धारा 370 के निरस्तीकरण के बाद कश्मीर की शांति का दावा —सच या भ्रम? पहलगाम हत्याकांड के जरिए सरकार की जवाबदेही, मीडिया की भूमिका, और आतंकवाद की छिपी सच्चाई पर कटाक्षपूर्ण विश्लेषण। हिंदू हित, राष्ट्रीय हित, और सत्य की खोज के लिए पढ़ें।
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धारा 370 का अंत: स्वर्ग की वापसी या एक सुनियोजित भ्रम?
5 अगस्त 2019 को जब भारत सरकार ने धारा 370 को निरस्त किया, तो इसे कश्मीर के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह वह दिन था जब कश्मीर को भारत के साथ पूरी तरह एकीकृत करने का दावा किया गया, जब यह कहा गया कि अब कश्मीर में आतंकवाद की काली छाया हटेगी, विकास की रोशनी फैलेगी, और पर्यटकों की भीड़ इस “जन्नत” को फिर से जीवंत कर देगी। सरकार ने आंकड़ों की माला जपी—2022 में 1.8 करोड़ पर्यटक, सेब के बागों की समृद्धि, और डल झील की चमक।
लेकिन क्या यह चमक वास्तविक थी, या केवल एक सुनियोजित भ्रम? क्या कश्मीर वाकई शांत हो गया, या फिर आतंक की आग को कालीन के नीचे छिपा दिया गया? हमारे पाठकों के द्वारा उठाया गया सवाल गंभीर है— क्या सरकार ने आतंकवादी घटनाओं को दबाकर, केवल शांति की तस्वीर पेश की, ताकि उसकी छवि चमकती रहे? यह सवाल न केवल कश्मीर की वास्तविकता पर प्रकाश डालता है, बल्कि यह भी पूछता है कि क्या जनता को सच जानने का हक है।
स्थानीय स्रोतों सहित उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 2019 से 2024 के बीच कश्मीर में आतंकवादी हमले कम नहीं हुए। 2021 में श्रीनगर में अल्पसंख्यक समुदायों पर लक्षित हमले, 2023 में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ें, और अन्य छोटी-बड़ी घटनाएं इस बात का सबूत हैं कि कश्मीर की जमीन पर शांति अभी भी एक अधूरी ख्वाहिश है। लेकिन इन खबरों को राष्ट्रीय स्तर पर वह महत्व नहीं मिला, जो धारा 370 हटाये जाने के पहले मिलता था। क्या यह सरकार की रणनीति थी, या फिर जनता की उदासीनता? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब सत्य की खोज के बिना अधूरा रहेगा।

मीडिया का खेल: चौथा स्तंभ या सरकार का तीसरा हाथ?
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ कहा जाता है, जो सत्ता को आईना दिखाने का दायित्व निभाता है। लेकिन कश्मीर के मामले में क्या यह चौथा स्तंभ सरकार का तीसरा हाथ बन गया? हमारे पाठकों का आरोप है कि सरकार ने आतंकवादी घटनाओं की खबरों को दबाया, मीडिया को नियंत्रित किया, और जनता को यह विश्वास दिलाया कि कश्मीर में सब कुछ ठीक है। यह एक गंभीर आरोप है, और इसे समझने के लिए हमें कश्मीर की मीडिया स्थिति पर नजर डालनी होगी। धारा 370 के निरस्त होने के बाद, कश्मीर में महीनों तक इंटरनेट और टेलीफोन सेवाएं बंद रहीं।
पत्रकारों ने स्वयं बताया कि उन्हें अपनी खबरें प्रकाशित करने में अभूतपूर्व बाधाओं का सामना करना पड़ा। स्थानीय अखबारों को सेंसरशिप का सामना करना पड़ा, और राष्ट्रीय मीडिया ने कश्मीर की नकारात्मक खबरों को कम महत्व दिया। पर्यटकों की भीड़, सैर-सपाटे की कहानियां, और कश्मीर की खूबसूरती की तस्वीरें तो सुर्खियां बनीं, लेकिन आतंकवादी हमलों की खबरें अक्सर स्थानीय स्तर तक सीमित रहीं। क्या यह संयोग था, या एक सुनियोजित रणनीति? क्या बड़े मीडिया हाउस, जो राष्ट्रीय स्तर पर खबरें प्रसारित करते हैं, ने स्वेच्छा से कश्मीर की स्याह हकीकत को नजरअंदाज किया?
या फिर सरकार ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया? यह एक ऐसा सवाल है, जो न केवल मीडिया की स्वतंत्रता पर, बल्कि सरकार की जवाबदेही पर भी सवाल उठाता है। अगर जनता को कश्मीर की वास्तविक स्थिति का पता ही नहीं, तो वह सरकार से सवाल कैसे पूछेगी? और अगर सवाल ही नहीं पूछे जाएंगे, तो जवाबदेही का क्या अर्थ रह जाता है? यह एक ऐसा चक्रव्यूह है, जिसमें सत्य फंसकर रह गया है, और जनता को केवल वही दिखाया जा रहा है, जो सत्ता चाहती है।
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पहलगाम हत्याकांड: एक त्रासदी जो सवाल बनकर उभरी
पहलगाम हत्याकांड, जैसा कि हमारे पाठकों ने 22 अप्रैल को ही कहा इस जघन्य अपराध पर आप सच बताईयें, हमने जब कश्मीर के पहलगाम मे स्थिति का जायजा लिया फिर उल्लेख किया, कश्मीर की शांति के दावों पर एक काला धब्बा है पहलगाम मे 28 हिंदुओं कि जघन्य हत्या। हालांकि, इस हत्याकांड के विशिष्ट विवरण (जैसे तारीख, स्थान, या पीड़ितों की संख्या) मैने तत्काल अपनी इस वेबसाइट से खबर के रूप में पाठकों को उपलब्ध कराया है, जब कश्मीर का सच विश्व स्तर पर आ चुका है।
घटना कि जानकारी कि पहली शुरुआत सोशल मीडिया से हुई जब x सहित फेसबुक, हवाटएप्स पर मामला तेजी से फैल गया तब भारतीय कुछ कठपुतली मीडिया अपनी शाख बचाने के लिए खबर को प्रकाशित किया। आज इस लेख में इसे एक प्रतीकात्मक घटना मानकर, हम इसके निहितार्थों पर गहराई से विचार कर सकते हैं। हमारे कुछ पाठकों का कहना है कि इस हत्याकांड के लिए भारत सरकार को “गैर-इरादतन अपराधिक हिंदू-हत्या के षड्यंत्र” का दोषी ठहराया जाना चाहिए। यह एक गंभीर कानूनी और नैतिक आरोप है, जो सरकार की नीतियों और सुरक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाता है।
पहलगाम जैसे पर्यटक स्थल, जहां लाखों लोग अपनी छुट्टियां बिताने आते हैं, वहां सुरक्षा की कमी एक अस्वीकार्य चूक है। विश्वस्त सूत्रों से स्थानीय लोगों ने बताया कि हत्याकांड के आधे घंटे बाद तक पुलिस या सुरक्षा बल नहीं पहुंचे। यह एक ऐसा तथ्य है, जो न केवल प्रशासनिक अक्षमता को उजागर करता है, बल्कि यह सवाल भी उठाता है कि क्या यह लापरवाही सुनियोजित थी? क्या सरकार ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए शांति का भ्रम रचा, लेकिन उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में चूक की? अगर हां, तो यह न केवल एक प्रशासनिक विफलता है, बल्कि नैतिक विश्वासघात भी है।
पहलगाम जैसे स्थानों पर, जहां भीड़ होती है, वहां एक पुलिस चौकी या चौकीदार तक की अनुपस्थिति को कैसे उचित ठहराया जा सकता है? क्या यह संभव है कि इतना बड़ा हत्याकांड बिना किसी “मिली-भगत” के हो गया? और अगर मिली-भगत थी, तो वह किसकी थी—स्थानीय प्रशासन की, सुरक्षा बलों की, या फिर कहीं और से संचालित होने वाली ताकतों की?
ये सवाल न केवल पहलगाम हत्याकांड को, बल्कि कश्मीर की पूरी स्थिति को एक नए दृष्टिकोण से देखने के लिए मजबूर करते हैं। यह जघन्य हत्या “हत्याकांड” हिंदू पर्यटकों को निशाना बनाकर किया गया, नाम और पहचान देखकर किया गया तो यह केवल एक आतंकवादी हमला नहीं, बल्कि एक समुदाय के खिलाफ सुनियोजित हिंसा का स्पष्ट संकेत है। और अगर सरकार ने इसकी अनदेखी की, तो यह हिंदू हितों के साथ-साथ राष्ट्रीय हितों के साथ भी विश्वासघात है।
वायरल हो रहा इस बीडीओ में मुस्लिम समुदाय का व्यक्ति क्या कह रहा है? थोड़ा ध्यान से सुनकर इसका उत्तर देने का विचार किया जाना चाहिए। अगर इनके धर्म मे लिखा है तो जबाबी कार्यवाही सरकार को तुरंत करनी चाहिए। जहां कबीला कमजोर पड़ेगा वहां मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना और जहां कबीला मजबूत होगा वहाँ इनके कुरान में लिखा है कि गैर मजहबी का कत्ल कर दो। इनसे यह भी पूछा जाना चाहिए तुम्हारें पूर्वज कौन हैं? क्या तुम लोग सिया हो जो प्रचेता के 100 निष्कासित पुत्रों से पैदा हो या सूनी जो उनके कबीले के आतंक से भयभीत हो तुम्हारे पूर्वज इस्लाम स्वीकार कर लिया है।
सुरक्षा व्यवस्था की विफलता: लापरवाही या साजिश?
हमारे पाठकों ने एक महत्वपूर्ण बिंदु उठाया कि आतंकवाद के खिलाफ जंग में सुरक्षा बलों को सौ बार सौ प्रतिशत सफल होना पड़ता है, जबकि आतंकवादियों को केवल एक बार। यह एक कठिन सत्य है, जो कश्मीर की जटिल स्थिति को और स्पष्ट करता है। लेकिन क्या सरकार ने इस चुनौती का सामना करने के लिए पर्याप्त कदम उठाए? कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती और खुफिया तंत्र को मजबूत करने के दावे तो किए गए, लेकिन अगर पर्यटक स्थलों पर बुनियादी सुरक्षा व्यवस्था—जैसे पुलिस चौकी या चौकीदार—तक नहीं है, तो इन दावों का क्या अर्थ रह जाता है?
पहलगाम जैसे स्थान, जहां लोग परिवारों के साथ आनंद लेने आते हैं, वहां सुरक्षा की कमी को केवल लापरवाही कहकर खारिज नहीं किया जा सकता। यह एक ऐसा सवाल है, जो सरकार की प्राथमिकताओं पर गहरी चोट करता है। अगर सरकार पर्यटकों को कश्मीर बुलाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर सकती है, अगर वह शांति और समृद्धि की तस्वीर पेश करने के लिए मीडिया को नियंत्रित कर सकती है, तो क्या वह बुनियादी सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर सकती? कुछ लोगों ने यह भी सही कहा कि देश बड़ा है, हर जगह सेना नहीं पहुंच सकती।
लेकिन क्या यह तर्क पहलगाम जैसे पर्यटक स्थल पर लागू होता है, जहां लाखों लोग आते हैं, जहां भीड़ होती है, जहां आतंकवादी हमले की संभावना स्पष्ट है? अगर सरकार ने शांति का भ्रम रचा, लेकिन सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की, तो क्या वह उन पर्यटकों की जान की जिम्मेदार नहीं, जो इस भ्रम में कश्मीर पहुंचे? और अगर यह भ्रम जानबूझकर रचा गया, तो क्या इसे साजिश नहीं कहा जाएगा? यह एक ऐसा सवाल है, जो न केवल सरकार की जवाबदेही पर, बल्कि उसकी नीयत पर भी सवाल उठाता है।
हिंदू हित और राष्ट्रीय हित: सत्य की अनिवार्यता
हमारे एक पाठक महाराष्ट्र से ज्ञानेंद्र मिश्र ने हिंदू हितों को राष्ट्रीय हितों से जोड़ा, और यह एक ऐसा बिंदु है, जो कश्मीर के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है। कश्मीर में हिंदुओं, विशेष रूप से कश्मीरी पंडितों, का इतिहास दुखद रहा है। 1990 के दशक में लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने घर छोड़ने पड़े, और उनकी वापसी आज भी एक अधूरा वादा है। अगर पहलगाम हत्याकांड में हिंदू पर्यटक निशाना बने, तो यह केवल एक आतंकवादी हमला नहीं, बल्कि एक समुदाय के खिलाफ सुनियोजित हिंसा का स्पष्ट संकेत है।
लेकिन सत्य की खोज के लिए हमें पक्षपात से ऊपर उठना होगा। अगर सरकार ने आतंकवादी घटनाओं को दबाया, तो यह न केवल हिंदुओं, बल्कि सभी भारतीयों के साथ विश्वासघात है। और अगर सरकार ने सुरक्षा में चूक की, तो उसे जवाबदेह ठहराना होगा—चाहे वह किसी भी पार्टी की हो। पाठकों ने सही कहा कि अगर हम हिंदू हित और राष्ट्र हित से प्यार करते हैं, तो हमें सत्य बोलने से नहीं चूकना चाहिए। लेकिन सत्य केवल आरोपों से नहीं, बल्कि तथ्यों और सबूतों से उजागर होता है।
Click on the link जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति कौन किसके वंशज भाग एक से चार तक में मौजूद आप हम सभी के पूर्वजों का इतिहास भाग एक पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें क्रमशः पढ़ते रहें भाग चार तक। यहां स्पष्ट किया गया है सभी के पूर्वजों का इतिहास जो इतिहास के पन्नों में नहीं मिलेगा धर्म ग्रंथों से एकत्रित जानकारी। हमारे पूर्वज कौन है।
एक सुझाव के अनुसार, सरकार पर “गैर-इरादतन अपराधिक हिंदू-हत्या के षड्यंत्र” का मुकदमा चलाना एक कानूनी प्रश्न है, जिसके लिए ठोस सबूत और अदालती प्रक्रिया की आवश्यकता होगी। लेकिन नैतिक और प्रशासनिक जवाबदेही के लिए जनता का दबाव अनिवार्य है। अगर कश्मीर में हिंदू पर्यटकों की जान को खतरे में डाला गया, तो यह न केवल हिंदू हितों, बल्कि पूरे राष्ट्र के हितों के खिलाफ है। क्योंकि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, और उसकी शांति और सुरक्षा हर भारतीय का अधिकार है।

कश्मीर का सच धारा 370 दूध का दूध, पानी का पानी
पहलगाम हत्याकांड और कश्मीर की स्थिति पर हमारे पाठकों के सवाल गंभीर हैं। क्या सरकार ने शांति का भ्रम रचा? क्या मीडिया ने जनता को अंधेरे में रखा? क्या सुरक्षा की कमी एक साजिश थी? इन सवालों का जवाब केवल एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच से मिल सकता है। लेकिन इसके लिए जनता को जागरूक होना होगा, सवाल पूछने होंगे, और सत्य की मांग करनी होगी। कश्मीर का सच छिपाने से न तो हिंदू हित सुरक्षित होंगे, न ही राष्ट्रीय हित।
अगर कश्मीर में आग सुलग रही है, तो उसे कालीन के नीचे छिपाने से स्वर्ग नहीं बनेगा—वह आग एक दिन सब कुछ जला देगी। सत्य की खोज न केवल पहलगाम हत्याकांड के पीड़ितों के लिए, बल्कि हर उस भारतीय के लिए अनिवार्य है, जो कश्मीर को भारत का गौरव मानता है। क्योंकि सत्य के बिना न तो न्याय संभव है, न ही शांति।
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Very good information sir 🙏🙏
आपकी लेखनी काबीले तारिफ रहती है आप जो भी जानकारी देते हैं स्पष्ट देते हैं इसलिए मै आपकी हर पोस्ट को इत्मिनान से पढ़ती हूं। जया ठाकुर जी महाराज।