जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति, कौन किसके वंशज – भाग चार

Amit Srivastav

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जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति, कौन किसके वंशज - भाग एक दो तीन चार

अमित श्रीवास्तव

पने पूर्वजों की उत्पत्ति और उनका इतिहास हर किसी को जानना चाहिए। देश के भावी भविष्य को अपने पिछले सात पीढ़ी व उनका इतिहास यदा-कदा ही ज्ञात है, किसके कुल के वंशज हैं इतना भी पता नहीं, गोत्र क्या है? और किससे मिला जानते भी नहीं।

जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति, कौन किसके वंशज - भाग चार

इतना रोचक और हमें गौरवान्वित कराने वाला हमारे पूर्वजों का इतिहास हमें
सन्मार्ग प्रदान करने वाला है किन्तु ऐसे-ऐसे सनातन इतिहास को अपने इतिहास के
पन्नों से दूर रखा गया है। देश के भावी भविष्य को ऐसे इतिहास का अध्ययन कराना
हमारे सनातन रक्षकों सरकार और शिक्षा विभाग की जिम्मेदारी बनती है। 

वामपंथियों ने शिक्षा का ध्वस्तिकरण 1984 द्वारा सनातन इतिहास को ज्यादातर लुप्त कर दिया।
ऋषि मुनियों देव तुल्य पूर्वजों की भावी सात्विक विचार युक्त वंशों के
दिमाग में मलेच्छ वंश का इतिहास भर हमारे सात्विकता को भी समाप्त करते करते
आने वाली पीढ़ी को मलेच्छ ही बनाया जा रहा है। तुर्वस और द्रुह्यु से ही
यवन और मलेच्छों का वंश चला।
इस तरह यह इतिहास सिद्ध है कि ब्रह्मा के एक पु‍त्र
अत्रि के वंशजों ने ही कबीले के तहत यहुदी, यवनी और पारसी धर्म की स्थापना
की थी। इन्हीं में से ईसाई और इस्लाम धर्म का जन्म हुआ। माना जाता है कि
यहुदियों के जो बारह कबीले थे उनका संबंध द्रुह्मु से ही था।
प्रचेता के सौ पुत्र जो निष्कासित किए गए वे सागर पार रेगिस्तान में
म्लेच्छ राज्य स्थापित किए….. रावण कि बहन सुर्पनखा नाक-कान कटने के बाद
गुरु शुक्लाचार्य के संरक्षण में चली गई राक्षश वंश समाप्त न हो
शुक्लाचार्य ने शिव अराधना कर शिव से उनके स्वरूप आत्म शिवलिंग प्राप्त
किया और उस शिवलिंग की स्थापना रेगिस्तान के मक्का मदीना में किया।

शिव
द्वारा प्रदान आत्मलिंग पर वैष्णव समाज मतलब हिन्दुओं द्वारा पवित्र गंगाजल
का चढ़ावा वर्जित है यह माना जाता है वैष्णव समाज से किसी के द्वारा गंगाजल
से अभिषेक के बाद इस्लाम कबीले का खात्मा हो सकता है। इन्हीं कबीले से
बाबर, हुमायू, औरंगजेब अनेक मुस्लिम शासकों ने अपने कबीले को सनातन से तोड़
कर बढ़ाया, जिन्हें सूनी मुसलमान कहा जाता है।

इस्लाम कोई धर्म नहीं एक कबीला ही है और इनके नियम असल में एक दिनचर्या है
मुल इस्लाम कबीले वाले दैत्य गुरु शुक्लाचार्य को सम्मान देते हैं। यह
इतिहास एक शोध का विषय है। अनेकों धर्म ग्रंथों का अध्ययन के बाद मुझे
सनातन धर्म के अलावा न कोई धर्म मिला न जाती, कर्म के अनुसार चार वर्णो का
विभाजन हुआ है जो जैसे कर्म में लगा उसे वैसा सम्बोधन मिला और आज उसी
सम्बोधन को जाती के रूप में माना जाता है, जो सर्वदा अनुचित है। आदिशक्ति
जगत जननी महामाये की कृपा पात्र ब्रह्माजी के काया से उत्पन्न भगवान
चित्रगुप्त जी के हम वंशज अमित श्रीवास्तव कायस्थ अपनी कर्म-धर्म लेखनी को
आगे बढ़ाते हुए अब आते हैं मुल मुद्दे पर कौन किसके वंशज, जानिए अपने
पूर्वजों की उत्पत्ति भाग एक, दो, तीन के बाद भाग चार को तमाम धर्म ग्रंथों
के आधार पर समाज के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं।
भाग चार में तेरहवां प्राचीन वंश…
पराशर वंश – शक्ति के पुत्र पराशर मुनि महर्षि वशिष्ठ के पौत्र,
गोत्रप्रवर्तक, वैदिक सूक्तों के दृष्टा और ग्रंथकार हैं। ऋषि पराशर के पिता
का देहांत इनके जन्म के पूर्व हो चुका था अतः इनका पालन-पोषण इनके पितामह
वशिष्ठजी ने किया था। इनकी माता का नाम अदृश्यंति था, जो कि उथ्त्य मुनि की
पुत्री थी। पराशर के पुत्र ही कृष्ण द्वैपायन- वेदव्यास थे जिन्होंने महाभारत
लिखी थी।
सत्यवती जब कुंवारी थी, तब वेदव्यास ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। बाद
में सत्यवती ने हस्तिनापुर महाराज शांतनु से विवाह किया। शांतनु के पुत्र
भीष्म थे, जो गंगा के आठवें गर्भ से जन्मे थे। सत्यवती के शांतनु से दो
पुत्र हुए चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद युद्ध में मारा गया जबकि
विचित्रवीर्य का विवाह भीष्म ने काशीराज की पुत्री अम्बिका और अम्बालिका से
कर दिया, लेकिन विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हो रही थी तब चिंतित
सत्यवती ने अपने पराशर मुनि से उत्पन्न पुत्र वेदव्यास को बुलाया और उन्हें
यह जिम्मेदारी सौंपी कि अम्बिका और अम्बालिका को कोई पुत्र मिले।
अम्बिका से धृतराष्ट्र और अ‍म्बालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी
से विदुर का। इस तरह देखा जाए तो पराशर मुनि के वंश की एक शाखा यह भी थी।
धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी थी जिनके सौ पुत्र थे। दासी पुत्र विदुर की
पत्नी यदुवंशी थी जिसका नाम सुलभा था। पांडु का वंश नहीं चला। पांडु की दो
पत्नियां कुंती और माद्री थीं। पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की
जिसमें से ज्योतिष के ऊपर लिखे गए उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण रहे।
ज्योतिष के होरा, गणित और संहिता तीन अंग हुए जिसमें होरा सबसे अधिक
महत्वपूर्ण है। होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है। ऋषि
पराशर के विद्वान शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तुमुनि और रोम हर्षण
थे।
चौदहवां प्राचीन वंश…
कात्यायन वंश – ऋषि कात्यायन की पुत्री ही कात्यायनी थी। यह नवदुर्गा में से
एक देवी कात्यायनी है। कात्यायन ऋषि को विश्वामित्रवंशीय कहा गया है।
स्कंदपुराण के नागर खंड में कात्यायन को याज्ञवल्क्य का पुत्र बतलाया गया है।
उन्होंने श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र आदि की रचना की थी। हम ऊपर विश्वामित्र और
उनके वंश के बारे में लिख चुके हैं, जो एक मैत्रेय गोत्र आता है वह भी
विश्वामित्र से संबंधित है।
पंद्रहवां प्राचीन वंश…
शाण्डिल्य वंश – शाण्डिल्य मुनि कश्यप वंशी महर्षि देवल के पुत्र थे। वे
स्मृति के परिचित रचयिताओं शंख और लिखित के पिता भी हैं। हालांकि शाण्डिल्य के
बारह पुत्र बताए गए हैं जिनके नाम से कुलवंश परंपरा चली। महर्षि कश्यप के पुत्र
असित, असित के पुत्र देवल मंत्र दृष्टा ऋषि हुए। इसी वंश में शांडिल्य उत्पन्न
हुए। मत्स्य पुराण में इनका विस्तृत विवरण मिलता है। महाभारत अनुशासन पर्व के
अनुसार युधिष्ठिर की सभा में विद्यमान ऋषियों में शाण्डिल्य का नाम भी है।
उन्हें त्रेतायुग में राजा दिलीप का राजपुरोहित बताया गया है, वहीं द्वापर में
वे पशुओं के समूह के राजा नंद के पुजारी हैं। एक समय में वे राजा त्रिशंकु के
पुजारी थे तो दूसरे समय में वे महाभारत के नायक भीष्म पितामह के साथ वार्तालाप
करते हुए दिखाए गए हैं। कलयुग के प्रारंभ में वे जन्मेजय के पुत्र शतानीक के
पुत्रेष्ठित यज्ञ को पूर्ण करते दिखाई देते हैं। इसके साथ ही वस्तुत: शाण्डिल्य
एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं लेकिन कालांतार में उनके नाम से उपाधियां शुरू हुईं
जैसे वशिष्ठ, विश्‍वामित्र और व्यास नाम से उपाधियां होती हैं।
सोलहवां प्राचीन वंश…
धौम्य वंश – देवल के भाई और पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि, जो महाभारत के
अनुसार व्यघ्रपद नामक ऋषि के पुत्र थे, शिव की तपस्या करके ये अजर, अमर और
दिव्य ज्ञान संपन्न हो गए। धौम्य के आरुणि, उपमन्यु और वेद नामक तीन शिष्य थे।
आरूणि उद्दालक की कथा जगत प्रसिद्ध है। धौम्य का पूरा नाम आपोद धौम्य था। धौम्य
कश्यप के वंश के थे। धौम्य वंश में लायसे, भरतवार, घरवारी, तिलमने, शुक्ल,
व्रह्मपुरि, आत्मोती, मौरे, चंदपेरखी आदि अनेक नाम से गोत्र नाम हुए।
सत्रहवां प्राचीन वंश… 
दक्ष वंश – पुराणों के अनुसार दक्ष प्रजापति परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे, जो
कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थीं-
प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की चौबीस कन्याएं थीं और वीरणी से साठ
कन्याएं। इस तरह दक्ष की चौरासी पुत्रियां थीं। समस्त देव, दैत्य, गंधर्व,
अप्सराएं, पक्षी, पशु, लता, जीव-जंतु ज्यादातर इन्हीं कन्याओं से उत्पन्न हुई।
दक्ष की ये सभी कन्याएं देवी, यक्षिणी, पिशाचिनी आदि कहलाईं। उक्त कन्याओं और
इनकी पुत्रियों को ही किसी न किसी रूप में पूजा जाता है। सभी की अलग-अलग
कहानियां हैं।
दक्ष प्रजापति पत्नी प्रसूति की चौबीस पुत्रियों में से तेरह पुत्रियों का
विवाह धर्म से हुआ। इसके अलावा धर्म से दक्ष पत्नी वीरणी की दस कन्याओं का
विवाह हुआ। इस प्रकार धर्म से दक्ष की तेईस पुत्रियों का विवाह हुआ। प्रजापति दक्ष ने अपने बड़े भाई ऋषि 
मरीचि के योग बल से उत्पन्न पुत्र महर्षि
कश्यप से अपनी तेरह कन्याओं का विवाह किया। महर्षि कश्यप से तेरह कन्याओं के विवाह समारोह में सभी देवी-देवताओं चन्द्रमा सहित पिता अत्रि ऋषि माता अनुसुइया को भी बुलाया था।

नियति के अनुसार दक्ष पुत्री रोहिणी को चंदमा से एवं ऋषि अत्रि पुत्र चन्द्रमा को रोहिणी से प्रेम हो गया था। दक्ष प्रजापति ने अपनी सत्ताइस पुत्रियोंं का विवाह चन्द्रमा से तय किया जबकि चंदमा को अन्य छब्बीस पत्नियों से ज्यादा लगाव नहीं था। सभी बहनें रोहिणी से द्वेष करते हुए विवाद करने लगीं और इसकी शिकायत दक्ष प्रजापति से कर दीं।

प्रजापति दक्ष क्रोधित हो चन्द्रमा को गल-गल के मर जाने की श्राप दे दिया। रोहिणी ने अपने शिव भक्ति से शिव को प्रसन्न किया और अपने पति चन्द्रमा की जीवन दान मांगी। शिव जी ने प्रजापति दक्ष के श्राप का मान रखते चन्द्रमा को जीवन दान दिया। कृष्ण पक्ष में गल-गल अमावस्या को पूरी तरह खत्म हो जाते हैं यह प्रजापति दक्ष की श्राप से होता है और शुक्ल पक्ष प्रथमा से शिव के वर्दान स्वरूप जीवन दान पा पूर्णिमा को पूर्ण हो जाते हैं। चन्द्रमा की सत्ताइस पत्नियां ही सत्ताइस नक्षत्र के रूप में अंत काल तक रहेेंगी। चन्द्रमा की माता अनुसुइया अपनी पतिव्रत धर्म के कारण सुविख्यात थी सतित्व का परिक्षा लेने आये त्रिदेवों को बालक रुप प्रदान कर त्रीदेवीयों को भी अपने आगे झुकने पर मजबूर कर दी।

दक्ष ने अपनी नौ कन्याओं का
विवाह- रति का कामदेव से, स्वरूपा का भूत से, स्वधा का अंगिरा प्रजापति से,
अर्चि और दिशाना का कृशश्वा से, विनीता, कद्रू, पतंगी और यामिनी का तार्क्ष्य
कश्यप से किया। पुराणों की एक अन्य मान्यता के अनुसार दक्ष के प्रसूति नाम की
पत्नी से सोलह कन्याएं हुई थीं। इनमें से तेरह को उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को
दी अत: वे ब्रह्मा के श्वसुर भी बन गए। उन्होंने स्वाहा पुत्री का विवाह
अग्निदेव से किया। दक्ष की सबसे छोटी पुत्री सती थी,
जो त्र्यंबक रुद्रदेव को
ब्याही गई। दक्ष की कथा विस्तार से भागवत आदि अनेक पुराणों में वर्णन की गई
है।
दक्ष के पुत्रों की दास्तान – सर्वप्रथम उन्होंने अरिष्ठा से दस सहस्र हर्यश्व
नामक पुत्र उत्पन्न किए थे। ये सब समान स्वभाव के थे। पिता की आज्ञा से ये
सृष्टि के निमित्त तप में प्रवृत्त हुए, परंतु देवर्षि नारद ने उपदेश देकर
उन्हें विरक्त बना दिया। विरक्त होने के कारण उन सब ने विवाह नहीं किया। वे सभी
ब्रह्मचारी रहे। दूसरी बार दक्ष ने एक सहस्र शबलाश्व – सरलाश्व, नामक पुत्र
उत्पन्न किए। ये भी देवर्षि के उपदेश से यति हो गए। दक्ष को क्रोध आया और
उन्होंने भ्राता देवर्षि को शाप दे दिया- तुम दो घड़ी से अधिक कहीं स्थिर न रह
सकोगे। इनके पुत्रों का वर्णन ऋग् 10-143 में तथा इन्द्र द्वारा इनकी रक्षा ऋग्
1-15-3 में आश्विनी कुमारों द्वारा इन्हें बृद्ध से तरुण किए जाने का कथन ऋग्
10-143-1 में है। राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे तथा प्रायश्चित
स्वरूप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उन्हीं से उनका वंश चला।
विष्णु पुराण 4.1.14 में वर्णित है।
दक्ष गोत्र के प्रवर- गोत्रकार ऋषि के गोत्र में आगे या पीछे जो विशिष्ट
सम्मानित या यशस्वी पुरुष होते हैं, वे प्रवरीजन कहे जाते हैं और उन्हीं से
पूर्वजों को मान्यता यह बतलाती है कि इस गोत्र के गोत्रकार के अतिरिक्त और भी
प्रवर्ग्य साधक महानुभाव हुए हैं। दक्ष गोत्र के तीन प्रवर हैं- आत्रेये,
गाविष्ठर और पूर्वातिथि।
अठारहवां प्राचीन वंश…
वत्स – वात्स्यायन वंश – वत्स गोत्र या वंश के प्रवर्तक भृगुवंशी वत्स ऋषि थे।
भारत के प्राचीनकालीन सोलह जनपदों में से एक जनपद का नाम वत्स था। वत्स
साम्राज्य गंगा-यमुना के संगम पर वर्तमान नाम प्रयाग, इलाहाबाद से
दक्षिण-पश्चिम दिशा में बसा था जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। पाली भाषा में वत्स
को वंश और तत्सामयिक अर्धमगधी भाषा में वच्छ कहा जाता था। चतुर्भुज चौहान वंशी
भी वत्स वंश से हैं। वत्स वंश अग्निवंश से भी संबंध रखता है। एक कथा के अनुसार
महर्षि च्यवन और महाराज शर्यातपुत्री सुकन्या के पुत्र राजकुमार दधीचि की दो
पत्नियां सरस्वती और अक्षमाला थीं। सरस्वती के पुत्र का नाम सारस्वत पड़ा और
अक्षमाला के पुत्र का नाम पड़ा वत्स। युगोपरांत कलयुग आने पर वत्स वंश संभूत
ऋषियों ने वात्स्यायन उपाधि भी रखी। कालक्रमेण कलयुग के आने पर वत्स कुल में
कुबेर नामक तपस्वी विद्वान पैदा हुए। कुबेर के चार पुत्र- अच्युत, ईशान, हर और
पाशुपत हुए। पाशुपत को एक पुत्र अर्थपति हुए। अर्थपति के एकादश पुत्र भृगु,
हंस, शुचि आदि हुए जिनमें अष्टम थे चित्रभानु। चित्रभानु के वाण हुए। यही वाण
बाद में वाणभट्ट कहलाए। भृगु के च्यवन, च्यवन के आपन्वान, आपन्वान के ओर्व,
ओर्व के ऋचीक, ऋचिक के जमदग्नि हुए। इसी वंश में आगे चलकर ऋषि वत्स हुए।
इन्होंने अपना खुद का वंश चलाया इसलिए इनके कुल के लोग वत्स गोत्र रखते
हैं।वत्स गोत्र में कई उपाधियां थीं यथा- बालिगा, भागवत, भैरव, भट्ट, दाबोलकर,
गांगल, गार्गेकर, घाग्रेकर, घाटे, गोरे, गोवित्रीकर, हरे, हीरे, होले, जोशी,
काकेत्कर, काले, मल्शे, मल्ल्या, महालक्ष्मी, नागेश, सखदेव, शिनॉय, सोहोनी,
सोवानी, सुग्वेलकर, गादे, रामनाथ, शंथेरी, कामाक्षी आदि।
उन्नीसवां प्राचीन वंश… 
चित्रगुप्त वंश – चित्रगुप्त जी के बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं।
चित्रगुप्त जी यमलोक के न्यायाधीश हैं। गरूड़ पुराण में यमलोक के निकट ही
चित्रलोक की स्थिति बताई गई है। जो चित्रगुप्त जी का स्थान है। श्रृष्टि में
उत्पन्न सभी के कर्म फल के अनुसार न्याय डंड निर्धारित करने सभी को कर्म के
अनुसार अगला योनी देने कहने का तात्पर्य ब्रह्मा जी द्वारा श्रृष्टि के विकास
में योगदान, सम्पूर्ण लेखा-जोखा रखने का कार्य ब्रह्मा जी के काया से उत्पन्न
भगवान चित्रगुप्त जी का है। ब्रह्माजी की काया से उत्पन्न होने के कारण
इन्हें कायस्थ भी कहा जाता है। कायस्थ समाज के लोग ब्राह्मण वर्ग से भी
श्रेष्ठ होते हैं। कायस्थ समाज के लोग भाईदूज के दिन श्री चित्रगुप्त जयंती
मनाते हैं। भाईदूज के दिन कायस्थ कलम-दवात पूजा करते हैं जिसमें पेन, कागज और
पुस्तकों की पूजा होती है। यह वह दिन है, जब भगवान श्री चित्रगुप्त का उद्भव
ब्रह्माजी के द्वारा हुआ था। चित्रगुप्त भगवान एक प्रमुख हिन्दू देवता हैं।
वेदों और पुराणों के अनुसार श्रृष्टि में सभी के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा व
कर्म के अनुसार डंड फल निर्धारित करने वाले चित्रगुप्त जी ही हैं।
आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि हमारे मन में जो भी विचार आते हैं
वे सभी चित्रों के रुप में होते हैं। भगवान चित्रगुप्त इन सभी विचारों के
चित्रों को गुप्त रूप से संचित करके रखते हैं अंत समय से ये सभी चित्र
दृष्टिपटल पर रखे जाते हैं एवं इन्हीं के आधार पर जीवों के पारलोक व
पुनर्जन्म का निर्णय चित्रगुप्त के बताए आंकड़ों के अनुसार यमराज करते हैं।
विज्ञान ने यह भी सिद्ध किया है कि मृत्यु के पश्चात जीव का मस्तिष्क कुछ
समय कार्य करता है और इस दौरान जीवन में घटित प्रत्येक घटना के चित्र
मस्तिष्क में चलते रहते हैं। इसे ही कई हजारों बर्षों पूर्व हमारे वेदों
में लिखा गया है। जिस प्रकार शनि देव सृष्टि के प्रथम दण्डाधिकारी हैं
चित्रगुप्त सृष्टि के प्रथम लेखापाल हैं। मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात,
पृथ्वी पर उनके द्वारा किए गये कार्यों के आधार पर उनके लिए स्वर्ग या नरक
का निर्णय लेने का अधिकार यमराज के पास है। अर्थात किस को स्वर्ग मिलेगा और
कौन नर्क मेंं जाएगा ? इसका निर्धारण धर्मराज- यमराज, चित्रगुप्त जी के
द्वारा दिये गये आंकड़ों के आधार पर ही करते हैं। चित्रगुप्त जी भारत –
आर्यावर्त के कायस्थ कुल के इष्ट देवता हैं। वेद-पुराणों के अनुसार
चित्रगुप्त को कायस्थों का इष्टदेव बताया जाता है। मंत्र- ॐ यमाय धर्मराजाय
श्री चित्रगुप्ताय वै नमः। अस्त्र- लेखनी एवं तलवार। जीवनसाथी- नंदनी,
शोभावती। विभिन्न पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान ब्रह्मा की कई विभिन्न
संताने थीं, जिनमें ऋषि वशिष्ठ, नारद और अत्री जो उनके मन से पैदा हुए, और
उनके शरीर से पैदा हुए कई पुत्र, जैसे धर्म, भ्रम, वासना, मृत्यु और भरत
सर्व वीदित हैं लेकिन चित्रगुप्त के जन्म अवतरण की कहानी भगवान ब्रह्मा जी
के अन्य सन्तानों से कुछ भिन्न हैंं हिन्दू मान्यताओं के अनुसार परमपिता
ब्रह्मा के पहले तेरह पुत्र ऋषि हुए और चौदहवे पुत्र श्री चित्रगुप्त जी
देव हुए। भगवान चित्रगुप्त जी के विषय में स्वामी विवेकानंद जी कहते है कि
मैं उस भगवान चित्रगुप्त की संतान हूँ जिनको पूजे बिना ब्राह्मणों की
मुक्ति नही हो सकती। ब्राह्मण ऋषि पुत्र है और कायस्थ देव पुत्र। श्रीराम
चन्द्र के राज्याभिषेक में चित्रगुप्त जी को निमंत्रण पत्र न भेजने की भूल
हुई थी तब चित्रगुप्त जी भगवान राम की महिमा जान अपनी कलम को राज्याभिषेक
दीपावली की रात को रख दिया श्रृष्टि का संचालन प्रभावित होते देख राजा
रामचंद्र जी अपने गुरुजनों सहित आवाह्न किया ब्राह्मण से ऊंचा उचित स्थान
देते हुए ब्राह्मणों से भी दान लेने का अधिकार दिया। ग्रंथों में
चित्रगुप्त जी को महाशक्तिमान राजा के नाम से सम्बोधित किया गया है।
ब्रह्मदेव के सत्रह मानस पुत्र होने के कारण वश चित्रगुप्त जी ब्राह्मण
माने जाते हैं इनकी दो शादिया हुई, पहली पत्नी सूर्यदक्षिणा/नंदनी जो
ब्राह्मण कन्या थी, इनसे चार पुत्र हुए जो भानू- श्रीवास्तव, विभानू-
सूरजध्वज, विश्वभानू- निगम और वीर्यभानू-कुलश्रेष्ठ कहलाए।

दूसरी पत्नी
एरावती/शोभावति ऋषि कन्या थी, इनसे आठ पुत्र हुए जो चारु- माथुर, चितचारु-
कर्ण, मतिभान- सक्सेना, सुचारु- गौड़, चारुण- अष्ठाना, हिमवान- अम्बष्ट,
चित्र- भटनागर और अतिन्द्रिय-वाल्मीकि कहलाए। चित्रगुप्त जी के बारह
पुत्रों का विवाह नागराज वासुकि की बारह कन्याओं से हुआ जिससे कि कायस्थ
वंशजों का ननिहाल नागलोक माना जाता है। माता नंदनी के चार पुत्र कश्मीर में
जाकर बसे तथा शोभावति के आठ पुत्र गौड़ देश के आसपास बिहार, ओडिशा तथा
बंगाल में जा बसे। बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था। कश्मीर में दुर्लभ
बर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल कायस्थ वंश, गुजरात में बल्लभी
कायस्थ राजवंश, दक्षिण में चालुक्य कायस्थ राजवंश, उत्तर भारत में देवपाल
गौड़ कायस्थ राजवंश तथा मध्यभारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ राजवंश सत्ता
में रहे हैं। कायस्थों को मूलत: बारह उपवर्गों में विभाजित किया गया है।
जिनका वर्णन ऊपर कर चुका हूँ।

बीसवां प्राचीन वंश… 
पुलस्त्य, पुलह एवं क्रतु का वंश- कर्दम प्रजापति की कन्या हविर्भुवा से
पुलस्त्य का विवाह हुआ था। इन्हें दक्ष का दामाद और शिवशंकर का साढू भी बताया
गया है। दक्ष के यज्ञ ध्वंस के समय ये जलकर मृत्यु को प्राप्त हो गए थे।
वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के सभी मानस पुत्रों के साथ पुलस्त्य का भी
पुनर्जन्म हुआ था। वैशाली के राजा की कन्या इडविला का पुलस्त्य से विवाह हुआ और
उसने विश्वश्रवा नामक पुत्र को जन्म दिया। विश्वश्रवा पश्चिम नर्मदा के किनारे
रहते थे। इस विश्वश्रवा के पुत्र ही रावण थे। पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से
निवेदन करके लंका में अपना एक तप स्थान नियुक्त किया था, तब राजा महिदंत
चक्रवर्ती राजा थे। ब्रह्माजी की आज्ञा से पुलस्त्य ऋषि ने भीष्म को ज्ञान दिया
था। पुलस्त्य ऋषि ने ही गोवर्धन पर्वत को शाप दिया था। गोवर्धन पर्वत को
गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत तीस हजार
मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब लगभग तीस मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप
के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण
ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। गोवर्धन पर्वत मथुरा से लगभग बाइस
किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
पुलह ऋषि- विश्व के सोलह प्रजापतियों में पुलह ऋषि का भी नाम आता है। इन्होंने
महर्षि कर्दम की पुत्रियों तथा दक्ष प्रजापति की पांच बेटियों से विवाह रचाए।
उनसे संतानें पैदा कीं। इनकी संतानें अनेक योनि व जातियों की हैं। इनके गुरु
सनंदन और इनके शिष्य महर्षि गौतम थे।
क्रतु ऋषि :
क्रतु ऋषि भी सोलह प्रजापतियों में से एक हैं। दक्ष प्रजापति की पत्नी
क्रिया से उत्पन्न पुत्री सन्नति से क्रतु ऋषि ने विवाह किया। इस दंपति से
साठ हजार ‘बालखिल्य’ नाम के पुत्र भी हुए। इन बालखिल्यों का आकार अंगूठे के
बराबर माना जाता है। पुराणों के अनुसार बालखिल्य मुनियों के वरदान से ही
महर्षि कश्यप के यहां गरूड़ का जन्म हुआ। यही गरूड़ विष्णु का वाहन बने
थे।
क्रतु ऋषि ही बाद में वेदव्यास हुए जिनका वर्णन वाराहकल्प में आता है। व्यास
एक पदवी है। जो धर्मग्रंथों को फिर से संपादित कर पुनर्जीवित करे, उसे वेदव्यास
कहते हैं। महाभारतकाल में जो वेदव्यास थे उनका नाम कृष्ण द्वैपायन था। ध्रुव के
आसपास एक तारा चक्कर लगाता है, उसे क्रतु ही कहा जाता है।
राक्षस वंश-
वायु पुराण 70.51.65 में राक्षसों को पुलह, पुलस्त्य, कश्यप एवं अगस्त्य
ऋषि की संतान माना गया है। दैत्यों में से हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष का
स्वतंत्र वंश वर्णन है। पौराणिक साहित्य में असुर- दैत्य, दानव एवं राक्षस
जातियों का वर्णन मिलता है, जो सभी कश्यप ऋषि की संतानें हैं।
वानर वंश- ब्रह्मांड पुराण में वानरों को पुलह एवं हरिभद्रा की संतान कहा गया
है और इनके ग्यारह प्रमुख कुल दिए गए हैं- द्वीपिन्, शरभ, सिंह, व्याघ्र, नील,
शल्वक, ऋक्ष, मार्जार, लोभास, लोहास, मायाव।
इक्कीसवां प्राचीन वंश… 
नारद वंश- ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक नारद मुनि के बारे में सभी
जानते हैं। विष्णु के भक्त नारद मुनि को देवर्षि कहा गया है। नारद को
बृहस्पति का शिष्य भी माना गया है। वे व्यास, वाल्मीकि और शुकदेव के गुरु थे।
वराह पुराण में नारदजी को उनके पूर्व जन्म में सारस्वत नामक एक ब्राह्मण
बताया गया है। नारद पुराण में नारदजी के बारे में संपूर्ण जानकारी मिलती है।
नारदजी को विश्व का पहला पत्रकार पोस्टमैन माना गया है, जो निर्भयता पूर्वक
सूचनाओं का आदान- प्रदान करते रहे। यह भी लिखा गया है कि वीणा का आविष्कार
नारदजी ने ही किया था। नारदजी ने ही गीत और भजन का भी आविष्कार किया था।
नारदजी के कारण ही प्रभु की भक्ति के भिन्न-भिन्न रूप प्रचलित हुए। नारदजी
प्रजापति दक्ष के भ्राता हैं और दक्ष प्रजापति को सती व शिव को आमंत्रित करने
के लिए प्रेरित किए जब दक्ष प्रजापति ने नारदजी की बात नही माना और नारदजी को
भी अपमानित किया तब नारद मुनि ने विनाश काले विपरीत बुद्धि नारायण नारायण कह
चले गए और हम पत्रकारों के प्रथम गुरु नारदजी भ्राता दक्ष के यज्ञ में नहीं
गए थे। स्त्री स्वरूपा आदिशक्ति की इच्छा के मुताबिक ही श्रृष्टि का संचालन
होता है। श्रृष्टि की आदी और अंत जगत जननी आदिशक्ति महामाये तुमको मैं
बारम्बार प्रणाम करता हूँ। कौन किसके वंशज जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति
भाग चार के साथ इस विषय वस्तु पर भगवान चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव लेखनी को विराम देता हूं। हर प्राणी को इस
प्रकार के इतिहास का अध्ययन करना और जानना चाहिए।

 

5 thoughts on “जानिए अपने पूर्वजों की उत्पत्ति, कौन किसके वंशज – भाग चार”

  1. पूर्वजो की उत्पत्ति भाग एक से चार, 1 से 21 वी वंशज तक अपनी कलम से आप सबके समक्ष प्रस्तुत किया। अधिक से अधिक लोगों को शेयर करें ताकि समुचित जानकारी सबको प्राप्त हो निवेदक – भगवान चित्रगुप्त वंशज अमित श्रीवास्तव ।।

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