क्या पत्रकारिता अब सत्ता की गुलाम बन चुकी है? निष्पक्ष मीडिया, साहित्य और सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा क्यों जरूरी है? इस लेख में जानिए कैसे गोदी मीडिया, बाजारवाद और सत्ता समर्थक लेखन हमारे लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं।
अगर आपको ऐसी पत्रकारिता और मीडिया पसंद है जो सत्ता के पक्ष में झुकी हुई हो, सरकार की आलोचना करने के बजाय उसकी प्रशंसा में लीन हो, और केवल एक एजेंडा प्रस्तुत करने का काम करे, तो यह समझ लीजिए कि आप अनजाने में ही इस देश को एक बड़े तानाशाह की ओर धकेल रहे हैं। यह कोई काल्पनिक बात नहीं, बल्कि एक कटु सत्य है, जिसे स्वीकार करना जरूरी है।
पत्रकारिता का मूल उद्देश्य सत्ता के सामने कठोर सवाल खड़ा करना, जनता की आवाज बनना और लोकतंत्र की रक्षा करना होता है। यह सरकार के लिए तालियां बजाने का मंच नहीं, बल्कि जनता के लिए एक प्रहरी है।
यही कारण है कि इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। इस स्तंभ का सबसे बड़ा दायित्व सरकार की नीतियों और कार्यशैली की समीक्षा और आलोचना करना है, फिर चाहे वह किसी भी दल की सरकार हो।
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क्या पत्रकारिता अब सत्ता की गुलाम बन चुकी है?
स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा होती है। यह वह माध्यम है जो जनता को सच्चाई से अवगत कराती है और सरकार को जवाबदेह बनाती है। लेकिन जब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के हाथों की कठपुतली बन जाता है, तो जनता भ्रम की स्थिति में आ जाती है। 2014 के बाद से यह प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। पहले जहां ‘पेड न्यूज’ के रूप में पत्रकारिता का नैतिक पतन हो रहा था, अब स्थिति और भी भयावह हो गई है।
अब हमारे सामने ‘गोदी मीडिया’ है—एक ऐसा मीडिया जो सत्ता की गोद में बैठकर वही दिखाता और लिखता है जो सरकार चाहती है। सरकारें अपने प्रचार-प्रसार के लिए पहले से ही पब्लिक रिलेशन (PR) एजेंसियों का इस्तेमाल करती हैं, लेकिन जब मुख्यधारा की पत्रकारिता भी सत्ता के प्रचार का माध्यम बन जाती है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत होता है। ऐसे में निष्पक्ष लोगों को आगे आकर आवाज उठानी चाहिए, क्योंकि अगर हम चुप रहेंगे तो यह देश निश्चित रूप से एक तानाशाही शासन की ओर बढ़ जाएगा।
साहित्य और लेखन की भूमिका: क्या हम चारणकाल की ओर लौट रहे हैं?
सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं, बल्कि साहित्य, लेखन और आलोचना की भी समाज में एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेखक, कवि और साहित्यकार समाज का दर्पण होते हैं। इनका कर्तव्य होता है सत्य को उजागर करना, सामाजिक विकृतियों को दिखाना और सत्ता से सवाल पूछना। लेकिन जब साहित्य सत्ता का स्तुतिगान करने लगे और चारणकाल की याद दिलाने लगे, तो यह एक गंभीर संकट का संकेत होता है। हमारे देश में साहित्यिक परंपरा हमेशा से सत्ता से टकराने और उसे आईना दिखाने की रही है।
लेकिन आज के दौर में कुछ लेखक और साहित्यकार सत्ता के समर्थन में रचनाएँ गढ़ रहे हैं, जो साहित्य की मूल आत्मा के खिलाफ है। ऐसे लोग न केवल अपने साहित्यिक पुरखों की विरासत को नष्ट कर रहे हैं, बल्कि समाज को भी भ्रमित कर रहे हैं। सच्चा साहित्यकार वही होता है जो सच लिखने का साहस रखता हो, चाहे वह कितना ही अप्रिय क्यों न हो। लेकिन अगर साहित्य भी सरकार की चापलूसी में लग जाए, तो फिर समाज में सच बोलने वाला कोई नहीं बचेगा।
बाजारवाद, मीडिया और सांस्कृतिक प्रदूषण
आज के समय में बाजारवाद भी पत्रकारिता, साहित्य और समाज के नैतिक मूल्यों को प्रभावित कर रहा है। कुछ लेखक और साहित्यकार अपनी रचनाधर्मिता का उपयोग अश्लीलता, व्यभिचार, जुए-सट्टे, शराब और नशे को बढ़ावा देने के लिए कर रहे हैं। उन्हें आत्ममंथन करना चाहिए कि वे समाज को किस दिशा में ले जा रहे हैं।
फिल्मी सितारे अपनी लोकप्रियता का उपयोग युवाओं को गुटखा, शराब और जुआ खेलने की ओर धकेलने में कर रहे हैं। ऐसे सितारे असल में समाज के खलनायक हैं, न कि नायक।
विज्ञापन और मनोरंजन उद्योग जिस तरह से युवाओं को मानसिक रूप से खोखला बना रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है।
आज का मीडिया और मनोरंजन उद्योग केवल धन कमाने के लिए काम कर रहा है, बिना यह सोचे कि इसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हमें ऐसे बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति को अस्वीकार करना होगा, जो हमारी युवा पीढ़ी को कमजोर बना रही है। Click on the link गूगल ब्लाग पर अपनी पसंदीदा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
क्या हम सच बोलने का साहस रख सकते हैं?
एक लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद निष्पक्ष पत्रकारिता, स्वतंत्र लेखन और सशक्त सांस्कृतिक मूल्यों पर टिकी होती है। जब पत्रकारिता सरकार के प्रचार में बदल जाती है, साहित्य सत्ता की चापलूसी करने लगता है, और मनोरंजन उद्योग केवल व्यभिचार, नशा और जुए को बढ़ावा देने लगता है, तो समाज नैतिक और बौद्धिक रूप से खोखला हो जाता है। यह एक गंभीर संकट है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर पत्रकार सत्ता से सवाल पूछना बंद कर दें, साहित्यकार केवल प्रशंसा में कसीदे गढ़ने लगें, और सिनेमा-संगीत सिर्फ उपभोक्तावाद और अपसंस्कृति का वाहक बन जाए, तो लोकतंत्र का पतन निश्चित है।
हमें यह तय करना होगा कि हम किस ओर खड़े हैं—सत्ता की गोदी में बैठे उन लोगों के साथ जो तानाशाही को बढ़ावा दे रहे हैं या उन लोगों के साथ जो सच्चाई और लोकतंत्र की रक्षा के लिए अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं। अगर हम सच बोलने का साहस नहीं रखते, तो हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि आने वाली पीढ़ियाँ एक निष्प्राण, विवेकहीन और पराधीन समाज में जीने के लिए मजबूर होंगी। सवाल यह है—क्या हम यह सब चुपचाप देखते रहेंगे, या फिर अपने विवेक और साहस के साथ सही दिशा में खड़े होंगे?
Click on the link गोदी मीडिया क्या है सत्ता पक्ष और गोदीमीडिया पढ़िए एक समग्र विश्लेषण।
– अभिषेक कान्त पांडेय
पत्रकारिता एवं जनसंचार में परास्नातक
वर्तमान में शिक्षण एवं लेखन कार्य में संलग्न

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