबूत किया।
कश्मीरियत का उदय: हिंदू और इस्लामी परंपराओं के मिश्रण ने “कश्मीरियत” को जन्म दिया, जो सहिष्णुता, प्रेम और सांस्कृतिक समन्वय का प्रतीक थी। इस युग में, कवि ललद्यद (लल्लेश्वरी) और नुंद रेशी (शेख नूरुद्दीन) जैसे सूफी-भक्ति संतों ने कश्मीरी साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया। ललद्यद की “वाख” और नुंद रेशी की “श्रुक” कविताएं कश्मीरी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
मुगल युग: 1586 में अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य में शामिल किया। मुगल सम्राटों, विशेष रूप से जहांगीर, ने कश्मीर की प्राकृतिक सुंदरता की प्रशंसा की और शालीमार, निशात और चश्मा शाही जैसे बगीचों का निर्माण करवाया। इन बगीचों ने कश्मीर की सांस्कृतिक और पर्यटन पहचान को बढ़ाया।
डोगरा शासन और सांस्कृतिक परिवर्तन
1846 में, अमृतसर संधि के तहत कश्मीर डोगरा राजवंश के अधीन आया। डोगरा शासकों ने कश्मीर में मंदिरों और सांस्कृतिक स्थलों का पुनर्निर्माण करवाया, लेकिन सामाजिक और आर्थिक असमानताओं ने स्थानीय आबादी, विशेषकर मुस्लिम समुदाय, में असंतोष को जन्म दिया।
इस काल में, कश्मीरी हस्तशिल्प, जैसे पश्मीना शॉल, कालीन और कागजी माशे, ने विश्व स्तर पर ख्याति प्राप्त की। कश्मीरी शॉल 19वीं शताब्दी में यूरोप में एक फैशन प्रतीक बन गए थे।
स्वतंत्रता के बाद: सांस्कृतिक विनाश
1947 का विभाजन: भारत-पाकिस्तान विभाजन ने कश्मीर को दो हिस्सों में बांट दिया। इसने कश्मीर की सांस्कृतिक एकता को प्रभावित किया, क्योंकि कई सांस्कृतिक और धार्मिक स्थल, जैसे शारदा पीठ (अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में), स्थानीय लोगों की पहुंच से बाहर हो गए।
1980-90 का आतंकवाद: 1989-90 में आतंकवाद के उदय ने कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को गहरा आघात पहुंचाया। कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और पलायन (लगभग 3,00,000-4,00,000 लोग विस्थापित) ने कश्मीरियत की भावना को कमजोर किया। मंदिर, पुस्तकालय और सांस्कृतिक स्थल नष्ट किए गए। उदाहरण के लिए, श्रीनगर का प्राचीन मार्तंड सूर्य मंदिर और अन्य हिंदू धार्मिक स्थल उपेक्षा और विनाश का शिकार हुए।
सांस्कृतिक क्षरण: आतंकवादी संगठनों ने स्थानीय युवाओं को कट्टरता की ओर धकेला, जिसने कश्मीर की सूफी और समन्वयवादी परंपराओं को कमजोर किया। कश्मीरी साहित्य और कला, जो कभी घाटी की पहचान थे, पृष्ठभूमि में चले गए।
समकालीन सांस्कृतिक संकट
सांस्कृतिक पहचान का ह्रास: अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण (2019) के बाद, कश्मीर की सांस्कृतिक पहचान पर नया विमर्श शुरू हुआ। कुछ लोगों का मानना है कि यह कश्मीर को मुख्यधारा में लाने का प्रयास है, जबकि अन्य इसे स्थानीय संस्कृति और स्वायत्तता पर हमला मानते हैं।
सांस्कृतिक स्थलों की उपेक्षा: कश्मीर के कई ऐतिहासिक स्थल, जैसे खीर भवानी मंदिर, शंकराचार्य मंदिर और सूफी दरगाहें, रखरखाव और संरक्षण की कमी से जूझ रहे हैं। 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार, कश्मीर में 50 से अधिक प्राचीन मंदिर और सांस्कृतिक स्थल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं।
कला और साहित्य का पतन: कश्मीरी साहित्य और कला, जो कभी ललद्यद और हब्बा खातून जैसे कवियों की रचनाओं से समृद्ध थे, आज उपेक्षा का शिकार हैं। कश्मीरी भाषा, जो यूनेस्को की संकटग्रस्त भाषाओं की सूची में शामिल है, धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।

Kashmir Issue – वर्तमान परिदृश्य: जघन्य अपराध और सांस्कृतिक विनाश
कश्मीर में आज की स्थिति ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और समकालीन चुनौतियों का मिश्रण है। आतंकवाद, सामाजिक अस्थिरता और मानवाधिकारों के उल्लंघन ने घाटी को एक मानवीय और सांस्कृतिक संकट की ओर धकेल दिया है। कुछ प्रमुख तथ्य इस स्थिति को रेखांकित करते हैं—
1. महिलाओं के खिलाफ हिंसा
कश्मीर में यौन हिंसा और बलात्कार के मामले दशकों से एक गंभीर समस्या रहे हैं। 1991 की कुनान-पोशपोरा घटना, जिसमें सुरक्षा बलों पर सामूहिक बलात्कार का आरोप लगा, आज भी एक ज्वलंत मुद्दा है। हाल के वर्षों में, आतंकवादी संगठनों और स्थानीय अपराधियों द्वारा महिलाओं को निशाना बनाया गया है।
सांस्कृतिक दृष्टिकोण से, महिलाएं कश्मीरी संस्कृति की रीढ़ रही हैं। कश्मीरी लोकगीतों और हस्तशिल्प में महिलाओं की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। उनकी सुरक्षा और सम्मान की अनदेखी कश्मीर की सांस्कृतिक नींव को कमजोर करती है।
2. बच्चों का शोषण और सांस्कृतिक अलगाव
आतंकवादी संगठन बच्चों को जबरन भर्ती कर रहे हैं, जिससे उनकी शिक्षा और सांस्कृतिक पहचान प्रभावित हो रही है। 2020 की एक संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार, कश्मीर में 13-17 वर्ष के बच्चे आतंकवादी गतिविधियों में शामिल किए जा रहे हैं।
कश्मीरी बच्चे अपनी सांस्कृतिक विरासत—जैसे लोककथाएं, संगीत और परंपराएं—से कट रहे हैं। स्कूल बंद होने और हिंसक माहौल ने एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है।
3. टारगेटेड किलिंग्स और सांस्कृतिक समुदायों पर हमला
2021 और 2022 में, कश्मीर में गैर-मुस्लिम नागरिकों, विशेषकर कश्मीरी पंडितों और सिखों, पर टारगेटेड हमले बढ़े। ये हमले न केवल मानवीय त्रासदी हैं, बल्कि कश्मीर की बहु-सांस्कृतिक पहचान को नष्ट करने का प्रयास भी हैं।
कश्मीरी पंडित, जो कश्मीर की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत के संरक्षक रहे हैं, आज अपनी जन्मभूमि में सुरक्षित नहीं हैं। उनकी अनुपस्थिति ने कश्मीर की सांस्कृतिक विविधता को गहरा नुकसान पहुंचाया है।
4. मानवाधिकार और सांस्कृतिक स्वतंत्रता
मानवाधिकार संगठनों ने कश्मीर में नागरिक स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों की आलोचना की है। इंटरनेट बंदी और सेंसरशिप ने कश्मीरी कवियों, लेखकों और कलाकारों की अभिव्यक्ति को सीमित किया है।
सांस्कृतिक आयोजनों, जैसे कश्मीरी संगीत समारोह और साहित्यिक मेलों, की कमी ने स्थानीय आबादी को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से और दूर कर दिया है।
हमारी चुप्पी: सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ
कश्मीर में हो रहे जघन्य अपराधों और सांस्कृतिक विनाश पर हमारी चुप्पी कई स्तरों पर चिंताजनक है। यह केवल वर्तमान की उदासीनता नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक गलतियों का भी परिणाम है।
1. ऐतिहासिक और सांस्कृतिक चुप्पी
कश्मीरी पंडितों का पलायन: 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और पलायन पर देश का मौन एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूल थी। पंडित समुदाय कश्मीर की साहित्यिक, शैक्षिक और धार्मिक परंपराओं का आधार था। उनकी अनुपस्थिति ने कश्मीरियत की भावना को कमजोर किया।

सांस्कृतिक स्थलों का विनाश: कश्मीर के मंदिरों, सूफी दरगाहों और पुस्तकालयों के विनाश पर राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। उदाहरण के लिए, 51 शक्तिपीठों में एक और 18 महाशक्तिपीठों मे भी एक अहम स्थान रखने वाली शारदा शक्तिपीठ, जो कभी भारत का प्रमुख शैक्षिक केंद्र था, आज खंडहर में तब्दील है। देश की गंदी राजनीति का देन जो माता सती के पावन अंग से निर्मित शक्तिपीठ भी खंडहर बना हुआ है।
सूफी परंपराओं की उपेक्षा: कश्मीर की सूफी परंपराएं, जो सह-अस्तित्व और प्रेम का प्रतीक थीं, आतंकवाद और कट्टरता की भेंट चढ़ गईं। इन परंपराओं को पुनर्जनन करने के प्रयास न्यूनतम रहे हैं। सरकार वोट बैंक की राजनीति में न तो कभी शक्त कदम उठाई न उठाने के लिए वास्तव में तैयार है। गोदी मीडिया सरकार महिमा मंडन मे यह देश कि जनता को गुमराह कर दिखाती रही है कि कश्मीर की स्थिति अब सुधर गयी है किन्तु वास्तविक यह है जो अभी 22 अप्रैल 2023 को देश दुनिया को दिखाई दिया है।
28 हिंदुओं कि जघन्य हत्या 20 से अधिक घायल वो भी पहचान कर कर के हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया गया सरकार तमाशाई बनी हुई है। जब मामला सोशल मीडिया पर पूरी तरह छा जाती है तो थोड़ा अपनी साक बचाने के लिए सरकार और गोदी मीडिया दो शब्द व्यान बाजी कर मलहम लगाने का काम करते हैं।
2. वर्तमान में चुप्पी के कारण
मीडिया का एकतरफा चित्रण: मुख्यधारा का मीडिया कश्मीर को एक भू-राजनीतिक मुद्दे के रूप में प्रस्तुत करता है, न कि सांस्कृतिक और मानवीय त्रासदी के रूप में। कश्मीरी कला, साहित्य और परंपराओं की चर्चा राष्ट्रीय विमर्श में गौण है। गोदी मीडिया कश्मीर की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर परम्पराओं को देश की जनता के समक्ष न प्रस्तुत किया न करेंगीं, क्योकि भारतीय मीडिया तो अब गोदी मीडिया मे परिवर्तित हो चुकी हैं और वोट बैंक की राजनीति में समर्थ करना महज मीडिया का धर्म बन गया है।
राजनीतिकरण: कश्मीर की सांस्कृतिक पहचान अब राजनीतिक बहस का हिस्सा बन चुकी है। अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण को कुछ लोग सांस्कृतिक एकीकरण के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य इसे कश्मीरी पहचान पर हमला मानते हैं। इस बहस में सांस्कृतिक संरक्षण की बात दब जाती है। वास्तव में राजनीति ने कश्मीर का सर्वनाश कर दिया है।
सामाजिक उदासीनता: शहरी भारत में कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को लेकर जागरूकता की कमी है। कश्मीरी हस्तशिल्प, संगीत और साहित्य को मुख्यधारा में लाने के प्रयास सीमित हैं, जिससे कश्मीर के लोग अपनी सांस्कृतिक जड़ों से और अलग-थलग महसूस करते हैं।
कश्मीर को बचाने का रास्ता: सांस्कृतिक पुनर्जनन और सामाजिक जिम्मेदारी
कश्मीर की वादियों में फिर से शांति, समृद्धि और सांस्कृतिक जीवंतता लाने के लिए हमें इतिहास और संस्कृति से सबक लेते हुए ठोस कदम उठाने होंगे। यह केवल सरकार या सेना का दायित्व नहीं, बल्कि हर भारतीय की जिम्मेदारी है।
1. सांस्कृतिक पुनर्जनन
ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण: कश्मीर के मंदिरों, सूफी दरगाहों और बौद्ध विहारों का पुनर्निर्माण और संरक्षण करना होगा। मार्तंड सूर्य मंदिर, शंकराचार्य मंदिर और शारदा पीठ जैसे स्थलों को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित करने की मांग की जानी चाहिए। इन सभी ऐतिहासिक धरोहर को पुन जिवित करना होगा। यह हिंदुत्व की ढोंगबाज़ी करने से नही होगा आम जन को इसपर आवाज उठानी चाहिए और सरकार को वोट बैंक की राजनीति छोड़कर प्राचीन भारत का इतिहास देखकर भारत को मूल स्वरूप में स्थापित करना होगा।
कश्मीरी साहित्य और कला: ललद्यद, हब्बा खातून और नुंद रेशी जैसे कवियों की रचनाओं को स्कूलों और विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। कश्मीरी भाषा को पुनर्जनन करने के लिए डिजिटल और प्रिंट माध्यमों का उपयोग किया जाना चाहिए। हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अनिवार्य करना चाहिए।
हस्तशिल्प और संगीत: कश्मीरी पश्मीना, कालीन और कागजी माशे को वैश्विक बाजार में प्रोत्साहित करना होगा। कश्मीरी लोक संगीत, जैसे “रौफ” और “चकरी”, को राष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
2. सांस्कृतिक एकीकरण
कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को भारत के अन्य हिस्सों में लोकप्रिय बनाना होगा। सांस्कृतिक आदान-प्रदान, जैसे कश्मीरी उत्सव, साहित्य मेला और कला प्रदर्शनियां, आयोजित की जानी चाहिए।
कश्मीरियत की भावना को पुनर्जनन करने के लिए हिंदू, मुस्लिम और सिख समुदायों के बीच संवाद को प्रोत्साहित करना होगा। सूफी और भक्ति परंपराओं पर आधारित आयोजन इस दिशा में महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
3. न्याय और जवाबदेही
कश्मीरी पंडितों के पलायन और सांस्कृतिक विनाश के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराने के लिए विशेष आयोग की स्थापना की जानी चाहिए। पंडितों के पुनर्वास के लिए सुरक्षित और सम्मानजनक योजनाएं लागू की जानी चाहिए।
कश्मीर में हर अपराधी—चाहे वह आतंकवादी हो या सत्ता के दुरुपयोग में शामिल कोई और—को सजा सुनिश्चित करने के लिए मजबूत कानूनी ढांचा बनाना होगा।
4. शिक्षा और जागरूकता
कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित करने के लिए डिजिटल अभियान चलाए जाने चाहिए। कश्मीरी इतिहास और संस्कृति पर वृत्तचित्र, पुस्तकें और प्रदर्शनियां तैयार की जानी चाहिए। युवाओं को कश्मीर की सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने के लिए स्कूलों में विशेष पाठ्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए।
हमें कश्मीर में हो रहे अन्याय और सांस्कृतिक विनाश के खिलाफ बोलना होगा। सोशल मीडिया, लेख, प्रदर्शन और सामुदायिक चर्चाओं के माध्यम से कश्मीर की सांस्कृतिक और मानवीय त्रासदी को राष्ट्रीय विमर्श में लाना होगा।

Kashmir Issue— वर्तमान परिदृश्य: जघन्य अपराधों की भयावहता
कश्मीर में आज की स्थिति ऐतिहासिक जटिलताओं और समकालीन चुनौतियों का मिश्रण है। आतंकवाद, सामाजिक अस्थिरता और मानवाधिकारों के उल्लंघन ने कश्मीर घाटी को एक मानवीय संकट की ओर धकेल दिया है। भारत देश की केंद्रिय और राज्यों की सरकारें बड़ी बड़ी डींग हाकने वाली वर्तमान में चल रही है जो कहती हैं—कश्मीर से आतंकवाद खत्म हो गया, यह हमारी सरकार की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
किन्तु खत्म का नजारा पूरे विश्व में आज दिख रहा है खुलेआम 28 हिंदुओं कि जघन्य हत्या —एक साक्ष है कि कश्मीर में स्थिति जैसे थी वैसे ही है। अंतर बस इतना ही है कि गोदी मीडिया जो पहले निस्पक्ष थी, मामले को गंभीरता से उठाकर दिखाती थी। अब दिखाने का काम बंद हो गया है। आज सोशल मीडिया पर 28 हिंदुओं कि जघन्य हत्या मामला वायरल होने के बाद देश की बड़ी मीडिया मामले को संक्षेप में दिखा अपनी शाख बचाने मे लगी हुई है।
कश्मीर में यौन हिंसा और बलात्कार के मामले दशकों से एक गंभीर समस्या रहे हैं। 1991 की कुख्यात कुनान-पोशपोरा घटना, जिसमें भारतीय सुरक्षा बलों पर सामूहिक बलात्कार का आरोप लगा, आज भी एक विवादास्पद मुद्दा है। हालांकि सरकार ने इन आरोपों को खारिज किया, लेकिन इसने स्थानीय आबादी में गहरा अविश्वास पैदा किया।
हाल के वर्षों में, आतंकवादी संगठनों और कुछ स्थानीय अपराधियों द्वारा महिलाओं को निशाना बनाया गया है। 2019 के बाद, कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने दावा किया कि घाटी में महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि हुई है, हालांकि आधिकारिक आंकड़े सीमित हैं।
आतंकवादी संगठन किशोरों और युवाओं को अपने संगठन में शामिल करने के लिए प्रलोभन, धमकी और धार्मिक कट्टरता का सहारा ले रहे हैं। 2020 की एक संयुक्त राष्ट्र रिपोर्ट के अनुसार, कश्मीर में 13-17 वर्ष की आयु के बच्चों को आतंकवादी गतिविधियों में शामिल किया जा रहा है। हिंसा के इस चक्र ने बच्चों की शिक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाला है। स्कूल बंद होने और हिंसक माहौल ने एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया है।
2021 और 2022 में, कश्मीर में टारगेटेड किलिंग्स की एक नई लहर देखी गई। आतंकवादियों ने गैर-मुस्लिम नागरिकों, सरकारी कर्मचारियों और स्थानीय नेताओं को निशाना बनाया। उदाहरण के लिए, अक्टूबर 2021 में श्रीनगर में एक स्कूल के दो शिक्षकों—एक हिंदू और एक सिख—की हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया।
2022 में, कश्मीरी पंडित कर्मचारियों पर हमले बढ़े, जिसने घाटी में उनके पुनर्वास की प्रक्रिया पर सवाल उठाए।
सांस्कृतिक विरासत की रक्षा, कश्मीर की आत्मा का संरक्षण— Kashmir Issue
कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत—जो वैदिक दर्शन, बौद्ध ज्ञान, शैव तत्त्व, सूफी प्रेम और कश्मीरियत की भावना से बनी है—आज संकट में है। आतंकवाद, हिंसा और चुप्पी ने इस विरासत को गहरी चोट पहुंचाई है। कश्मीर केवल एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आत्मा का हिस्सा है। इस आत्मा को बचाने के लिए हमें अपनी खामोशी तोड़नी होगी।
इतिहास हमें सिखाता है कि चुप्पी ने कश्मीर को बार-बार संकट में डाला है—चाहे वह 1990 का पंडित पलायन हो, सांस्कृतिक स्थलों का विनाश हो, या सूफी परंपराओं का ह्रास। अगर हम अब भी नहीं बोले, तो न केवल कश्मीर की सांस्कृतिक धरोहर खो जाएगी, बल्कि हमारी साझा मानवता भी दागदार होगी। आइए, अपनी आवाज को हथियार बनाएं और कश्मीर की वादियों में फिर से प्रेम, शांति और सांस्कृतिक जीवंतता की बहार लाएं। क्योंकि कश्मीर की चीख केवल एक घाटी की पुकार नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा की कराह है—और इसे अनसुना करना अब कोई विकल्प नहीं बल्कि नपुंसकता का परिचय देना है।






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स्पष्ट जानकारी देने के लिए धन्यवाद आपको आज वास्तव में मीडिया जो गोदी मीडिया के रूप में स्थापित हो गई है वह जन हित में नहीं रह गयी आप सब के बदौलत सत्यता समाज में फैल रही है। हम आपके नियमित पाठक है आपको सादर प्रणाम भाई साहब 🙏🙏🙏
धन्यवाद
Good post
धन्यवाद
बहुत ही गहन जानकारी आपके लेखन से मिलता है जो हर किसी के लिए उपयोगी है। आपके सार्थक लेखनी को सादर प्रणाम 🙏🙏
आपकि लेखनी बहुत ही प्रभावित करने वाली रहती है आपका मै नियमित पाठक हूं उज्जैन मध्यप्रदेश से पंडित रामगोपाल दास पुजारी महाकाल मंदिर।