विन्दू का जन्म देवों की नगरी जनपद देवरिया के बंजरिया गांव में एक सवर्ण परिवार में हुआ था। खुबसूरती की जीतीं जागती मिशाल चांद से भी अधिक खूबसूरत विंन्दू मां-बाप की पांचवी सबसे छोटी संतान थी। परिवार की शुरुआती आर्थिक स्थिति बहुत ठीक नही थी। मां गृहणी और पिता अपनी खेती-किसानी करते थे। खेती में हुई ऊपज से घर-गृहस्थी चलती थी। बंजरिया गांव में विन्दू की मां, की बड़ी बहन, मौसी के घर से भरपूर सहयोग मिलता था। बड़े चार, भाईयों व बहन के पढ़ाई-लिखाई का अतिरिक्त बोझ ज्यादातर मौसा-मौसी के यहां से सम्भल जाता था। जब कभी कुछ भी जरूरत लगती मां की बड़ी बहन मौसी व मौसेरे भाई रमेश व निधि भाभी दिया करती थी। बड़े भाई महेश की पढ़ाई पूरी होने के बाद जब फौज की नौकरी मिली तब धीरे-धीरे घर की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी और भाई-बहन कि पढ़ाई-लिखाई सुचारू रूप से चलने लगा। विंन्दू की उम्र लगभग 15 का हुआ तब तक महेश से छोटे दो भाई धन्नू और गोलू भी एक बड़े शहर के प्राइवेट नौकरी में चले गए। तब घर में विंन्दू, बड़ी बहन अंजू और माता-पिता रहते थे। विन्दू को अपने बचपन से ही सोते-जागते लगता था, कोई मेरे इन्तज़ार में भटक रहा है, जिसकी उसे भी तलाश है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, अपने उस साथी का इन्तज़ार बढ़ता जा रहा था, जो हर-पल ख्यालों में रहता था।
एक झलक देखने के लिए हर-पल बेचैन रहती थी, सोचती थी… आखिर कौन और कहां है जो मन में बसा दिल को बेचैन किए हुए है। बचपन से ही विन्दू के सपनों में आता प्रेमी दद्दू, याद आती पिछले जनम की अधूरी मुलाकात, कुछ किसी से कहती भी नही थी। गहरे सोच में खो जाती और आंखें बंद करती तो पिछले जन्म की प्रेमालाप दृश्य पटल पर आने लगता था। धीरे-धीरे विंन्दू पांच साल की हो गई तब प्राइमरी स्कूल के कक्षा एक मे नामांकन हुआ। स्कूल पढ़ने जाने लगी तो कक्षा में हम उम्र सहेलियाँ मिल गई। सहेलियों में सबसे प्रिय अपने गांव की सामने मकान वाली पड़ोसी मालती शर्मा थी…
जो विंन्दू से खूब बातें करती थी। जब कभी-कभी मालती, विंन्दू को गहरे सोच में देखती तो पूछ देती… कहां खो गई हो, तो अचानक अपने कार्य में लग विन्दू कहती, नही वैसे ही ध्यान कहीं और चला गया था। कुछ समय बाद विंन्दू अपनी सपनों और मन की बात मालती से बताने लगी, दोनों आपस में बात-चीत कर अपने तक सिमित रखतीं। बंजरिया गांव में, सबसे सम्पन्न परिवार में विन्दू की मां की बहन अपनी मौसी थी, जिनके पास खेती भी ज्यादा और पहले से ही परिवार में सरकारी नौकरी भी थी। मौसी के घर विंन्दू के माता-पिता सहित सबका आना-जाना रहना ज्यादा रहता था। किसी चीज की कमी होने पर बेहिचक मिल जाती थी। मां और मौसी की आपस में बहुत पटती थी, वैसे ही विंन्दू के पिता का ख्याल शुरू से मौसा भी रखते थे। मौसी का परिवार विंन्दू के माता-पिता, भाई-बहन को भरपूर मदद करने में कभी पीछे नहीं हटे। ज्यादातर मौसा-मौसी के घर बने एक ही चुल्हे का पकवान दोनों परिवार खुशी-राजी खाते थे। विंन्दू के मौसेरे बड़े भाई रमेश की दो बेटियां एक बड़ी रेनू जो प्राथमिक से जूनियर विद्यालय में दूसरी अभी प्राथमिक विद्यालय कक्षा तीसरी में पढ़ने जाती थी। जो विंन्दू से थोड़ी बड़ी रिस्ते में भतीजी लगती थीं, सभी आपस में प्रेम करती थी। समय धीरे-धीरे बिता जा रहा था और मिलने की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। विंन्दू नौ साल की उम्र, कक्षा चौथी में चली गई, तब मौसेरा भाई रमेश से भाभी निधि को एक खुबसूरत पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र को जन्म लेते ही विंन्दू बहुत उत्साहित थी, विंन्दू के सपनों का अपना राजकुमार जो था।
अब विंन्दू का सपना अलग मोड़ ले रहा था, विंन्दू को नवजात शिशु में अपने प्रियतम प्रेमी कि छवि नज़र आने लगी। विंन्दू अब न स्कूल जाती न अपने घर, दिन रात अपनी भाभी निधि के पास चिपके रहती और नवजात शिशु का देखभाल करती रहती थी। जब भी मौका मिलता भाभी से प्रेमी भतीजे को गोद में ले प्यार दुलार करती कभी अपने सीने से लगाती तो कभी प्यार से होठों, गालों, कपाल, गर्दन आदि अंगो को चुमती। धीरे-धीरे विंन्दू का मन नन्हे से बच्चें में इतना रम गया कि जैसे उस बच्चे की मां निधि नही विंन्दू ही हो। नन्हे से अपने प्रियतम प्रेम को एक पल भी अलग नहीं करती। जब कभी भाभी, भतीजी या कोई बच्चें को ले लेता तो रोने लगती, जब तक बच्चें को ले नही लेती चुप भी नही होती। इतना प्यार और ममता मां में भी नही जितना विंन्दू में दिखाई देती थी। नन्हे बच्चे के प्रति विंन्दू के आकर्षण का पता एकमात्र विंन्दू की सहेली मालती शर्मा को था, वो भी किसी से कुछ नहीं बताती थी। कभी-कभी विंन्दू से मिलने के बहाने आती और नन्हे से बच्चें में अपनी सहेली विंन्दू का प्यार देखकर खुश हो, प्यार दुलार कर चली जाती। नन्हे बच्चे का नामकरण विंन्दू के मौसा बच्चें के बाबा ने किया जो इस प्रेम कहानी में बदला नाम दद्दू है।
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