भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भूमिका विवादित रही। उन्होंने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया और आंदोलन को कुचलने के सुझाव दिए। जानिए उनके पत्र, विचार और इतिहासकारों की राय इस रिसर्च लेखनी में भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में।
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया?भारत छोड़ो आंदोलन (1942) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण पड़ाव था, जिसका नेतृत्व कर्ता महात्मा गांधी को माना जाता है। इस आंदोलन का उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना था। महात्मा गांधी ने इस जन सहयोग आंदोलन के माध्यम से ब्रिटिश सरकार पर सत्ता हस्तांतरण का दबाव बनाने की कोशिश की, लेकिन इस दौरान कुछ अन्य राजनीतिक दलों और नेताओं ने गांधी के इस कदम का विरोध किया।
वास्तव में आजादी की लड़ाई में सुभाष चंद्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह जैसे लोग जिन्हें गरम दल नेता के रूप में जाना जाता है, वही लोग थे। लेकिन महात्मा गांधी की रणनीति अग्रेजी हुकुमत को पसंद आई और अग्रजों से सत्ता का हस्तांतरण अभियान गांधी का सफल साबित हुआ। सत्ता हस्तांतरण को ही आजादी का नाम दिया गया। दरअसल गरम दल सत्ता का हस्तांतरण नहीं आजादी चाहता था लेकिन गाधी का साथ देने वालों की संख्या ज्यादा थी। जिसका लाभ गांधी को मिला अपने दो चहेतों जिन्ना और नेहरू को प्रधानमंत्री बना लिया। प्रधानमंत्री के प्रवल दावेदार देखा जाए तो और भी लोग थे।
आते हैं मुख्य शिर्षक भारत छोड़ो आंदोलन और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भूमिका पर – इस समय ही एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व थे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जो उस समय बंगाल की मुस्लिम लीग-हिंदू महासभा की संयुक्त सरकार में वित्त मंत्री थे। ऐतिहासिक दस्तावेजों और शोधकर्ताओं के अनुसार, उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन का समर्थन नहीं किया, बल्कि इसके दमन के लिए ब्रिटिश सरकार को सुझाव दिए।
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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी का ब्रिटिश गवर्नर को पत्र
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के ब्रिटिश गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को लिखे गए पत्र का उल्लेख कई इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने किया है।
पत्र की प्रमुख बातें
1- आंदोलन के खिलाफ चेतावनी
मुखर्जी ने पत्र में कहा कि गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे भारत छोड़ो आंदोलन के कारण बंगाल में आंतरिक अस्थिरता और अशांति फैल सकती है। उन्होंने इस आंदोलन को “युद्धकाल में लोगों को भड़काने का प्रयास” बताया, जो ब्रिटिश शासन के लिए हानिकारक हो सकता है।
2- ब्रिटिश सरकार से कठोर कार्रवाई की मांग
मुखर्जी ने पत्र में स्पष्ट रूप से कहा कि ब्रिटिश प्रशासन को इस आंदोलन को “सख्ती से कुचलना” चाहिए। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से आग्रह किया कि वे इस आंदोलन को फैलने से रोकने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाया जाना चाहिए।
3- आंदोलन को विफल करने के सुझाव
उन्होंने लिखा कि प्रशासन को इस तरह से काम करना चाहिए कि गांधी के नेतृत्व में आंदोलनकारियों की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन बंगाल में जड़ न जमा सके। उन्होंने सरकार को यह सुझाव भी दिया कि जनता को यह समझाया जाए कि जो आजादी कांग्रेस मांग रही है, वह पहले से ही लोगों को मिली हुई है। मतलब सत्ता का हस्तांतरण। मुगलों और राजाओं के हाथों से अंग्रेजो ने सत्ता छिना और एक नियमावली के तहत जनता को सुविधा मुहैया करा सत्ता पर काबिज रही। अंग्रेजों से महात्मा गाँधी ने सत्ता का हस्तांतरण लिया साथ ही गोपनीयता को 50 सालों तक बनाए रखने कि शपथ।
1997 मे जब 50 साल पूर्ण हुआ, भाजपा ने देश वयापी आंदोलन छेड़ा था गोपनीयता भंग करो उस समय देवगौड़ा कि सरकार थी जो गोपनीयता को 20 सालों के लिए बढा दिया। जो 2017 मे पूरी तो हुई लेकिन गोपनीयता क्या थी, आम जनमानस को नही बताया गया। जबकि अब गोपनीयता क्या थी? सार्वजनिक कर दिया जाना चाहिए कि आम जन भी आजादी की सत्यता क्या है जान सके।
4- बंगाल के विभाजन की मांग
मुखर्जी ने अपने पत्र में बंगाल के विभाजन की मांग भी उठाई थी। उन्होंने तर्क दिया था कि बंगाल के हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच गहरे मतभेद हैं और इसे अलग-अलग प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित किया जाना चाहिए। यह मांग आगे चलकर 1947 में बंगाल के विभाजन की भूमिका बनी।

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की साझा सरकार
डॉ. मुखर्जी और मुस्लिम लीग सरकार – 1941 में, बंगाल में मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की साझा सरकार बनी। इस सरकार के प्रधानमंत्री थे एके फजलुल हक, जिन्होंने मुस्लिम लीग की 1940 की लाहौर बैठक में पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव रखा था। इस सरकार में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी को वित्त मंत्री बनाया गया। कांग्रेस इस सरकार का हिस्सा नहीं थी।
वीर सावरकर और हिंदू महासभा का समर्थन
हिंदू महासभा के तत्कालीन प्रमुख वीर सावरकर ने इस सरकार को हिंदू महासभा की बड़ी सफलता बताया। सावरकर ने मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की इस संयुक्त सरकार में हिंदू हितों की रक्षा के लिए मुखर्जी की भूमिका की सराहना की।
इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के विचार
1. एजी नूरानी की किताब में उल्लेख - प्रख्यात इतिहासकार एजी नूरानी ने अपनी किताब में मुखर्जी के इस पत्र का जिक्र किया है। उन्होंने बताया है कि कैसे मुखर्जी ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार को सुझाव दिए थे।
2. सुमित गुहा का इंडियन एक्सप्रेस में लेख (17 अगस्त 1992) - सुमित गुहा ने अपने लेख "Quit India Movement Opponent Unmasked" में इस पत्र का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेजों से आंदोलन को दबाने के लिए कठोर कदम उठाने की सिफारिश की थी।
3. आरसी मजूमदार का विश्लेषण - मशहूर इतिहासकार आरसी मजूमदार ने भी इस पत्र का जिक्र किया और बताया कि मुखर्जी ने कांग्रेस के आंदोलन को आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया और इसे कुचलने की मांग की।
बीजेपी और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का राजनीतिक सफर
स्वतंत्रता के बाद, डॉ. मुखर्जी ने 1951 में भारतीय जनसंघ (BJS) की स्थापना की, जो आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी (BJP) में तब्दील हुई। श्यामा प्रसाद मुखर्जी स्वतंत्र भारत के पहले उद्योग एवं आपूर्ति मंत्री बने। 1953 में, जम्मू-कश्मीर में बिना अनुमति प्रवेश करने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया गया और हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई।
वीर सावरकर और बीजेपी का रुख
बीजेपी की विचारधारा में वीर सावरकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी का महत्वपूर्ण स्थान है। हालांकि, विपक्षी दलों ने हमेशा इन दोनों नेताओं पर ब्रिटिश सरकार से सहयोग करने के आरोप लगाए हैं। वीर सावरकर को लेकर बीजेपी अक्सर सवालों के घेरे में रही है, क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश सरकार को कई माफी पत्र (Mercy Petitions) लिखे थे।
भारत छोड़ो आंदोलन और डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भूमिका लेखनी का संक्षिप्त विवरण
डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की भूमिका भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान काफी विवादित रही। उन्होंने ब्रिटिश सरकार का समर्थन किया और आंदोलन को कुचलने की मांग की। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की सरकार में वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन के साथ मिलकर काम किया। उनके पत्रों और विचारों का ऐतिहासिक दस्तावेजों में उल्लेख मिलता है, जिसे कई प्रसिद्ध इतिहासकारों ने प्रमाणित किया है।
हालांकि, उनकी स्वतंत्रता के बाद की राजनीति ने उन्हें एक राष्ट्रवादी नेता के रूप में स्थापित किया, लेकिन उनका 1942 के आंदोलन के दौरान ब्रिटिश सरकार को समर्थन देना आज भी ऐतिहासिक और राजनीतिक बहस का विषय बना हुआ है। Click on the link गूगल ब्लाग पर अपनी पसंदीदा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

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