आस्था की धरोहर रजरप्पा का मां छिन्नमस्तिका सिद्ध शक्तिपीठ
मां सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सबसे अधिक श्रेष्ठ कामाख्या शक्तिपीठ जहां श्रृष्टि का केंद्र विन्दु मुक्ति का द्वार माना जाता है यहीं निकट ही है त्रिया राज जादूई नगरी। असम राज्य के कामरुप जिले में ब्रह्मपुत्र नदी तट स्थित निरगीरी, निरांचल, कामना पर्वत जो कईयों नाम से जाना जाता है पर अद्भुत योनी रुप में विराजमान दुनिया की सबसे प्रमुख शक्तिशाली शक्तिपीठ मां कामाख्या का विस्तृत वर्णन आप सब पाठकों को भेंट किया। योनिरुप मां कामाख्या देवी की सुमिरन सहित गुणगान करत चंद पंक्तियाँ-
जय माँ कामाख्या जी की। जय हो मातु सिद्धि देवी की।।
सब पूजती योनिरुप की। अमित मनोरथ तुम पूरन की।।
सुमिरन करु भग देवी की। जगत् उधारक सुर सेवी की।।
योनिरुप तुम हो महारानी। सुर ब्रह्मादिक आदि बखानी।।
दक्ष सुता जगदम्ब भवानी। सदा शंभु अर्धंग विराजिनी।।
कहैं अमित मातु बलिहारी। जाने नहीं महिमा त्रिपुरारी।।
जय मां कामाख्या जी की। जय हो मातु सिद्धि देवी की।।
इस प्रथम सर्वशक्तिशाली शक्तिपीठ के बाद दूसरी सर्वशक्तिशाली शक्तिपीठ छिन्नमस्तिका भवानी इससे आगे हिंगलाज भवानी कि कृपा दृष्टि से तीसरी शक्तिपीठ पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत की महिमा को जानिए भगवान चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव की कलम से- जगत-जननी कि कृपा दृष्टि से 51 शक्तिपीठों का वर्णन सम्पूर्ण गुप्त रहस्यों के साथ।
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी! महिमा अमित न जात बखानी!!
पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में स्थित हिंगोल के चंद्रकूप पर्वत की गुफा में विराजमान मोक्ष दायिनीं हिंगलाज भवानी-मुसलमानों की नानी पीर, हिन्दू मुस्लिम एकता भरी आस्था की प्रतीक इन दो शक्तिपीठ पर अपनी लेखनी से मां की महिमा का दर्शन कराया। इक्यावन शक्तिपीठों में तीसरा शक्तिपीठ जो दुनिया के शक्तिशाली शक्तिपीठों में हमारी शक्तिपीठ लेखनी के तीसरे शक्तिपीठ के रूप में है। यह मां छिन्नमस्तिका शक्तिपीठ पर विशेष प्रस्तुति आपके समक्ष लेखक कि कलम के माध्यम से इस छिन्नमस्तिका भवानी के अगले भाग में प्रस्तुत है।
शक्तिपीठों में विराजमान जगत-जननी स्वरुपा की कृपा दृष्टि से छिन्नमस्तिका भवानी पर अग्रसर कर रहा हूं। माँ की कृपा से भगवान चित्रगुप्त जी की धर्म कर्म कलम सरस्वती जी की जिह्वा से जो भी लेखनी प्रस्तुत करुंगा उसमे असत्यता का कोई स्थान नहीं होगा। आगे छिन्नमस्तिका भवानी को पढ़ने से पहले सभी भक्त जन एक बार ह्दय से स्मरण करें और अपनी आत्मा से जरूर बोलें जय मां आदिशक्ति स्वरुपा छिन्नमस्तिका भवानी🙏जय। अगर आप पाठक किसी भी प्रकार के रोग दोष से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं एक बार छिन्नमस्तिका भवानी का दर्शन किजिए पापनाशिनी रोगनाशक भैरवी दामोदर संगम पर स्नान दान किजिए मां सम्पूर्ण रोग दोष से मुक्त करती हैं।

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।
रजरप्पा मंदिर कहाँ है
भारत के झारखंड राज्य की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर दूर मां छिन्नमस्तिका का यह सिद्धपीठ मंदिर स्थित है। रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा व दामोदर नदी संगम पर स्थित माता छिन्नमस्तिका का यह शक्तिपीठ हिन्दू आस्था की धरोहर है। दुनिया भर में असम राज्य स्थित नीरगीरी, निरांचल, मनोकामना पर्वत पर कामाख्या शक्तिपीठ के बाद दूसरा सबसे बड़ी शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिका सिद्ध शक्तिपीठ मंदिर काफी लोकप्रिय है।
झारखंड में रजरप्पा का यह शक्तिशाली सिद्धपीठ केवल एक मंदिर के लिए ही विख्यात नहीं है बल्कि छिन्नमस्तिका मंदिर के अलावा यहां महाकाली, सूर्य, दस महाविद्या, बाबाधाम, बजरंग बली, शंकर और विराट रूप मंदिर के नाम से कुल सात मंदिर स्थित हैं। यहां पश्चिम दिशा से दामोदर और दक्षिण दिशा से कल-कल, हर-हर करती भैरवी नदी दामोदर में मिलकर इस शक्तिपीठ की खूबसूरती में चार चांद लगा देती है।
रजरप्पा मंदिर का रहस्य
छिन्नमस्तिका मंदिर की समीक्षाएं
इस दामोदर और भैरवी नदी के संगम तट पर मां छिन्नमस्तिका का हर मनोकामना पूरी करने वाली रोगनाशनी खूबसूरत मंदिर स्थित है। मंदिर की उत्तरी दीवार के साथ रखे एक शिलाखंड पर दक्षिण की ओर मुख किए देवी मां छिन्नमस्तिका का दिव्य रूप विराजमान है। मंदिर निर्माण काल के बारे में पुरातत्व विशेषज्ञों में मतभेद है। किसी के अनुसार मंदिर का निर्माण छह हजार वर्ष पहले हुआ था तो कोई इसे महाभारत युग का मानता है। इस मंदिर का प्रथम निर्माण विश्वकर्मा द्वारा भी बताया गया है। तो यहीं दन्त कथाओं में रज नामक राजा द्वारा मंदिर निर्माण बताया गया है। इस लिए मंदिर निर्माण विषय पर मै स्पष्ट नहीं कह सकता कि किसके द्वारा निर्मित है। लेकिन यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शक्तिपीठ के रूप में जाना जाता है। छिन्नमस्तिका मंदिर में बड़े पैमाने पर विवाह संपन्न कराया जाता है। मंदिर में प्रातःकाल चार बजे से माता का दरबार सजना शुरू होता है। भक्तों की भीड़ सुबह से पंक्तिबद्ध खड़ी रहती है, खासकर शादी-विवाह, मुंडन-उपनयन के लगन और दशहरे के मौके पर भक्तों की तीन-चार किलोमीटर लंबी लाइन लग जाती है। इस भीड़ को संभालने और माता के दर्शन को सुलभ बनाने के लिए पर्यटन विभाग द्वारा गार्डों की नियुक्ति की गई है। आवश्यकता पड़ने पर स्थानीय पुलिस भी मदद करती है। मंदिर के आसपास ही फल-फूल, प्रसाद की कई छोटी-बड़ी दुकानें हैं। आमतौर पर लोग यहां सुबह आते हैं और दिनभर पूजा-पाठ और मंदिरों के दर्शन करने के बाद शाम होने से पहले ही लौट जाते हैं।

मां छिन्नमस्तिका मंदिर के अंदर स्थित शिलाखंड में अद्भुत मां की तीन आंखें हैं। बायां पांव आगे की ओर बढ़ाये हुए कमल पुष्प पर खड़ी हैं। पांव के नीचे विपरीत संभोग मुद्रा में कामदेव और रति शयनावस्था में हैं। मां छिन्नमस्तिका का गला सर्पमाला तथा मुंडमाल से सुशोभित है। बिखरे और खुले केश, जिह्वा बाहर, आभूषणों से सुसज्जित मां पूरी तरह नग्नावस्था में दिव्य स्वरूप में विराजमान हैं। दाएं हाथ में तलवार तथा बाएं हाथ में अपना ही कटा मस्तक है। इनके अगल-बगल डाकिनी और शाकिनी खड़ी हैं जिन्हें वे रक्तपान करा रही हैं और स्वयं भी रक्तपान कर रही हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएं निकल रही हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पूरबमुखी है। मंदिर के सामने बलिदान का स्थान है। बलि स्थान पर प्रतिदिन लगभग सौ से दो सौ बकरों की बलि चढ़ाई जाती है। मंदिर की ओर मुंडन कुंड है। इसके दक्षिण में एक सुंदर निकेतन है जिसके पूर्व में भैरवी नदी के तट पर खुले आसमान के नीचे एक बरामदा है। इसके पश्चिम भाग में भंडारगृह है। रुद्र भैरव मंदिर के निकट एक कुंड है। मंदिर की भित्ति पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की जानकारी के अनुसार अठारह फुट नीचे से खड़ी की गई है। नदियों के संगम के मध्य में एक अद्भुत पापनाशिनी कुंड है, जो रोगग्रस्त भक्तों को रोगमुक्त कर उनमें नवजीवन का संचार करती है। यहां मुंडन कुंड, चेताल के समीप ईशान कोण का यज्ञ कुंड, वायु कोण कुंड, अग्निकोण कुंड जैसे कई कुंड हैं। राजा दामोदर नदी के द्वार पर एक सीढ़ी है। इसका निर्माण 22 मई 1972 को संपन्न हुआ था। इसे तांत्रिक घाट कहा जाता है, जो बीस फुट चौड़ा तथा दो सौ आठ फुट लंबा है। यहां से भक्त दामोदर नदी में स्नान कर मंदिर में आते हैं। दामोदर और भैरवी नदी का संगम स्थल भी अत्यंत मनमोहक है। भैरवी नदी स्त्री नदी मानी जाती है जबकि दामोदर नदी पुरुष। दोनों के संगम स्थल पर भैरवी नदी ऊपर से नीचे की ओर दामोदर नदी के ऊपर गिरती है। कहा जाता है कि जहां भैरवी नदी दामोदर में गिरकर मिलती है उस स्थल की गहराई अब तक किसी को पता नहीं है।
नग्न रूप मां छिन्नमस्तिका का सुमिरन सहित गुणगान-
छिन्नमस्तिका माता
छिन्नमस्तिका मात भवानी, रजरप्पा में तुम्हीं हो रानी।
झारखंड की मान् बढ़ाती, शक्तिपीठ पर शक्ति दिखाती।
रज राजा के सपने में आई, अपनी गाथा खुद बतलाई।
जैसा जो ध्यान लगावे, वैसा ही मन वांछित फल पावे।
तंत्र-मंत्र से करे जो पूजा, फल तुमसा कोई नहीं दे दूजा।
मनोकामना तुम पूरी करती, भक्तों की तुम झोली भरती।
आदि अंत में तुम्हीं हो माता, ब्रह्मा विश्णु शिव भी ध्याता।
जग करे प्रार्थना नग्न देवी की, अमित मनोरथ पूरन की।।
रवी मंडल मध्य योनि मोहक, खड्ग खपड हाथे सोभत।
मुंडो की माला गले बिराजे, सीने पर तेरी सर्प बिराजत।
योगी सुरमुनी कहत पुकारे, योग न हो बिन शक्ति तुम्हारे।
तुम रोगनाशनी कुंड बिराजत, पापनासनी हो डंका बाजत।
शिव-शक्ति रुप में तुम्हें ही पाया, दूजा नही कोई अपनाया।
शक्ति रूप शिव करत हैं धारण, बन गईं प्रलय की कारण।
दक्ष यज्ञ में बिना बुलावा, चली गई मात घर मन न भावा।
शिव करें कामना नग्न देवी की, अमित मनोरथ पूरन की।।
काम-रती में हो शक्ति रुपा, तुहीं जगत जननी स्वरूपा।
तुम बिन नही कोई है दूजा, तीनों लोक करें तेरी पूजा।
जगत जननी जगदम्बे हो, कलयुग की तुम ही अम्बे हो।
अपने गले खड्ग चला दी, छिन्नमस्तिका रूप दिखा दी।
तीन धार खुद रूधिर बहा दी, सखियों की भूख मिटा दी।
रक्तपान तुम करती माता, देख रूप तीहूं लोक डर जाता।
तरुण रुप नग्न देवी की, मै करू प्रार्थना छिन्न मस्तक की।
जग करे उपासना नग्न देवी की, अमित मनोरथ पूरन की।।
रजरप्पा में ध्यान लगाया, सब सुख भोग परम सुख पाया।
परशुराम तेरी विद्या पाया, उस बल कि थाह कोई न पाया।
दक्ष सुता जगदम्ब भवानी, सब पर कृपा करो महारानी।
चन्द्रमुखी हो तुम जग माता, तुझसे पार कोई नही पाता।
तुहीं हो आदि सुन्दरी बाला, रूद्र भैरव तेरा ही रखवाला।
रोग नाश तुम करो भवानी, बल बुद्धी दो मै हूं अज्ञानी।
झारखंड में तुम्हीं भवानी, महिमा अमित न जात बखानी।
मै करू कामना नग्न देवी की, अमित मनोरथ पूरन की।।
छिन्नमस्तिका देवी दस महाविद्याओं में से एक हैं। इन्हें महाविद्यायों में प्रचंड छठवीं चंड नायिका के नाम से भी पूजा जाता है। छिन्नमस्तिका शत्रु नाशक देवी हैं उदाहरण स्वरूप विश्णु अंश शिव शिष्य परशुराम छिन्नमस्तिका से अपार बल अर्जित किये थे। छिन्नमस्तिका मूलरूप से सती अंश शक्तिपीठ में शिव की अर्धांगिनी हैं।
रूद्र भैरव शक्तिपीठ की रखवाली करने वाले काल भैरव हैं। इस देवी की अराधना से आयु, आकर्षण, धन और कुशाग्र बुद्धि मिलती है। रोगमुक्ति व शत्रुनाश के लिए तो मां छिन्नमस्तिका की अराधना सर्वोत्तम लाभ देती है। पुराणों के अनुसार ये देवी प्राणतोषिनी हैं। इनका शुद्ध ह्रदय से विधिवत पूजन करने वाला व्यक्ति शत्रुबंधन से निश्चित ही मुक्ति प्राप्त करता है।
पूजन विधि- प्रदोषकाल में शाम के समय पूजा स्थल में दक्षिण-पश्चिम मुख होकर नीले रंग के आसन पर बैठ सामने लकड़ी के पट्टे पर नीला वस्त्र बिछाकर उस पर छिन्नमस्तिका यंत्र स्थापित करें। दाएं हाथ में जल लेकर संकल्प करें तत्पश्चात हाथ जोड़कर छिन्नमस्तिका देवी का ध्यान करें। प्रचण्ड चण्डिकां वक्ष्ये सर्वकाम फलप्रदाम्। यस्या: स्मरण मात्रेण सदाशिवो भवेन्नर:।। छिन्नमस्तिका की इस प्रकार से पूजा करें। सरसों के तेल में नील मिलाकर दीपक प्रज्वलित करें। हो सके तो देवी पर नीले फूल मन्दाकिनी अथवा सदाबहार चढ़ाएं, देवी पर सुरमे से तिलक करें। लोहबान से हवन-पूजन करें और इत्र अर्पित करें। उड़द से बने मिष्ठान का भोग लगाएं। तत्पश्चात बाएं हाथ में काले नमक की ढेली लें दाएं हाथ से काले हकीक अथवा अष्टमुखी रुद्राक्ष माला अथवा लाजवर्त की माला से देवी के इस अदभूत मंत्र का यथासंभव जाप करें।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा:।।
जाप पूरा होने के बाद काले नमक की ढेली को बरगद पेड़ के नीचे गाड़ दें। बची हुई सामग्री बहते जल में प्रवाहित करें। इस साधना से शत्रुओं का तुरंत नाश होता है, रोजगार में सफलता मिलती है, नौकरी में प्रमोशन मिलती है तथा कोर्ट कचहरी वाद-विवाद व मुकदमों में निश्चित सफलता मिलती है। महाविद्या छिन्नमस्तिका की साधना से जीवन की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
छिन्नमस्तिका माता का फोटो
छिन्नमस्तिका देवी प्रत्यालीढपदा हैं, अर्थात् युद्ध के लिये एक चरण आगे और एक पीछे करके वीर भेष में खड़ी हैं। छिन्नशिर और खडग खप्पर धारण करती हैं। देवी पूरी तरह से नग्न अवस्था में हैं और अपने कटे हुए गले से निकलती हुई शोणित रक्त धारा का पान करती हैं। इनके मस्तक में सर्पाबद्ध मणि है, तीन नेत्र हैं और वक्ष स्थल पर मुंडो की माला पहने सुशोभित हो रहीं हैं। यह रति में आसक्त कामदेव के ऊपर दंडायमान हैं। इनकी देह की कान्ति जवा पुष्प की तरह रक्त वर्णा है। देवी के दाहिने भाग में श्वेत वर्ण वाली खुले केश, कतरनी और खप्पर धारिणी नग्न देवी खड़ी हैं। यह वर्णिनी देवी के छिन्न मस्तिष्क से गिरती हुई रक्तधारा का पान करती है।
इनके मस्तक में नागाबद्ध मणि है। बायीं तरफ खड्ग खप्पर धारिणी कृष्ण वर्णा दूसरी देवी खड़ी हैं। यह भगवती के छिन्न गले से निकली हुई रुधिर धारा का पान करतीं हैं। वर्णित है स्नान करने गई देवी भूख से व्याकुल अपने दो सहचरियों से थोड़ा प्रतीक्षा करने के लिये कहा। कुछ समयोपरांत सहचरियों ने पुनः भगवती को स्मरण कराया कि वह भूखी हैं। तब आदिशक्ति स्वरूपा देवी ने अपने खड़्ग से अपना शीश छिन्न कर दिया और देवी ने अपना कटा सिर अपने दूसरे हाथ पर रख लिया। देवी की गले से रक्त की लहरें फूट पड़ीं। धड़ से निकलने वाली रक्त धारायें तीन भागों में विभक्त हुईं जिसका पान भगवती कि दोनों सहचरियाँ, जया और विजया तथा स्वयं भगवती का मुण्ड जो इन्होंने अपने हाथ में ले रखा है करने लगीं। यह प्रलय काल के समान सम्पूर्ण जगत् का भक्षण करने में समर्थ हैं, इनका नाम डाकिनी भी है। इनके नाभि में खिला हुआ कमल है। मध्य में पुष्प के समान लाल वर्ण प्रदीप्त सूर्य मण्डल है, रवि मण्डल के मध्य में बड़ा योनि चक्र है। विपरीत मैथुन क्रीड़ा में आसक्त कामदेव और रति हैं। कामदेव और रति की पीठ पर प्रचण्ड अर्थात छिन्नमस्तिका स्थित हैं। यह देवी यौन सुखदायी हैं रती में विराजमान हैं। यह करोड़ों तरुण सूर्य के समान तेजशालिनी एवं मंगलमयी हैं। छिन्नमस्तिका के बायें हाथ में कटा हुआ अपना मुण्ड है। दाहिने हाथ में भीषण कृपाण है। देवी एक चरण आगे और एक चरण पीछे किये वीरभेष से स्थित हैं। चारों दिशायें इनका वस्त्र है। इनके केश खुले हुए हैं। यह अपने सिर को काटकर उसकी रुधिर धारा का पान कर रहीं हैं। इनके तीनों नेत्र प्रातः कालीन सूर्य के समान प्रकाशमान हैं। देवी के दक्षिण और वाम भाग में निज शक्तिरूपा दो योगिनियां विराजमान हैं। इनके दक्षिण भाग में स्थित योगिनी के हाथ में बड़ी कतरनी है। यह योगिनी की उग्र मूर्ति है। यह रक्तवर्णा और रक्त केशी हैं।

यह नग्न हैं और प्रत्यालीढपद से स्थित हैं। इनके नेत्र लाल हैं और इनको छिन्नमस्तिका देवी अपने गले से निकलती हुई रुधिर का पान करा रहीं हैं। जो योगिनी वाम भाग में स्थित है, वह नग्न है और उसके केश खुले हुए हैं। उसकी मूर्ति प्रलय काल में मेघ के समान भयंकर है। यह प्रचण्ड स्वरूपा है इसका मुखमण्डल दांतों से दुर्निरीक्ष हो रहा है। ऐसे मुख मण्डल के मध्य में चलायमान जीभ सुशोभित हो रही है। तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल हैं। हृदय पर सर्प विराजमान है। देवी का अत्यन्त भयानक स्वरूप है। छिन्नमस्तिका देवी इस डाकिनी को अपने कंठ के रुधिर से तृप्त कर रहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि योगेन्द्रगण इस छिन्नमस्तिका देवी के चरण कमल को अपने मस्तक में धारण करते हैं। वह प्रतिदिन इनके अचिन्त्य रूप का मनन करते हैं। यह संसार का सारभूत हैं। यह तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाली हैं।

यह मनोरथों को सिद्ध करने वाली हैं। इस कारण, कलियुग के पापों को हरने वाली इस देवी का मैं मन में ध्यान करता हूँ। यह संसार की उत्पत्ति और विनाश करने के निमित्त ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन तीनों मूर्तियों को धारण करतीं हैं। देवता इनके खिले कमल के समान दोनों चरणों का सदा भजन करते रहते हैं। सम्पूर्ण अर्थों की सिद्धि के निमित्त मैं छिन्नमस्तिका देवी का मन में ध्यान करता हूँ। मैं सदा मद्य, मांस, परस्त्री आसक्त तथा योगपरायण हूँ। मैं जगदम्बा के चरण कमल में, संलिप्त हो बाह्य जगत में रहकर जडभावापन्न हूँ। मैं पशुभावापन्न साधक के अंग से अलग हूँ। सदा भैरवीगणों के मध्य में स्थित गुरु के चरण कमलों का ध्यान करता रहता हूँ। मैं भैरव स्वरूप और मैं ही शिवस्वरूप हूँ।
महापुण्य देने वाली स्तुति पहले ब्रह्मा जी ने कहा है। यह स्तुति सम्पूर्ण सिद्धियों का प्रदाता है। बडे-बड़े पातक और उपपातकों का यह नाश करने वाला है। जो मनुष्य प्रातःकाल के समय शय्या से उठकर छिन्नमस्तिका देवी का पूजा-पाठ मन से ध्यान करता है उनकी सभी मनोकामना शीघ्र पूर्ण होती है।
धन्यं धान्यं सुतां जायां हयं हस्तिनमेव च।
वसुन्धरां महाविद्यामष्टासिद्धिर्भवेद्ध्रुवम्।।
इस स्तोत्र का पाठ करने वाले मनुष्य को धन, धान्य, पुत्र, कलत्र, घोड़ा, हाथी और पृथ्वी प्राप्त होती है। वह अष्ट सिद्धि और नव निधियों को निश्चय ही प्राप्त कर लेता है।
छिन्नमस्तिका माता की कहानी –
मां छिन्नमस्तिका महिमा की कई पुरानी कथाएं प्रचलित हैं। प्राचीनकाल की एक कथा – छोटा नागपुर में रज नामक एक राजा राज करता था। राजा की पत्नी का नाम रूपमा था। इन्हीं दोनों के नाम से इस स्थान का नाम रजरूपमा पड़ा, जो बाद में रजरप्पा हो गया।
एक कथा के अनुसार एक बार पूर्णिमा की रात में शिकार की खोज में राजा दामोदर और भैरवी नदी के संगम स्थल पर पहुंचा। रात्रि विश्राम के दौरान राजा ने स्वप्न में लाल वस्त्र धारण किए तेज मुख मंडल वाली एक युवा कन्या देखी। उसने राजा से कहा- हे राजन, इस आयु में संतान न होने से तेरा जीवन सूना लग रहा है। मेरी आज्ञा मानोगे तो रानी की गोद भर जाएगी। राजा की आंखें खुलीं तो वे इधर-उधर भटकने लगा। इस बीच आंखें स्वप्न में दिखी कन्या से जा मिलीं। वह कन्या जल के भीतर से राजा के सामने प्रकट हुई। उसका रूप अलौकिक था। यह देख राजा भयभीत हो उठा। राजा को देखकर वह कन्या कहने लगी- हे राजन, मैं छिन्नमस्तिका देवी हूं कलियुग के मनुष्य मुझे नहीं जान सके हैं जबकि मैं इस वन में प्राचीनकाल से गुप्त रूप शक्तिपीठ में निवास कर रही हूं। मैं तुम्हें वरदान देती हूं कि आज से ठीक नौवें महीने तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। देवी बोली- हे राजन, मिलन स्थल के समीप तुम्हें मेरा एक मंदिर दिखाई देगा। इस मंदिर के अंदर शिलाखंड पर मेरी प्रतिमा अंकित दिखेगी। तुम सुबह मेरी पूजा कर बलि चढ़ाओ। ऐसा कहकर छिन्नमस्तिका अंतर्ध्यान हो गईं। इसके बाद से ही यह पवित्र तीर्थ रजरप्पा के रूप में विख्यात हो गया।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवती भवानी अपनी सहेलियाँ जया और विजया के साथ नदी में स्नान करने गईं। स्नान करने के बाद भूख से उनका शरीर काला पड़ गया। सहेलियों ने भी भोजन मांगा। देवी ने उनसे कुछ प्रतीक्षा करने को कहा। बाद में सहेलियों के विनम्र आग्रह पर उन्होंने दोनों की भूख मिटाने के लिए अपना सिर काट लिया। कटा सिर देवी के हाथों में आ गिरा व गले से तीन धाराएं निकलीं। वह दो धाराओं को अपनी सहेलियों की ओर प्रवाहित करने लगीं और तीसरा धारा खुद अपने मुख में प्रवाहित कर लीं तभी से ये छिन्नमस्तिका कही जाने लगीं। रजरप्पा के स्वरूप में अब बहुत परिवर्तन आ चुका है। तीर्थस्थल के अलावा यह पर्यटन स्थल के रूप में भी विकसित हो चुका है। आदिवासियों के लिए यह त्रिवेणी है। मकर संक्रांति के मौके पर लाखों श्रद्धालु आदिवासी और भक्तजन यहां स्नान व चौडाल प्रवाहित करने तथा चरण स्पर्श के लिए आते हैं। अब यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र बन गया है।
अद्भुत इस सिद्ध शक्तिपीठ पर पहुंचने का रास्ता- झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर मां छिन्नमस्तिका मंदिर के निकट ठहरने के लिए सामान्य व्यवस्था है। मंदिर तक जाने के लिए पक्की सड़क है। यह पर्यटन स्थल का मुख्य केंद्र है। सुबह से शाम तक मंदिर पहुंचने के लिए बस, टैक्सियां एवं ट्रैकर उपलब्ध रहते हैं।
हे मात् तुमने व्यार्घ चर्म द्वारा अपनी जंघाओं को रंजित किया हुआ है। तुम अत्यन्त मनोहर आकृति वाली हो। तुम्हारा उदर अधिक लम्बायमान है। तुम सुन्दर विराट आकृति वाली हो। तुम्हारा देह अनिर्वचनीय त्रिवली से शोभित है। तुम मुक्ता से विभूषित हो। तुमने हाथ में कुन्दवत् श्वेत वर्ण विचित्र कतरनी शस्त्र धारण कर रखा है। तुम भक्तों के ऊपर सदा दया करती हो।
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