शिव पुराण और लिंग पुराण के अनुसार, भगवान शिव के लिंग रूप की पूजा का महत्व अत्यंत प्राचीन है। इन पुराणों में यह भी बताया गया है कि एक बार भगवान शिव को एक शाप के कारण उनका लिंग धरती पर गिर गया। यह घटना अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि इससे संपूर्ण ब्रह्मांड में हलचल मच गई थी। जिस स्थान पर यह घटना हुई, वहां से वर्तमान शिवलिंग आकृति की पूजा की परंपरा शुरू हुई।
इस घटना का उल्लेख पौराणिक कथाओं में भी मिलता है। कहते हैं कि सप्तऋषियों की पत्नियों ने भगवान शिव को ध्यानमग्न अवस्था में देखा, और उनके दिगंबर रूप से प्रभावित होकर उन पर मोहित हो गईं। इस पर सप्तऋषियों ने शिव को पहचान नहीं पाया और उन्हें लिंग पतन का श्राप दे दिया। इसके परिणामस्वरूप, शिव का लिंग धरती पर गिर गया, और जहां यह गिरा, वहां से शिवलिंग पूजा परंपरा की शुरुआत मानी जाती है।
जागेश्वर धाम: शिवलिंग की पूजा का आरंभिक स्थान
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जागेश्वर धाम वह स्थान है जहां शिव का लिंग वर्तमान आकृति में सबसे पहले स्थापित हुआ। यह धाम उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले से 39 किलोमीटर की दूरी पर, घने देवदार के जंगलों के बीच स्थित है। जागेश्वर धाम में 200 से अधिक मंदिर स्थित हैं, जो इसे शिव के प्रमुख धामों में से एक बनाते हैं।
इस स्थान पर शिवलिंग की पूजा की परंपरा सबसे पहले शुरू होने की मान्यता है। मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालु भी यहां आकर पूजा करते हैं और अपनी मन्नतें मांगते हैं।
ऋषियों की कथा और जागेश्वर धाम की स्थापना:

पौराणिक कथा के अनुसार, शिवजी यहां तपस्या कर रहे थे जब सप्तऋषियों की पत्नियों ने उन्हें देखा और उनके रूप पर मोहित हो गईं। इसके बाद सप्तऋषियों ने शिव को श्राप दिया, और ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई। बाद में देवताओं ने शिव को मनाया और उनके लिंग की स्थापना जागेश्वर में की गई, जहां से शिवलिंग की पूजा आरंभ हुई।
आदि शंकराचार्य और जागेश्वर धाम का पुनरोद्धार:
जागेश्वर धाम के मंदिरों का निर्माण और पुनरोद्धार सातवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। कत्यूरी शासक, विशेष रूप से राजा शालीमार, जिन्होंने स्वयं को परम महेश्वर कहा, ने इस धाम का निर्माण कराया था। जागेश्वर मंदिर की विशेषता यह है कि यहां की गई मन्नतें पूरी होती हैं।
हालांकि, इस मान्यता का दुरुपयोग होने लगा, जिसके बाद आदि शंकराचार्य ने यहां भ्रमण किया और महामृत्युंजय मंदिर में स्थापित शिवलिंग को ‘किलित’ किया, जिससे केवल अच्छी कामनाओं के लिए मन्नतें मांगी जाने लगीं।
जागेश्वर धाम की स्थापत्य शैली:
जागेश्वर धाम नागर शैली का प्रमुख उदाहरण है, यहां मंदिर के शिखर में लकड़ी का छत्र बना हुआ है, जो बारिश और हिमपात के समय मंदिर की सुरक्षा करता है। जागेश्वर में शिव मंदिर का द्वारपाल भैरव को माना जाता है। इसके अलावा, यह स्थान लकुलीश संप्रदाय का भी प्रमुख केंद्र माना जाता है।
जागेश्वर में सती प्रथा:
जागेश्वर मंदिर का संबंध कत्यूरी और चंद शासकों से भी रहा है। कहते हैं कि कत्यूरी रानियां इस धाम में सती हुआ करती थीं। चंद शासकों ने भी यहां की पूजा-अर्चना के लिए अपनी जागीर से 365 गांव जागेश्वर धाम को समर्पित किए थे, जिससे यहां की पूजा-पाठ और भोग की सामग्री उपलब्ध होती थी।
जागेश्वर धाम में उत्सव और श्रद्धालु:
जागेश्वर धाम में विशेष रूप से सावन के महीने में बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। यहां के प्राकृतिक सौंदर्य और मंदिरों की मनोरम छवि लोगों को आकर्षित करती है।
शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन पौराणिक ग्रंथों में अनेक तरीकों से किया गया है। प्रमुख रूप से शिव पुराण और लिंग पुराण में इसका उल्लेख मिलता है। शिवलिंग का अर्थ है “शिव का प्रतीक” और यह शिव की निराकार, अनंत और अद्वितीय शक्ति का प्रतीक माना जाता है। इसके उत्पत्ति के बारे में प्रमुख कथा नीचे वर्णित है।
ब्रह्मा, विष्णु और शिव का विवाद:
एक प्रमुख कथा के अनुसार, एक बार ब्रह्मा और विष्णु के बीच यह विवाद हुआ कि उन दोनों में से कौन श्रेष्ठ है। उनके इस विवाद को सुलझाने के लिए भगवान शिव ने एक अनंत ज्योति स्तंभ (अग्नि का विशाल लिंग) का रूप धारण किया, जो आसमान तक पहुंच रहा था और धरती के नीचे तक जा रहा था। ब्रह्मा और विष्णु ने इस ज्योति स्तंभ का अंत खोजने का प्रयास किया।
ब्रह्मा जी ऊपर की ओर गए और अंत तक नहीं पहुंच पाए।
विष्णु जी ने नीचे की ओर जाने का प्रयास किया लेकिन उन्हें भी कोई सीमा नहीं मिली।
इस प्रकार, दोनों देवता यह जान गए कि शिव का रूप अनंत और असीम है, और वे दोनों ही शिव के आगे विनम्र हो गए। यह अनंत ज्योति स्तंभ ही “शिवलिंग” के रूप में पूजित हुआ, जो शिव की अनंत और अपरिमित शक्ति का प्रतीक है।
शिवलिंग का दार्शनिक और प्रतीकात्मक अर्थ:
शिवलिंग केवल एक प्रतीक नहीं, बल्कि सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार का प्रतीक है। इसे शिव की निराकार और रूपहीन शक्ति के रूप में भी देखा जाता है। यह ब्रह्मांड की अनंतता और जीवन की उत्पत्ति का भी संकेत है।
शिवलिंग का ठीक निचला गोलाकार नालीनूमा भाग आधार (योनिपीठ) होता है, जो सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक है। इसका ऊपरी भाग लिंग रूप में है, जो शिव की ऊर्जा और शक्ति को दर्शाता है।
शिवलिंग को मुख्य रूप से दो भागों में बांटा जाता है, और इसका प्रत्येक भाग सृजन, स्थिति, और संहार के तत्वों का प्रतीक है। शिवलिंग के इन भागों का गहरा दार्शनिक और प्रतीकात्मक अर्थ है।
1. लिंग (ऊपरी भाग):
शिवलिंग का ऊपरी गोलाकार या अंडाकार भाग “लिंग” कहलाता है। यह भगवान शिव की अनंत, निराकार, और अपरिमेय शक्ति का प्रतीक है। इसे शिव के निराकार, रूपहीन स्वरूप के रूप में माना जाता है। लिंग सृजन, सुरक्षा और संहार की शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
यह ब्रह्मांडीय ऊर्जा और शिव की उस शक्ति का प्रतीक है, जो पूरे ब्रह्मांड को चलाती है। लिंग शब्द का अर्थ होता है “चिह्न” या “प्रतीक”, जो यहां शिव के अदृश्य और अप्रत्यक्ष अस्तित्व का प्रतीक है।
2. योनिपीठ (निचला भाग):
लिंग का आधार “योनिपीठ” या “पीठ” कहलाता है। यह आधार स्त्रीत्व और सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक है। यह शक्ति प्रकृति और पृथ्वी की सृजनात्मक क्षमता का प्रतिनिधित्व करती है।
यह आदिशक्ति स्वरुपा शिव की अर्धांगिनी माता (सती) का प्रतीक भी है, जो सृजन और जीवन का आधार है। योनिपीठ और लिंग मिलकर यह दर्शाते हैं कि सृष्टि का निर्माण शिव और शक्ति (पुरुष और प्रकृति) के संयुक्त प्रयास से होता है।
प्रतीकात्मक अर्थ:
लिंग: ब्रह्मांडीय पुरुषत्व (पुरुष तत्व) और सृजनात्मक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है।
योनिपीठ: प्रकृति, स्त्रीत्व, और सृजनात्मक आधार (प्रकृति तत्व) का प्रतीक है।
इस प्रकार, शिवलिंग संपूर्ण सृष्टि के संतुलन और ब्रह्मांड की अनंतता का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि शिव (पुरुष तत्व) और शक्ति (स्त्री तत्व) दोनों के समन्वय से ही सृष्टि का निर्माण और विनाश होता है।
शिवलिंग को पारंपरिक रूप से चार मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है, और प्रत्येक भाग का एक गहरा प्रतीकात्मक और दार्शनिक अर्थ होता है। इन भागों को शिवलिंग की संरचना और उसके तत्वों के अनुसार समझा जा सकता है।
1. ब्रह्मभाग (निचला भाग):
यह शिवलिंग का सबसे निचला भाग होता है और इसे ब्रह्मा का प्रतीक माना जाता है। यह सृजनात्मक शक्ति और ब्रह्मांड के निर्माण का प्रतीक है। ब्रह्मा सृष्टि के देवता माने जाते हैं, और इस भाग को सृष्टि के आरंभ का प्रतिनिधि माना जाता है।
2. विष्णुभाग (मध्य भाग):
यह शीवलिंग का मध्य भाग होता है, और इसे विष्णु का प्रतीक माना जाता है। विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता के रूप में जाना जाता है, इसलिए यह भाग स्थायित्व, पोषण, और ब्रह्मांड के संचालन का प्रतीक है। यह शिव की पालन करने वाली शक्ति को दर्शाता है।
3. रुद्र प्रिया भाग (ऊपरी भाग):
शिवलिंग का यह हिस्सा रुद्र के प्रिया सती का प्रतीक होता है, जो शिव के संहारक रूप का प्रतिनिधित्व करता है। रुद्र प्रिया सती का योनि भाग सृष्टि के निर्माण व विनाश का प्रतीक है, जिससे पुनः सृजन की प्रक्रिया शुरू होती है। यह भाग यह दर्शाता है कि हर चीज का एक अंत है, और विनाश के बाद पुनः सृजन होता है।
4. लिंगम (सबसे ऊपरी गोलाकार भाग):
यह शिवलिंग का सबसे प्रमुख और ऊपरी गोलाकार भाग होता है, जिसे लिंग कहा जाता है। यह भगवान शिव की अनंत और निराकार ऊर्जा का प्रतीक है। यह शिव के निराकार और अनंत स्वरूप को दर्शाता है, जो सृष्टि, स्थिति, और संहार तीनों का आधार है। लिंग स्वयं में परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।
शिवलिंग के चार भागों का प्रतीकात्मक अर्थ

1. ब्रह्मभाग: सृष्टि का आरंभ, ब्रह्मा के सृजनात्मक कार्य का प्रतीक।
2. विष्णुभाग: पालन और संरक्षण, विष्णु के ब्रह्मांडीय पालन का प्रतीक।
3. रुद्रभाग: संहार, शिव के विनाशकारी रूप का प्रतीक।
4. लिंगम: निराकार परमात्मा, शिव की अनंत और असीम शक्ति का प्रतीक।
इन चार भागों का समग्र रूप से यह अर्थ है कि शिव सृष्टि, स्थिति, और संहार तीनों के अधिपति हैं। शिवलिंग की यह संरचना सृष्टि के चक्र और शिव की तीनों रूपों को एक साथ प्रस्तुत करती है। जो जगत-जननी आदिशक्ति अंश सती पर आधारित है।

दंतकथा का विवरण: शिव और सती
जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव के अपमान से क्रोधित होकर आत्मदाह कर लिया, तब भगवान शिव ने उनके जलते हुए शरीर को कंधे पर उठा लिया और पूरे ब्रह्मांड में तांडव नृत्य करने लगे। सती के प्रति शिव के इस अपार प्रेम और क्रोध से सृष्टि को विनाश का खतरा हो गया था। तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए ताकि शिव का तांडव रुक सके और सृष्टि का संतुलन बनाए रखा जा सके।
जहां-जहां सती के शरीर के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इन्हीं शक्तिपीठों में एक स्थान यह है, जहां सती का योनि भाग गिरा, और इसे कामाख्या शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। यह स्थान स्त्रीत्व और सृजन की शक्ति का प्रतीक है, और यहां माता के योनी भाग की पूजा की जाती है।
कामाख्या मंदिर और शिवलिंग की स्थापना

कामाख्या मंदिर में देवी कामाख्या (सती) की योनि की पूजा होती है, जो सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक है। यह मंदिर नीलाचल पर्वत पर स्थित है और इसे विशेष रूप से स्त्री की सृजनात्मक शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यहाँ शिवलिंग की स्थापना दंतकथाओं में इस रूप में मानी जाती है कि शिव का लिंग सती के योनि भाग में स्थापित हुआ था। यह स्थान सृजन की शक्ति, उर्वरता, और सृजनात्मकता का प्रतीक है।
धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व:
यह कथा सृजन की शक्ति, शिव और शक्ति के मिलन, और जीवन की उत्पत्ति को दर्शाती है। शिव का लिंग और सती का योनि भाग मिलकर यह बताता है कि सृष्टि की उत्पत्ति पुरुष और स्त्री दोनों शक्तियों के संयोग से होती है।
कामाख्या मंदिर को शक्ति और उर्वरता का प्रतीक माना जाता है, और यहां हर वर्ष विशेष रूप से अंबुबाची मेला मनाया जाता है, जो प्रकृति और स्त्री की उर्वरता का महोत्सव है। इस दौरान यह माना जाता है कि देवी कामाख्या (योनि भाग) मासिक धर्म के चक्र से गुजरती हैं, और इस घटना को प्रकृति की शक्ति का रूप माना जाता है।
सती के योनि भाग में स्थापित शिवलिंग की कथा
हिंदू पौराणिक मान्यताओं में गहरी आस्था और रहस्य से जुड़ी हुई है। यह कथा देवी सती और भगवान शिव से संबंधित है, जिसमें सती के शरीर के विभिन्न अंगों के धरती पर गिरने से शक्तिपीठों की स्थापना हुई, और कुछ स्थानों पर शिवलिंग की स्थापना भी की गई। इस प्रसंग को समझाने के लिए हमें पौराणिक कहानी का संदर्भ लेना होगा।
देवी सती और शक्तिपीठ की कथा:
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, देवी सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी थीं। एक बार दक्ष प्रजापति ने यज्ञ का आयोजन किया लेकिन उन्होंने जानबूझकर भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। जब सती अपने पिता के यज्ञ में बिना निमंत्रण के पहुंचीं और वहां शिव के अपमान को देखा, तो वे अत्यंत क्रोधित और अपमानित हुईं। इस अपमान को सहन न कर पाने के कारण सती ने यज्ञ स्थल पर ही शरीर का त्याग कर लिया।
आदिशक्ति स्वरुपा सती द्वारा शरीर त्याग से भगवान शिव बहुत दुखी हुए और उनके क्रोध का स्तर बढ़ गया। शिव ने सती के जलते हुए शरीर को अपने कंधों पर उठाकर तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया, जिससे पूरे ब्रह्मांड में हलचल मच गई। तब भगवान विष्णु ने आदिशक्ति के आदेश पर अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 51 अंगों को काटकर धरती पर गिरा दिया ताकि शिव के क्रोध को शांत किया जा सके।
सती के शरीर के ये अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इन शक्तिपीठों को अत्यंत पवित्र माना जाता है, और यहां देवी सती के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। इन्हीं शक्तिपीठों में से एक योनि पीठ भी है, जिसे देवी सती के योनि भाग के गिरने का स्थान माना जाता है।
योनि पीठ और शिवलिंग की स्थापना:
योनि पीठ एक ऐसा शक्तिपीठ है, जहां सती का योनि अंग गिरा था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस स्थान पर देवी की योनि की शक्ति का प्रतिनिधित्व करने वाला शिवलिंग स्थापित किया गया। यह शिव और शक्ति (स्त्री और पुरुष ऊर्जा) के संयुक्त स्वरूप को दर्शाता है, जो सृष्टि की रचना, स्थिति और संहार का आधार है।
शिवलिंग का प्रतीकात्मक अर्थ:
शिवलिंग को यहां पर शिव की पुरुष ऊर्जा (लिंग) और देवी सती की स्त्री ऊर्जा (योनि) के मिलन का प्रतीक माना जाता है। यह मिलन सृष्टि की रचनात्मक शक्ति का प्रतीक है। शिवलिंग का आधार (योनिपीठ) स्त्रीत्व की ऊर्जा का प्रतीक है, जबकि शिवलिंग स्वयं पुरुष ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है। यह सृजन और जीवन के संतुलन को दर्शाता है, जहां शिव और शक्ति एक दूसरे के पूरक हैं।
धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व:
योनि पीठ और शिवलिंग का मिलन गहरे आध्यात्मिक रहस्यों और तात्त्विक दृष्टिकोण को दर्शाता है। शिव और शक्ति का यह संयुक्त स्वरूप यह सिखाता है कि सृष्टि की रचना के लिए दोनों (पुरुष और स्त्री) की ऊर्जा का मिलन आवश्यक है। यह मिलन केवल भौतिक सृष्टि का प्रतीक नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक रूप से जीवन की उत्पत्ति और अस्तित्व की भी व्याख्या करता है।
योनि भाग पर स्थापित शिवलिंग इस गहरे आध्यात्मिक सिद्धांत का प्रतीक है कि सृजन की प्रक्रिया में शिव की शक्ति (पुरुष तत्व) और सती की शक्ति (स्त्री तत्व) एक साथ मिलकर ब्रह्मांडीय ऊर्जा को उत्पन्न करते हैं।
यह दंतकथा, शिव और सती के संबंध और सृजन की गूढ़ आध्यात्मिक धारणाओं का प्रतिनिधित्व करती है, जो हिन्दू धर्म के पौराणिक आख्यानों में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
हां, यह दंतकथा शिव और सती से संबंधित शक्तिपीठों की पौराणिक कहानियों में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। दंतकथाओं के अनुसार, देवी सती के योनि भाग में शिवलिंग की स्थापना का उल्लेख एक विशिष्ट स्थान के रूप में किया जाता है, जिसे कामाख्या मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह स्थान वर्तमान के असम राज्य के गुवाहटी से निकट कामरुप जिले के ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर निलांचल पर्वत पर स्थित है और यह शक्तिपीठों में से सबसे प्रमुख प्रथम शक्तिपीठ है, जो अत्यधिक पवित्र और धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा हुआ है।
