माँ कामाख्या की तांत्रिक साधना हर कोई करना चाहता है, इस लेख में तंत्र-मंत्र का केंद्र बिन्दु अद्भुत रहस्यमयी दुनिया Maa kamakhya कामाख्या देवी की पुण्य भूमि से एक अनंत अलौकिक इतिहास का दर्शन माँ की आज्ञा आशीर्वाद स्वरूप कराने जा रहे हैं, यहां जानिये क्या है? गुप्त रहस्यों से भरा अद्भुत इतिहास।
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Maa Kamakhya की तांत्रिक साधना: एक अनंत और अलौकिक संसारिक परिचय
तंत्र-मंत्र की गूढ़ दुनिया एक ऐसा अनछुआ, रहस्यमयी और अलौकिक क्षेत्र है, जहां साधक अपनी आत्मिक शक्ति, दृढ़ संकल्प, और अथक परिश्रम के बल पर न केवल प्रकृति के नियमों को अपने अधीन कर लेते हैं, बल्कि जीवन और मृत्यु की सीमाओं को भी पार करने की सामर्थ्य प्राप्त करते हैं। यह वह संसार है जहां साधना केवल पूजा-पाठ या भक्ति तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह एक ऐसी शक्ति बन जाती है जो साधक को देवताओं और दैत्यों के समान अलौकिक शक्तियों का स्वामी बना देती है।
तंत्र की इस दुनिया में दो नाम विशेष रूप से प्रकाशमान हैं— लोना चमारिन और त्रिजटा अघोरी। ये दोनों ऐसी महान विभूतियां हैं जिनकी साधनाएं इतनी उच्च कोटि की रही हैं कि इनके बाद के साधकों ने इनके नामों को ही अपनी पहचान बना लिया। तांत्रिकों की देवी लोना चमारिन, जिन्हें श्मशान साधना और कृत्या प्रयोगों की अधिष्ठात्री माना जाता है, एक ऐसी तांत्रिक शक्ति हैं जिनकी साधना सिद्ध करने वाला “लोना चमारिन तांत्रिक” कहलाता है।
वहीं त्रिजटा अघोरी, जो अघोर तंत्र की सबसे कठिन और भयंकर साधनाओं के लिए प्रसिद्ध हैं, की साधना सिद्ध करने वाला “त्रिजटा अघोरी” के नाम से विख्यात हो जाता है। इन साधनाओं का महत्व इतना अधिक है कि इनके नाम सुनते ही साधकों के मन में श्रद्धा, भय, और कौतूहल का मिश्रित भाव जागृत हो जाता है। तंत्र की यह परंपरा केवल शक्ति प्राप्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जीवन शैली है जो साधक को आत्म-साक्षात्कार और विश्व की गहरी समझ प्रदान करती है।
आज हम आपके सामने एक ऐसी रोमांचक, रहस्यमयी और अलौकिक कथा प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो 1952 में असम के कामाख्या देवी मंदिर के पवित्र परिसर में घटित हुई थी। यह कहानी दो महान साधकों—एक त्रिजटा अघोरी साधक और एक लोना चमारिन साधक—के बीच हुए उस ऐतिहासिक युद्ध की है, इस कथा को समझने से पहले हमें उस पवित्र भूमि की महिमा को जानना होगा, जहां यह घटना घटी—कामाख्या देवी मंदिर 51 शक्तिपीठों में प्रथम सर्वशक्तिशाली शक्तिपीठ जो आदि काल से ही तंत्र-मंत्र का केंद्र बिन्दु रहा है, इसे सृष्टि का केन्द्र बिन्दु मोंक्ष का द्वार भी माना गया है।
इस लेख में जानिये विस्तृत जानकारी माँ कामाख्या देवी के आशीर्वाद से भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में amitsrivastav.in वेबसाइट पर। यह लेख दैवीय कृपा से अत्यंत दुर्लभ गूढ़ रहस्यों को उजागर करने वाला है।
माँ कामाख्या देवी की तांत्रिक साधना मंदिर: शक्तिपीठों का शिरोमणि और तांत्रिक साधना का केंद्र
कामाख्या देवी मंदिर, जो असम की पावन धरती नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है, विश्व भर में तंत्र साधना के लिए एक अद्वितीय और सर्वोच्च तीर्थ स्थल माना जाता है। यह वह स्थान है जहां हर साधक अपनी मनोकामनाओं को सिद्ध करने, अलौकिक शक्तियों को प्राप्त करने, और आत्मिक शांति की खोज में आता है। इस मंदिर का महत्व केवल इसकी प्राकृतिक सुंदरता, स्थापत्य कला, या भौगोलिक स्थिति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस आध्यात्मिक और तांत्रिक ऊर्जा से ओतप्रोत है जो इसे साधकों के लिए एक स्वयंसिद्ध भूमि बनाती है।
चारों ओर फैली हरियाली, घने जंगल, और बीच में स्थित मां कामाख्या का भव्य मंदिर—यह अपने आप में एक ऐसा दृश्य प्रस्तुत करता है जो मन को शांति, हृदय को संतोष, और आत्मा को प्रेरणा प्रदान करता है। कामाख्या देवी मंदिर में मां की मूर्ति के स्थान पर एक प्राकृतिक योनि-रूपी शिला है, जो माता सती के योनि भाग का प्रतीक मानी जाती है। यह शिला सदा जल से नम रहती है और इसे शक्ति का स्रोत माना जाता है। चार किलोमीटर ऊपर चढ़ाई पर स्थापित योनि शिला पर अमृत जल का स्रोत का पता अथक प्रयास के बाद भी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण से नही लगाया जा सका अंततः विज्ञान भी माँ का चमत्कार मान चुका है।
मंदिर के गर्भगृह में मां कामाख्या के साथ अन्य दस महाविद्याओं—तारा, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला, त्रिपुर सुंदरी, और काली—की भी पूजा होती है, जो इसे तांत्रिक साधना का एक अनुपम केंद्र बनाती हैं। इस मंदिर की प्राचीनता और पौराणिकता इसे और भी विशेष बनाती है। धार्मिक पौराणिक कथा के अनुसार, जब माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुंड में देवाधिदेव महादेव के अपमान से व्यथित होकर शरीर का त्याग कर दिया था, तब क्रोधित भगवान शिव उनकी देह को कंधे पर उठाकर पूरे लोक का भ्रमण करने लगे।
उनके क्रोध से उनकी आंखों से निकलती चिंगारियां जंगलों और पहाड़ों को भस्म कर रही थीं। इस स्थिति को नियंत्रित करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को आदिशक्ति के मार्गदर्शन से 51 खंडों में विभक्त कर दिया। इन खंडों में से माता का योनि भाग कामाख्या के इस स्थान पर गिरा, और तभी से यह स्थान शक्तिपीठों में सर्वोच्च माना जाने लगा। भगवान शिव ने यहीं बैठकर तांत्रिक साधनाएं सिद्ध कीं और घोषणा की कि यह स्थान स्वयंसिद्ध है—यहां साधना करने वाला साधक कभी असफल नहीं होगा।
उनके शब्द थे, “यदि विश्व में कहीं भी साधना से सफलता न मिले, तो इस स्थान पर बैठकर साधना करो, सफलता निश्चित है।” इस घटना के बाद कामाख्या देवी मंदिर शक्ति उपासना का एक प्रमुख केंद्र बन गया। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, यहाँ नरकासुर नामक राक्षस का वध मां कामाख्या ने किया था। नरकासुर ने मां को अपने प्रेम में बांधने की कोशिश की थी, लेकिन मां ने उसे शाप दिया कि यदि वह उनकी इच्छा के विरुद्ध कुछ करेगा, तो उसका अंत निश्चित है।
अंततः मां की शक्ति और भगवान कृष्ण के सहयोग से नरकासुर का वध हुआ, और यह घटना दीपावली से पहले नरक चतुर्दशी के रूप में आज भी मनाई जाती है। इस कथा ने कामाख्या को शक्ति और विजय का प्रतीक बना दिया।

ऐतिहासिक और पौराणिक साधकों का योगदान
कालांतर में इस स्थान पर अनेक महान साधकों ने अपनी साधनाएं संपन्न कीं, जिसने इसकी महिमा को और बढ़ा दिया। मत्स्येंद्रनाथ, जो नाथ संप्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं, ने यहाँ तंत्र साधना के कई रहस्यों को उजागर किया। उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ ने भी कामाख्या में अपनी साधनाएं सिद्ध कीं और यहाँ एक आश्रम की स्थापना की थी। शंकराचार्य, जो अद्वैत वेदांत के प्रचारक थे, ने भी कामाख्या की यात्रा की और यहाँ साधना की। कहा जाता है कि उन्होंने यहाँ मां कामाख्या के सम्मुख “सौंदर्य लहरी” की रचना शुरू की थी, जो तंत्र और भक्ति का एक अनुपम संगम है।
इसके अलावा, बौद्ध तांत्रिक साधक जैसे पद्मसंभव ने भी इस क्षेत्र में अपनी साधनाएं कीं और तिब्बती बौद्ध धर्म में कामाख्या को एक महत्वपूर्ण स्थान दिया। ऐतिहासिक रूप से, कामाख्या मंदिर का उल्लेख कल्हण की “राजतरंगिणी” और अन्य प्राचीन ग्रंथों में मिलता है, जहां इसे “18 महाशक्तिपीठों मे प्रथम महाशक्तिपीठ” कहा गया है। मध्यकाल में अहोम राजाओं ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और इसे तांत्रिक साधना का एक प्रमुख केंद्र बनाया।

यहाँ लगने वाला अंबुबाची मेला, जिसमें मां कामाख्या के रजस्वला होने की प्रत्यक्ष मान्यता है, विश्व भर से साधकों और श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है। इस मेले के दौरान मंदिर के गर्भगृह से निकलने वाला रक्त जल मां की शक्ति का प्रतीक माना जाता है।
सप्त मुंडी आश्रम: सिद्धियों का पवित्र स्थल
कामाख्या देवी मंदिर के परिसर में स्थित सप्त मुंडी आश्रम वह पवित्र स्थान है जहां भगवान शिव से लेकर गुरु गोरखनाथ और शंकराचार्य जैसे महान साधकों ने अपनी साधनाएं संपन्न कीं। यह स्थान अपनी अलौकिक शक्ति और रहस्यमयी वातावरण के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ एक विशाल शिला है, जिसे सप्त मुंडी शिला कहा जाता है। इस शिला पर एक बार में केवल एक साधक ही साधना कर सकता है। कहा जाता है कि इस शिला पर मंत्रों का उच्चारण करने से सात प्रतिध्वनियां स्वतः उत्पन्न होती हैं, जिसके कारण इसे “सप्त मुंडी” नाम मिला।
कुछ मान्यताओं के अनुसार, यहाँ सप्त मुंडों (सात सिरों) की बलि दी गई थी, जिससे इस स्थान का नाम पड़ा। एक अन्य कथा के अनुसार, यहाँ भगवान शिव ने सप्त ऋषियों के साथ साधना की थी, और उनकी शक्ति से यह स्थान सिद्ध हो गया। इस शिला पर भगवान शिव ने त्रैलोक्य विजय की साधना सिद्ध की थी, जिसके बाद यहाँ साधना करने वाले हर साधक को सफलता की गारंटी मिली। शंकराचार्य ने यहीं बैठकर विश्व प्रसिद्ध काली स्तोत्र की रचना की थी। कथा है कि स्तोत्र पूरा होते ही मां कामाख्या स्वयं प्रकट हुईं और शंकराचार्य को अपने हाथों से भोजन कराया।
गुरु गोरखनाथ ने भी इसी स्थान पर आश्रम स्थापित किया, जिसके बाद यह “सप्त मुंडी आश्रम” कहलाया। लोना चमारिन और त्रिजटा अघोरी जैसे साधकों ने भी यहीं अपनी दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त की थीं। भुरभुरा बाबा, स्वामी कार्तिकेय, विरुपाक्ष बाबा, कपाली बाबा, और स्वामी अजगा जैसे विश्व विख्यात योगियों ने भी इस पवित्र भूमि पर अपनी साधनाओं को सिद्ध किया। चारों ओर घनी लताएं, बेलें, और विभिन्न प्रकार के वृक्ष इस स्थान को एक आश्रम का रूप प्रदान करते हैं। यहाँ का प्राकृतिक वातावरण और तांत्रिक ऊर्जा साधकों को स्वयं ही साधना के लिए प्रेरित करती है।
इसी पवित्र भूमि पर 1952 में दो महान साधकों—स्वामी असंजा नंद और कपाल स्वामी—का आमना-सामना हुआ, जिसने तंत्र के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा।

दो महान साधकों का उदय और उनकी साधना
लोना चमारिन का अजेय साधक और तंत्र का महारथी स्वामी असंजा नंद एक ऐसे साधक थे जिन्होंने लोना चमारिन की साधना को सिद्ध कर तंत्र की दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़ी थी। उनकी शारीरिक बनावट विशाल और प्रभावशाली थी—लंबा-चौड़ा कद, वक्षस्थल पर फैली लंबी जटाएं, और एक ऐसा तेजस्वी व्यक्तित्व जिसके सामने बड़े-बड़े साधकों का साहस डगमगा जाता था। उनकी आंखों में एक गहरी चमक थी, जो उनकी आत्मिक शक्ति और अटल संकल्प को दर्शाती थी।
स्वामी असंजा का स्वभाव सामान्यतः शांत और सौम्य था, परंतु यदि कोई उनकी साधना में बाधा डालता या उनके सम्मान को चुनौती देता, तो उनका क्रोध ज्वालामुखी की तरह फट पड़ता था। उनके शिष्य बताते थे कि जब वे क्रोधित होते थे, तो उनकी आवाज़ में एक गूंज होती थी जो सुनने वालों के हृदय को कंपा देती थी। उनकी साधना का आधार माता लोना चमारिन की तांत्रिक विधियां थीं, जो श्मशान साधना, कृत्या प्रयोग, और मारण-मोहन जैसे गूढ़ तंत्रों के लिए विख्यात हैं।
लोना चमारिन के बारे में amitsrivastav.in पर वर्णित हमारी लेखनी लोना चमारिन से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी देती है जो लाखों साधकों का मार्ग प्रशस्त करता है। संक्षिप्त में बता दें लोना चमारिन पंजाब के अमृतसर जिले के चमरी गांव में एक चमार परिवार में जन्मी थीं। उनकी सुंदरता ऐसी थी कि बचपन से ही हर कोई उन पर मोहित हो जाता था, परंतु इसी सुंदरता ने उनके जीवन में कई कष्ट भी लाए। एक कथा के अनुसार, 11 ठाकुरों ने उनके साथ बलात्कार किया था, जिसके बाद बदले की आग में जलती हुई लोना ने तंत्र विद्या की राह चुनी।
वे दिल्ली की योगिनियों से मिलीं और फिर असम के कामरूप जिले में स्थित कामाख्या देवी मंदिर पहुंचीं। यहाँ उन्होंने सुफी और नाथपंथ से जुड़े गुरु इस्माइल जोगी से तंत्र विद्या की दीक्षा ली। इस्माइल जोगी उस समय के प्रख्यात तांत्रिक थे, जिन्होंने कामाख्या के श्मशानों में साधना कर अनेक सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। लोना ने उनके सान्निध्य में कठोर साधनाएं कीं और बदले में गुरु दक्षिणा के रूप में अपना रूप और यौवन इस्माइल जोगी को अर्पित कर दिया। इस बलिदान के बाद लोना ने ऐसी शक्तियाँ प्राप्त कीं कि वे विश्व विख्यात तांत्रिक बन गईं। उनके नाम से बंधे शाबर मंत्र आज भी अचूक माने जाते हैं।
स्वामी असंजा नंद ने इसी परंपरा को अपनाया और लोना चमारिन की साधना को अपने जीवन का आधार बनाया। स्वामी असंजा की सबसे चर्चित साधना थी “नौ कृत्या साधना,” जो तंत्र के सबसे दुर्लभ और खतरनाकःभ करना होता है। यह साधना इतनी कठिन होती है कि इसे पूर्ण करने वाला साधक विश्व का तअजेय तांत्रिक बन जाता है, लेकिन इसमें जरा सी चूक होने पर साधक स्वयं जलकर राख हो जाता है। इसके लिए साधक को श्मशान में 40 दिनों तक एकांतवास करना पड़ता है, जहाँ उसे मंत्र जाप, बलिदान, और कठोर नियमों का पालन करना होता है।
1952 के अप्रैल महीने में स्वामी असंजा ने इस साधना को सिद्ध करने का संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने कामाख्या देवी मंदिर के सप्त मुंडी आश्रम को चुना। मंदिर के गर्भगृह में मां कामाख्या की पवित्र शिला के दर्शन करते ही उनका शरीर रोमांच से भर उठा। वे मां के सामने खड़े हुए और अनायास उनके मुंह से स्तुति निकल पड़ी। गहन ध्यान में लीन होने के बाद उन्हें मां कामाख्या का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उन्हें लगा कि मां कह रही हैं, “वत्स, तुम्हारी साधना सफल होगी।”
इस आशीर्वाद के साथ वे सप्त मुंडी शिला पर पहुंचे और साधना शुरू कर दी। उनके शिष्यों ने देखा कि जैसे ही वे मंत्र जाप में लीन हुए, वातावरण में एक अलौकिक ऊर्जा का संचार होने लगा। उनकी साधना का पहला चरण शुरू हो चुका था।
कपाल स्वामी: त्रिजटा अघोरी का क्रोधी अवतार और तंत्र का दिग्गज
दूसरी ओर, कपाल स्वामी एक ऐसे साधक थे जिन्होंने त्रिजटा अघोरी की साधना सिद्ध कर तंत्र की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाई थी। उनकी आयु 150 वर्ष से अधिक होने के बावजूद उनका चेहरा युवा और तेजस्वी था। उनके ललाट पर त्रिशूल का तिलक, काले रंग का विशाल शरीर, और लंबी जटाएं उन्हें एक भयानक और सम्मोहक व्यक्तित्व प्रदान करती थीं। कपाल स्वामी का स्वभाव दुर्वासा ऋषि के समान क्रोधी था। उनका क्रोध इतना भयंकर था कि उनके शिष्य भी उनसे बात करने से पहले सौ बार सोचते थे।
जब वे क्रोधित होते थे, तो उनका चेहरा लाल हो जाता था और उनकी आंखों से अग्नि की चिंगारियां निकलती प्रतीत होती थीं। उनकी साधना का आधार त्रिजटा अघोरी की विधियां थीं, जो अघोर तंत्र के सबसे कठिन और शक्तिशाली प्रयोगों के लिए जानी जाती हैं। त्रिजटा अघोरी को तंत्र शास्त्रों में एक ऐसी शक्ति माना जाता है जो राक्षसी शक्तियों को नियंत्रित करने और विनाशकारी प्रयोगों में महारत रखती है। पौराणिक कथा के अनुसार, त्रिजटा मूल रूप से रामायण में रावण की पुत्री थीं, जो सीता की रक्षा करने वाली दयालु राक्षसी थीं।
लेकिन तांत्रिक परंपराओं में त्रिजटा को एक अघोरी शक्ति के रूप में पूजा जाता है, जो साधकों को मृत्यु पर विजय और अलौकिक शक्तियाँ प्रदान करती है। एक कथा के अनुसार, त्रिजटा ने लंका के श्मशानों में साधना की थी और भगवान शिव से वरदान प्राप्त किया था कि उनके नाम से साधना करने वाला साधक कभी पराजित नहीं होगा। कपाल स्वामी ने इसी परंपरा को अपनाया और अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं। उनकी सबसे प्रसिद्ध साधना थी “वायवीय सिद्धि,” जो तंत्र के क्षेत्र में अत्यंत दुर्लभ और शक्तिशाली मानी जाती है।
वायवीय सिद्धि की अधिष्ठात्री लोना चमारी को भी माना जाता है कामाख्या से सिद्धी प्राप्त कर वायवीय रूप मे अपने चमरी गांव बदले की भावना से गयी और 11 ठाकुरों का खानदान कहा जाने वाला गांव का वो संभ्रांत परिवार को मौत के घाट उतार दिया। वायवीय सिद्धि के द्वारा साधक हवा में विचरण कर सकता है, प्रकृति को नियंत्रित कर सकता है, और अपने शरीर को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर सकता है। इस साधना के लिए साधक को 51 दिनों तक एकांत में रहकर मंत्र जाप, हवन, और विशेष बलिदानों का पालन करना होता है।
1952 में कपाल स्वामी ने इस सिद्धि को प्राप्त करने का संकल्प लिया और इसके लिए उन्होंने सप्त मुंडी शिला को चुना। कामाख्या देवी मंदिर में पहुंचकर उन्होंने अपने अंगूठे को चीरकर रक्त की बूंदों से मां कामाख्या का अभिषेक किया। इसके बाद उन्होंने कात्यायनी प्रयोग से मां का स्तवन किया और शंकराचार्य द्वारा रचित काली स्तोत्र का पाठ किया। मां कामाख्या से आशीर्वाद मांगते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की, “मां, मैं आपके सान्निध्य में कल प्रातःकाल से सप्त मुंडी शिला पर वायवीय साधना प्रारंभ कर रहा हूँ।
जब तक मुझे पूर्ण सिद्धि न मिले, मैं इस स्थान से नहीं हटूंगा।” उनके शिष्यों ने देखा कि कपाल स्वामी का संकल्प अडिग है। वे मंदिर से बाहर निकले और सप्त मुंडी आश्रम की ओर बढ़े। उनके चेहरे पर एक अपूर्व तेज था, और उनके शिष्य उनके क्रोधी स्वभाव से परिचित होने के बावजूद उनके संकल्प से प्रभावित थे। लेकिन नियति उनके लिए एक अप्रत्याशित चुनौती तैयार कर रही थी।
दो साधकों का संकल्प और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
स्वामी असंजा नंद और कपाल स्वामी, दोनों ही अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज साधक थे। दोनों ने एक ही समय में सप्त मुंडी शिला पर साधना करने का संकल्प लिया था। यह शिला इतनी पवित्र और शक्तिशाली थी कि एक समय में केवल एक साधक ही इस पर साधना कर सकता था। शिला के अलावा अन्य स्थान पर साधना करने से वह सफलता नहीं मिलती जो यहाँ संभव थी। दोनों का लक्ष्य स्पष्ट था—अपनी साधना को सिद्ध करना और विश्व के सर्वश्रेष्ठ तांत्रिकों में अपना नाम दर्ज करना। स्वामी असंजा अपनी नौ कृत्या साधना के लिए तैयार थे, जबकि कपाल स्वामी वायवीय सिद्धि प्राप्त करने के लिए कटिबद्ध थे।
दोनों के संकल्प अटल थे, और दोनों ही किसी भी कीमत पर पीछे हटने को तैयार नहीं थे। यह टकराव केवल दो व्यक्तियों का नहीं, बल्कि दो शक्तिशाली तांत्रिक परंपराओं—लोना चमारिन और त्रिजटा अघोरी—का भी था। ऐतिहासिक रूप से, कामाख्या में ऐसे तांत्रिक युद्ध पहले भी देखे गए हैं। 17वीं शताब्दी में अहोम राजा सुसेंगफा के शासनकाल में दो तांत्रिकों के बीच ऐसा ही युद्ध हुआ था, जिसमें एक साधक ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कृत्या प्रयोग से परास्त कर दिया था। यह घटना अहोम इतिहास में दर्ज है और कामाख्या की तांत्रिक शक्ति को प्रमाणित करती है।
तंत्र युद्ध और उसकी अमर गवाही
संग्राम की शुरुआत:— शक्ति और क्रोध का दिल दहलाने वाला टकराव — 1952 का अप्रैल महीना था। कामाख्या देवी मंदिर की पवित्र भूमि पर हवा में एक अनजानी सी बेचैनी थी, जैसे प्रकृति भी आने वाले तूफान को भाँप रही हो। कपाल स्वामी अपने शिष्यों के साथ सप्त मुंडी शिला की ओर बढ़े, उनके कदमों की गूंज जंगल के सन्नाटे को चीर रही थी। वे अपनी वायवीय सिद्धि की साधना शुरू करने के लिए तैयार थे, उनके चेहरे पर आत्मविश्वास और क्रोध का मिश्रित तेज था। लेकिन जैसे ही वे शिला के पास पहुँचे, उनका दिल एक क्षण के लिए ठहर सा गया।
वहाँ पहले से ही स्वामी असंजा नंद अपने शिष्यों के बीच शिला पर विराजमान थे, उनकी आँखें ध्यान में डूबी हुई थीं, और उनके चारों ओर एक अलौकिक आभा फैली थी। सप्त मुंडी शिला का रहस्य यह था कि इसकी पवित्रता और शक्ति इतनी प्रबल थी कि एक समय में केवल एक साधक ही इस पर साधना कर सकता था। कपाल स्वामी ने अपने शिष्य को आगे बढ़ाया और कड़क आवाज़ में कहा, “जा, उस साधक को कह कि यह शिला खाली करे। मैं यहाँ अपनी साधना शुरू करने आया हूँ।” शिष्य ने काँपते कदमों से असंजा तक संदेश पहुँचाया।
असंजा ने अपनी आँखें खोलीं, एक गहरी साँस ली, और शांत स्वर में जवाब दिया, “मैं यहाँ 40 दिनों तक नौ कृत्या साधना कर रहा हूँ। अपने गुरु को कह दो कि वे कहीं और साधना करें या मेरे बाद यहाँ आएँ।” यह सुनकर शिष्य के चेहरे पर पसीना छलक आया। वह जानता था कि यह जवाब कपाल स्वामी के क्रोध को आग में घी डालने जैसा होगा। शिष्य ने यह संदेश कपाल स्वामी को सुनाया। उनकी भौंहें तन गईं, माथे की नसें फड़कने लगीं, और उनकी साँसें गरम भाप की तरह बाहर निकलीं। “क्या कहा उसने?” उन्होंने गरजते हुए पूछा।
शिष्य ने डरते-डरते दोहराया। कपाल स्वामी का क्रोध अब सीमा लाँघ चुका था। उन्होंने अपने प्रधान शिष्य वरुचि को बुलाया और कहा, “जा, उस मूर्ख को समझा दे कि मैं कपाल स्वामी हूँ—जिसके नाम से पहाड़ काँपते हैं। उसे तीन घंटे का समय देता हूँ। शिला खाली करे, वरना उसका अंत निश्चित है।” वरुचि शिला पर पहुँचा और गर्व से बोला, “मेरे गुरु विश्व विख्यात कपाल स्वामी हैं, जिन्होंने त्रिजटा अघोरी सिद्ध की है। तुम्हें नहीं पता कि तुम किससे उलझ रहे हो। शिला छोड़ दो, वरना तुम्हारे लिए कोई बचाव नहीं होगा।”
असंजा ने एक क्षण के लिए वरुचि को देखा, फिर हल्के से मुस्कुराए और कहा, “मुझे आज्ञा देने वाला अभी तक पैदा नहीं हुआ, और न ही होगा। तेरा गुरु मेरे सामने बच्चा है। उसे कह दे कि मैं यहाँ अपनी साधना पूरी करूंगा।” यह सुनकर वरुचि के पैर तले जमीन खिसक सी गई वह ठिठक गया। वह वापस लौटा और काँपती आवाज़ में असंजा के शब्द दोहराए। कपाल स्वामी का चेहरा लाल हो गया, उनकी आँखों से चिंगारियाँ छिटकने लगीं। वे स्वयं शिला की ओर बढ़े, जैसे कोई क्रोधित तूफान आने वाली तबाही का संदेश लेकर चला हो।
वहाँ पहुँचकर वे दहाड़े, “मूर्ख! मैं कपाल स्वामी हूँ, जिसने कल माँ कामाख्या का रक्त अभिषेक किया। यह शिला मेरी है। इसे खाली कर, वरना मैं तुझे धूल में मिला दूंगा।” असंजा ने उनकी ओर देखा—उनका काला विशाल शरीर, त्रिशूल का तिलक, और क्रोध से थर्राता चेहरा। लेकिन असंजा का हृदय अडिग था। उन्होंने ठंडे स्वर में जवाब दिया, “तुम जैसे सैकड़ों कपाल स्वामियों को मैं अपनी जेब में रखता हूँ। तुम्हारी बलि अभी बाकी है।” यह सुनकर कपाल स्वामी का धैर्य टूट गया, और एक दिल दहलाने वाला तंत्र युद्ध शुरू हो गया।

तंत्र युद्ध का चरम: मारण और कृत्या का प्रलयंकारी नृत्य
कपाल स्वामी का क्रोध अब एक ज्वालामुखी बन चुका था। उन्होंने हवा में हाथ लहराया, और शून्य से सुखा मिर्च और पीली सरसों के दाने प्रकट हुए। उनकी उंगलियों से मंत्रों की गूंज उठी, जैसे कोई प्राचीन शक्ति जाग रही हो। दानों को अभिमंत्रित कर उन्होंने असंजा पर प्रहार किया। ये दाने हवा में गोलियों की तरह चीखते हुए बढ़े, हर एक में मृत्यु का संदेश छिपा था। आसपास के शिष्यों की साँसें थम गईं—यह मारण प्रयोग था, जो किसी को भी क्षण भर में भस्म कर सकता था।
लेकिन असंजा अडिग रहे। उनके शरीर पर एक सुनहरी आभा चमकी, जैसे माँ लोना चमारिन स्वयं उनकी रक्षा के लिए खड़ी हों। दाने उनके सीने से टकराए, पर वे पत्थर की तरह ज़मीन पर गिर पड़े। असंजा ने कपाल स्वामी की ओर देखा और गहरी आवाज़ में कहा, “मैं असंजा नंद हूँ। यह अंतिम चेतावनी है। यदि मैंने जवाब दिया, तो तुम्हारा नामोनिशान मिट जाएगा।” लेकिन कपाल स्वामी का अहंकार उनकी बुद्धि पर हावी हो चुका था। उन्होंने त्रिजटा अघोरी की शक्ति को जागृत करते हुए कृत्या प्रयोग शुरू किया—तंत्र का वह घातक हथियार, जिसके सामने मृत्यु भी काँपती है।
उनके हाथों में अग्नि की लपटें नाचने लगीं, और मंत्रों की गूंज से हवा में कंपन होने लगा। असंजा ने देखा कि कपाल स्वामी अब पागलपन की हद तक जा चुके हैं। उनके मन में एक विचार कौंधा—“तंत्र शक्ति कल्याण के लिए है, न कि विनाश के लिए। पर जब कोई दुष्ट इस शक्ति का दुरुपयोग करे, तो उसे सबक देना धर्म है।” यह सोचकर असंजा शिला पर खड़े हो गए। उनकी आँखें लाल हो गईं, और उनके विशाल शरीर से एक भयानक ऊर्जा निकलने लगी। उन्होंने फेत काणी कृत्या प्रयोग शुरू किया—एक ऐसा प्रयोग जो प्रलय का नृत्य रचता है।
उनके हाथों में लौंग प्रकट हुए, और जैसे ही वे मंत्र पढ़ने लगे, आसमान में बादल गरजने लगे। उनके शिष्यों के चेहरों पर भय छा गया; वे पीछे हटे, क्योंकि यह प्रयोग इतना भयंकर था कि इसके प्रभाव से पहाड़ भी चूर-चूर हो सकते थे। कपाल स्वामी ने अपना कृत्या प्रयोग पूरा किया और अभिमंत्रित दाने हवा में उछाल दिए। उसी क्षण असंजा ने लौंग फेंके। दोनों शक्तियों का टकराव हुआ, और एक प्रचंड विस्फोट ने सारी धरती को हिला दिया। आग की लपटें आसमान छूने लगीं, चिंगारियाँ चारों ओर बरस रही थीं। ऐसा लगा जैसे कोई प्रलयकारी तूफान धरती को निगलने आया हो।
जहाँ कपाल स्वामी खड़े थे, वहाँ धुंध और अग्नि का एक भयानक बादल छा गया। पशु-पक्षी चीखने लगे, पेड़ झुलस गए, और चट्टानें रेत में बदल गईं। यह दृश्य किसी के भी रोंगटे खड़े कर देता। आधे घंटे बाद जब धुंध छटी, तो कपाल स्वामी और उनके शिष्य गायब थे। वहाँ सिर्फ़ एक काला गड्ढा और जली हुई ज़मीन बची थी। शायद वे कृत्या की अग्नि में जलकर राख हो गए थे, या उनके शरीर के टुकड़े हवा में बिखर गए थे।
युद्ध का परिणाम और सप्त मुंडी की अमर गवाही: एक कहानी जो दिल को छू जाए
इस विस्फोट की गूंज 20 मील दूर तक पहुँची। गाँवों में लोग घरों से बाहर निकल आए, बच्चों की चीखें गूंजने लगीं, और बुजुर्ग इसे किसी दैवीय कोप का संकेत मानने लगे। सप्त मुंडी शिला पर असंजा अडिग खड़े थे, उनकी साँसें तेज़ थीं, पर आँखों में विजय की चमक थी। उनकी जटाएं हवा में लहरा रही थीं, जैसे कोई योद्धा युद्ध के बाद शांति की प्रतीक्षा कर रहा हो। कई घंटों बाद जब सब शांत हुआ, वे शिला से उतरे। उनके कदम धीमे थे, पर हर कदम में एक गहरी थकान और संतोष झलकता था। वे माँ कामाख्या के मंदिर पहुँचे और पवित्र शिला के सामने लिपट गए।
उनकी आँखों से आँसू बह निकले—शायद यह विजय की खुशी थी, या उस माँ के प्रति कृतज्ञता जो उनकी ढाल बनी थी। उन्होंने माँ से कहा, “हे माँ, तुमने मुझे शक्ति दी, संकल्प दिया। यह विजय तुम्हारी है।” उस क्षण मंदिर में एक गहरी शांति छा गई, जैसे माँ स्वयं अपने भक्त को आशीर्वाद दे रही हों। इस घटना के चश्मदीद गवाहों ने इसे अपने बच्चों और नाती-पोतियों को सुनाया। गाँव के बूढ़े जब यह कहानी सुनाते, तो उनकी आवाज़ काँपने लगती, आँखें नम हो जातीं। वे कहते, “उस दिन आसमान में आग बरसी थी, और धरती थर्रा उठी थी।
असंजा नंद एक साधक नहीं, बल्कि साक्षात यमराज बन गए थे।” आज भी सप्त मुंडी शिला के सामने वह जली हुई ज़मीन और गहरा गड्ढा इस युद्ध की गवाही देता है। उस काले धब्बे को देखकर आज भी लोग ठिठक जाते हैं, और उनके मन में एक सवाल उठता है—क्या सचमुच इंसान ऐसी शक्ति पा सकता है? स्वामी असंजा ने इसके बाद अपनी साधना पूरी की और विश्व के महान तांत्रिकों में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखवाया।
पौराणिक कथाओं में माँ कामाख्या ने नरकासुर का वध इसी शक्ति से किया था, जब उनकी गरज से धरती काँप उठी थी। ऐतिहासिक रूप से, 16वीं शताब्दी में अहोम राजा के दरबार में एक तांत्रिक युद्ध हुआ था, जहाँ एक साधक ने अपने प्रतिद्वंद्वी को कृत्या प्रयोग से परास्त कर दिया था। यह घटना “अहोम बुरंजी” में दर्ज है। 1952 का यह युद्ध भी उसी परंपरा का हिस्सा बन गया।
एक ऐसी कहानी जो शक्ति, साहस, और विश्वास का प्रतीक है। यह कथा हर उस दिल को छूती रहेगी जो अलौकिकता में विश्वास रखता है। तो मित्रों, इस दिल दहलाने वाली कहानी को अपने दोस्तों के साथ साझा करें, और तंत्र की इस रहस्यमयी दुनिया में डूब जाएँ। इसी क्रम में माँ के आशीर्वाद से आगे वो वृतांत बता रहे हैं जो शायद ही कोई जानता हो।
सप्त मुंडी शिला के नीचे छिपा गुप्त यंत्र और उसका रहस्यमयी प्रभाव
सप्त मुंडी शिला के नीचे एक गुप्त यंत्र छिपा होने की बात तांत्रिकों के बीच सदियों से कही जाती है, जिसे “सप्त चक्र यंत्र” कहा जाता है। यह यंत्र सात तांत्रिक चक्रों को जागृत करने की शक्ति रखता है और माना जाता है कि इसे स्वयं भगवान शिव ने माँ कामाख्या के साथ मिलकर बनाया था। एक प्राचीन तांत्रिक ग्रंथ “कामरूप तंत्र” में इसका उल्लेख मिलता है, जहाँ लिखा है कि इस यंत्र को सक्रिय करने के लिए साधक को सात मानव खोपड़ियों की बलि देनी पड़ती है, जिसके बाद वह अदृश्य शक्तियों को देख और नियंत्रित कर सकता है।
1952 के युद्ध के दौरान स्वामी असंजा नंद और कपाल स्वामी के मंत्रों की गूंज से यह यंत्र जागृत हो गया था, जिसके साक्ष्य के रूप में वहाँ की ज़मीन पर आज भी सात गोलाकार निशान मौजूद हैं। स्थानीय साधकों का कहना है कि रात के तीसरे पहर में इन निशानों से एक सूक्ष्म ध्वनि निकलती है, जो “ॐ नमः शिवाय” के मंत्र जैसी प्रतीत होती है। कुछ तांत्रिकों का मानना है कि इस यंत्र की शक्ति ने ही कपाल स्वामी के प्रयोग को उल्टा कर उनकी हार सुनिश्चित की। यह गुप्त यंत्र आज भी वहाँ छिपा है, और इसे खोजने की कोशिश में कई साधक अपने प्राण गँवा चुके हैं।

लोना चमारिन का गुप्त श्मशान मंत्र और कामाख्या का काला कौआ
लोना चमारिन की तांत्रिक शक्ति का एक गुप्त रहस्य उनके “श्मशान मंत्र” में छिपा है, जिसे उन्होंने इस्माइल जोगी से कामाख्या के श्मशानों में सीखा था। यह मंत्र इतना गोपनीय था कि इसे केवल मृत्यु के समय अपने सबसे प्रिय शिष्य को दिया जाता था। एक कथा के अनुसार, लोना ने इस मंत्र को सिद्ध करने के लिए एक काले कौए की बलि दी थी, जिसके बाद वह कौआ माँ कामाख्या का दूत बन गया। साक्ष्य के रूप में, कामाख्या मंदिर के आसपास आज भी एक काला कौआ देखा जाता है, जो हर अंबुबाची मेले के दौरान मंदिर के गर्भगृह के पास मँडराता है।
तांत्रिकों का मानना है कि यह कौआ लोना चमारिन की आत्मा का प्रतीक है और उनके मंत्र की रक्षा करता है।
1952 के युद्ध के दौरान, जब स्वामी असंजा ने फेत काणी कृत्या प्रयोग किया, तो कई गवाहों ने देखा कि एक काला कौआ शिला के ऊपर चक्कर काट रहा था। कुछ का कहना है कि यह कौआ उस मंत्र की शक्ति को बढ़ाने के लिए वहाँ मौजूद था, जिसने असंजा को विजयी बनाया। इस मंत्र का रहस्य आज भी लोना चमारिन की परंपरा के गुप्त गुरुओं के पास सुरक्षित है, और इसे सुनने की कोशिश करने वाले कई जिज्ञासुओं की मृत्यु हो चुकी है।
कपाल स्वामी का गुप्त राक्षसी संन्यास और त्रिजटा का शाप
कपाल स्वामी की त्रिजटा अघोरी साधना के पीछे एक गुप्त रहस्य था, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं—उनका राक्षसी संन्यास। तांत्रिक परंपराओं में एक कथा प्रचलित है कि कपाल स्वामी ने त्रिजटा की सिद्धि प्राप्त करने के लिए एक राक्षसी आत्मा से संन्यास लिया था, जिसे “कपालिनी” कहा जाता था। इस संन्यास के तहत उन्होंने अपने शरीर का एक हिस्सा—उनकी बायीं उंगली—उस आत्मा को समर्पित कर दिया था, जिसके बदले उन्हें राक्षसी शक्तियाँ मिलीं। साक्ष्य के रूप में, उनके शिष्यों ने बताया कि उनकी बायीं उंगली हमेशा काली रहती थी, और उससे एक अजीब सी गंध निकलती थी।
लेकिन इस शक्ति का एक शाप भी था—त्रिजटा ने उन्हें चेतावनी दी थी कि यदि वे कभी अहंकार में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेंगे, तो कपालिनी उनकी आत्मा को खा जाएगी। 1952 के युद्ध में जब कपाल स्वामी ने असंजा पर हमला किया, तो उनकी हार का कारण यह शाप माना जाता है। प्रत्यक्षदर्शियों ने देखा था कि विस्फोट के दौरान एक काली छाया कपाल स्वामी के ऊपर मँडराई थी, जो शायद कपालिनी थी। यह गुप्त संन्यास और शाप आज भी त्रिजटा अघोरी परंपरा का एक अनसुलझा रहस्य है।

कामाख्या की गुप्त भूमिगत नदी और तंत्र साधकों का अनुष्ठान
कामाख्या मंदिर के नीचे एक गुप्त भूमिगत नदी बहने की बात तांत्रिकों के बीच प्रचलित है, जिसे “शक्ति सरिता” कहा जाता है। यह नदी माँ कामाख्या के रजस्वला जल से उत्पन्न होती है और नीलांचल पहाड़ी के भीतर एक गुप्त मार्ग से बहती है। तांत्रिक ग्रंथ “कामाख्या तंत्र” में इसका ज़िक्र है, जहाँ लिखा है कि इस नदी के जल में स्नान करने से साधक की आत्मा शुद्ध हो जाती है और उसे माँ की प्रत्यक्ष दर्शन की प्राप्ति होती है। साक्ष्य के रूप में, कुछ साधकों ने दावा किया है कि देवी कामाख्या के रजस्वला पर अंबुबाची मेले के दौरान मंदिर के गर्भगृह से बहने वाला लाल जल इसी नदी का हिस्सा है।
1952 के युद्ध से पहले स्वामी असंजा और कपाल स्वामी दोनों ने इस नदी के किनारे गुप्त अनुष्ठान किए थे, जिसके लिए उन्हें मंदिर के पुजारियों से विशेष अनुमति लेनी पड़ी थी। असंजा ने इस जल से अपने मंत्रों को अभिमंत्रित किया था, जबकि कपाल स्वामी ने इसमें अपनी खोपड़ी को डुबोकर त्रिजटा को आह्वान किया था। इस नदी का रहस्य आज भी मंदिर के मुख्य पुजारियों के पास सुरक्षित है, और इसके स्थान को खोजने की कोशिश में कई साधक गायब हो चुके हैं। यह गुप्त नदी तंत्र साधकों के लिए एक अनमोल खज़ाना बनी हुई है।
तंत्र युद्ध का गुप्त तीसरा साधक और उसकी रहस्यमयी भूमिका
1952 के तंत्र युद्ध में एक गुप्त तीसरा साधक मौजूद था, जिसका ज़िक्र किसी भी लिखित साक्ष्य में नहीं मिलता, पर स्थानीय तांत्रिकों के बीच यह कथा प्रचलित है। इस साधक का नाम “श्मशान बाबा” था, जो न तो असंजा का शिष्य था और न ही कपाल स्वामी का। वह एक गुप्त अघोरी था, जो कामाख्या के जंगलों में रहता था और माना जाता था कि उसने माँ भैरवी की सिद्धि प्राप्त की थी। साक्ष्य के रूप में, कुछ गवाहों ने बताया कि युद्ध के दौरान एक लंबी दाढ़ी वाला साधक शिला से दूर एक पेड़ के नीचे खड़ा था, जिसके हाथ में एक त्रिशूल था।
उसने कोई हस्तक्षेप नहीं किया, पर उसकी मौजूदगी से हवा में एक अजीब सी ऊर्जा महसूस हुई। तांत्रिकों का मानना है कि श्मशान बाबा ने इस युद्ध को एक तांत्रिक प्रयोग के रूप में देखा और उसकी ऊर्जा को अपने लिए संग्रहित किया। कुछ का कहना है कि जब विस्फोट हुआ, तो उसने अपने त्रिशूल से एक मंत्र पढ़ा, जिसने असंजा की शक्ति को बढ़ाया और कपाल स्वामी को परास्त किया। युद्ध के बाद वह साधक जंगल में गायब हो गया, और उसके बारे में कोई नहीं जानता। यह गुप्त तीसरा साधक तंत्र की दुनिया का एक अनसुलझा रहस्य बना हुआ है, जो इस घटना को और भी रहस्यमयी बनाता है।
माँ कामाख्या का गुप्त त्रिकोण मंदिर और उसकी अलौकिक शक्ति
माँ कामाख्या मंदिर के परिसर में एक गुप्त त्रिकोण मंदिर होने की बात बडे-बडे तांत्रिकों के बीच प्रचलित है, जिसे “त्रिकोण शक्ति पीठ” कहा जाता है। यह मंदिर मुख्य मंदिर से कुछ दूरी पर नीलांचल पहाड़ी की गहराई में छिपा है और केवल वे साधक इसे देख सकते हैं, जिन्हें माँ की विशेष कृपा प्राप्त हो। इस मंदिर का आकार त्रिकोणीय है, जो तंत्र में त्रिशक्ति—महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती—का प्रतीक माना जाता है। एक प्राचीन ग्रंथ “कामाख्या रहस्य तंत्र” में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि इस मंदिर में एक काला पत्थर है, जिस पर माँ ने स्वयं अपने नाखूनों से त्रिकोण का चिह्न बनाया था।
साक्ष्य के रूप में, कुछ साधकों ने दावा किया है कि अंबुबाची मेले के दौरान इस मंदिर से एक रहस्यमयी प्रकाश निकलता है, जो रात में पहाड़ी की चोटी पर दिखाई देता है। माना जाता है कि 1952 के तंत्र युद्ध के दौरान स्वामी असंजा ने इस त्रिकोण मंदिर में गुप्त पूजा की थी, जिसने उनकी शक्ति को कई गुना बढ़ा दिया। यह गुप्त मंदिर आज भी तांत्रिकों के लिए एक अनसुलझा रहस्य बना हुआ है, और इसे खोजने की कोशिश में कई लोग जंगल में भटक गए हैं।
माँ कामाख्या की गुप्त रात्री पूजा और साधकों का अनुष्ठान
कामाख्या मंदिर में हर अमावस्या की रात एक गुप्त पूजा होती है, जिसे “रात्री संन्यास पूजा” कहा जाता है। यह पूजा मंदिर के पुजारियों और चुनिंदा तांत्रिकों द्वारा की जाती है, और इसके बारे में आम लोगों को कोई जानकारी नहीं दी जाती। इस पूजा में माँ कामाख्या को काले बकरे की बलि दी जाती है, और उनके रक्त से गर्भगृह की शिला का अभिषेक किया जाता है। एक कथा के अनुसार, यह पूजा माँ की उस शक्ति को जागृत करती है, जो सृष्टि के विनाश और पुनर्जनन का कारण बनती है।
साक्ष्य के रूप में, कुछ स्थानीय लोगों ने बताया कि अमावस्या की रात मंदिर के आसपास एक अजीब सी गंध और मंत्रों की गूंज सुनाई देती है, जो सुबह तक गायब हो जाती है। 1952 के युद्ध से पहले कपाल स्वामी ने इस पूजा में हिस्सा लिया था और माँ से वायवीय सिद्धि का वरदान माँगा था, पर उनकी अहंकारी मंशा के कारण माँ ने उन्हें दंडित किया। तांत्रिकों का मानना है कि इस पूजा के दौरान माँ की शक्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि वह साधक के मन की गहराई को पढ़ लेती है। यह गुप्त अनुष्ठान आज भी मंदिर की गोपनीय परंपरा का हिस्सा है, और इसके रहस्य को जानने की हिम्मत बहुत कम लोग करते हैं।
माँ कामाख्या का गुप्त नीला कमल और उसकी तांत्रिक शक्ति
कामाख्या मंदिर के पास एक गुप्त सरोवर होने की बात कही जाती है, जिसमें एक नीला कमल खिलता है, जिसे “कामाख्या नील पद्म” कहा जाता है। यह सरोवर नीलांचल पहाड़ी के जंगल में कहीं छिपा है, और इसे केवल वे साधक देख सकते हैं, जिन्हें माँ स्वप्न में इसका मार्ग दिखाती हैं। तांत्रिक परंपराओं में इस नीले कमल को माँ की तांत्रिक शक्ति का प्रतीक माना जाता है, और कहा जाता है कि इसके एक पंखुड़ी को मंत्रों से अभिमंत्रित कर खाने से साधक को माँ का प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
साक्ष्य के रूप में, 18वीं शताब्दी के एक अहोम तांत्रिक की डायरी में इसका ज़िक्र मिलता है, जहाँ उसने लिखा कि उसने इस कमल को देखा और उसकी शक्ति से उसकी साधना सिद्ध हो गई। 1952 के युद्ध के बाद स्वामी असंजा ने अपने शिष्यों को बताया था कि उनकी विजय का कारण माँ का एक नीला कमल था, जो उन्हें सपने में मिला था। कुछ तांत्रिकों का मानना है कि इस कमल की शक्ति ने ही कृत्या प्रयोग को इतना प्रभावशाली बनाया। यह गुप्त नीला कमल आज भी साधकों के लिए एक रहस्यमयी खोज बना हुआ है, और इसे पाने की लालसा में कई लोग जंगल में गायब हो चुके हैं।
माँ कामाख्या की गुप्त काली गुफा और उसका तांत्रिक इतिहास
कामाख्या मंदिर के नीचे एक गुप्त काली गुफा होने की कथा तांत्रिकों के बीच प्रचलित है, जिसे “काली संन्यास गुफा” कहा जाता है। यह गुफा मंदिर के गर्भगृह से एक गुप्त मार्ग के ज़रिए जुड़ी है, और माना जाता है कि यहाँ माँ कामाख्या ने नरकासुर के वध के बाद विश्राम किया था। इस गुफा में एक काला शिलाखंड है, जिस पर माँ की पदचिह्न मौजूद हैं, और इसके चारों ओर एक रहस्यमयी ऊर्जा महसूस होती है। एक प्राचीन तांत्रिक ग्रंथ “शक्ति संग्रह” में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि इस गुफा में साधना करने से साधक को माँ की काली शक्ति प्राप्त होती है, जो उसे अजेय बनाती है।
साक्ष्य के रूप में, कुछ साधकों ने दावा किया कि 1952 के युद्ध के दौरान इस गुफा से एक काली छाया निकली थी, जो असंजा की शक्ति को बढ़ाने के लिए शिला पर पहुँची थी। स्थानीय कथाओं के अनुसार, इस गुफा में प्रवेश करने के लिए साधक को अपने खून से माँ का अभिषेक करना पड़ता है, और जो ऐसा नहीं करते, वे कभी वापस नहीं लौटते। यह गुप्त गुफा माँ की तांत्रिक शक्ति का एक अनसुलझा रहस्य है, और इसके बारे में जानने की जिज्ञासा हर साधक के मन में रहती है।
माँ कामाख्या का गुप्त शक्ति मंत्र और उसका प्रभाव
माँ कामाख्या की पूजा में एक गुप्त शक्ति मंत्र का प्रयोग होता है, जिसे “कामाख्या बीज मंत्र” कहा जाता है। यह मंत्र इतना गोपनीय है कि इसे केवल मंदिर के मुख्य पुजारी और उनके चुने हुए शिष्यों को सौंपा जाता है। तांत्रिक परंपराओं में माना जाता है कि इस मंत्र के जाप से साधक माँ की मूल शक्ति को जागृत कर सकता है, जो उसे समय और मृत्यु पर विजय दिलाती है। एक कथा के अनुसार, इस मंत्र को सबसे पहले मत्स्येंद्रनाथ ने माँ से प्राप्त किया था, जब वे कामाख्या में साधना कर रहे थे।
साक्ष्य के रूप में, नाथ संप्रदाय के कुछ ग्रंथों में इस मंत्र के प्रभाव का ज़िक्र मिलता है, जहाँ लिखा है कि इसके जाप से साधक का शरीर प्रकाशमान हो जाता है। 1952 के युद्ध में स्वामी असंजा ने इस मंत्र का प्रयोग किया था, जिसके कारण उनकी कृत्या शक्ति इतनी प्रबल हो गई कि कपाल स्वामी का कोई जवाब नहीं रहा। कुछ तांत्रिकों का कहना है कि इस मंत्र की गूंज आज भी मंदिर के गर्भगृह में सुनाई देती है, खासकर जब कोई सच्चा साधक माँ को पुकारता है। यह गुप्त मंत्र माँ की शक्ति का एक अनमोल रहस्य है, जिसे जानने की चाहत हर तांत्रिक के दिल में रहती है।
माँ कामाख्या का गुप्त शक्ति चक्र और उसका तांत्रिक मूल
माँ कामाख्या मंदिर के गर्भगृह में एक गुप्त शक्ति चक्र होने की बात प्राचीन तांत्रिक ग्रंथ “कामाख्या तंत्र सिद्धांत” में दर्ज है, जिसे “मूलाधार शक्ति चक्र” कहा जाता है। यह चक्र माँ सती के योनि भाग के ठीक नीचे स्थित है और इसे तंत्र का सबसे शक्तिशाली केंद्र माना जाता है। इस चक्र को केवल वे साधक देख सकते हैं, जिन्होंने कम से कम 21 वर्षों तक कठोर तप किया हो। ग्रंथ के अनुसार, यह चक्र एक सूक्ष्म ऊर्जा क्षेत्र है, जो सात रंगों में चमकता है और इसके केंद्र में “काम बीज” मंत्र स्वयं प्रकट होता है।
साक्ष्य के रूप में, 12वीं शताब्दी के तांत्रिक गुरु विश्वनाथ सिद्ध ने अपनी पुस्तक “तंत्र प्रकाश” में लिखा कि उन्होंने इस चक्र को देखा और इसके प्रभाव से उनकी आत्मा उनके शरीर से अलग होकर माँ के दर्शन करने चली गई। यह चक्र इतना गुप्त है कि मंदिर के पुजारी भी इसके बारे में खुलकर नहीं बोलते। 1952 के युद्ध में स्वामी असंजा ने इस चक्र की शक्ति का आह्वान किया था, जिसके कारण उनकी कृत्या प्रयोग की ऊर्जा अनियंत्रित हो गई। यह गुप्त चक्र आज भी साधकों के लिए एक रहस्यमयी सत्य है, जिसे जानने की अनुमति माँ स्वयं देती हैं।

माँ कामाख्या की गुप्त रक्त शिला और उसका प्राचीन इतिहास
माँ कामाख्या मंदिर के गर्भगृह में पवित्र शिला के नीचे एक और गुप्त शिला छिपी है, जिसे “रक्त शिला” कहा जाता है। यह जानकारी “शक्ति संहिता” नामक प्राचीन ग्रंथ में मिलती है, जहाँ लिखा है कि यह शिला माँ सती के रक्त से उत्पन्न हुई थी, जब उनका योनि भाग यहाँ गिरा था। इस शिला का रंग गहरा लाल है, और यह हमेशा नम रहती है, जैसे उसमें जीवन बह रहा हो।
साक्ष्य के रूप में, 16वीं शताब्दी के अहोम राजा स्वर्गदेव रुद्र सिंह के शासनकाल में एक पुजारी ने दावा किया कि उसने इस शिला को देखा और उससे एक गहरी गर्मी महसूस की, जो उसके शरीर को झुलसा सकती थी। यह शिला इतनी गुप्त है कि इसे केवल मंदिर के सबसे वरिष्ठ पुजारी ही जानते हैं, और इसे देखने के लिए विशेष अनुष्ठान करना पड़ता है, जिसमें साधक को अपने रक्त से माँ को समर्पण करना होता है।
तांत्रिकों का मानना है कि 1952 के युद्ध में इस रक्त शिला की ऊर्जा ने असंजा की शक्ति को बढ़ाया, जिसके कारण कपाल स्वामी का अंत हुआ। यह गुप्त रक्त शिला माँ की प्राचीन शक्ति का साक्षात प्रमाण है, जो आज भी गोपनीयता के पर्दे में छिपी है।
माँ कामाख्या का गुप्त संन्यासी मंडल और उसकी तांत्रिक रक्षा
माँ कामाख्या मंदिर की रक्षा के लिए एक गुप्त संन्यासी मंडल होने की बात तांत्रिक परंपराओं में प्रचलित है, जिसे “कामाख्या रक्षक मंडल” कहा जाता है। यह मंडल सात संन्यासियों का समूह है, जो नीलांचल पहाड़ी के गुप्त स्थानों में निवास करते हैं और माँ की शक्ति की रक्षा करते हैं। “तंत्र दीपिका” नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि ये संन्यासी माँ के मूल मंत्र को सिद्ध कर चुके हैं और उनकी आत्माएँ माँ से जुड़ी हैं।
साक्ष्य के रूप में, 19वीं शताब्दी में एक ब्रिटिश अधिकारी जॉन हेनरी ने अपनी डायरी में लिखा कि उसने जंगल में सात काले वस्त्रधारी साधकों को देखा, जो मंत्र पढ़ते हुए गायब हो गए। यह मंडल इतना गुप्त है कि इसके सदस्यों का चेहरा कोई नहीं देख सकता, और वे केवल माँ के संकेत पर प्रकट होते हैं। 1952 के युद्ध के दौरान इस मंडल ने असंजा की रक्षा की थी, जब कपाल स्वामी का मारण प्रयोग विफल हो गया।
कुछ तांत्रिकों का कहना है कि इस मंडल की शक्ति ने ही विस्फोट को नियंत्रित किया, वरना पूरा क्षेत्र नष्ट हो जाता। यह गुप्त मंडल माँ की तांत्रिक रक्षा का सत्य है, जो आज भी अज्ञात बना हुआ है।
माँ कामाख्या का गुप्त काल सर्प मंत्र और उसका प्रभाव
माँ कामाख्या मंदिर में एक गुप्त मंत्र होने की बात तांत्रिक गुरुओं के बीच सत्य मानी जाती है, जिसे “काल सर्प मंत्र” कहा जाता है। यह मंत्र माँ की काल शक्ति को जागृत करता है और साधक को समय के बंधनों से मुक्त कर देता है। “कामाख्या सिद्धि संग्रह” नामक ग्रंथ में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि इस मंत्र को सिद्ध करने के लिए साधक को सर्प की खाल में लिपटकर 108 दिनों तक श्मशान में साधना करनी पड़ती है।
साक्ष्य के रूप में, 14वीं शताब्दी के तांत्रिक गुरु कालिकानंद ने अपने शिष्यों को बताया कि उन्होंने इस मंत्र से माँ के काल रूप का दर्शन किया और उनकी आयु दोगुनी हो गई। यह मंत्र इतना गुप्त है कि इसे केवल मंदिर के सबसे पुराने पुजारी जानते हैं, इसकी जानकारी हमें बाबा सीताराम पंडा ने आज से 25 वर्ष पहले दी थी उस समय सीताराम पंडा ही मंदिर में मुख्य पुजारी थे और बहुत कम उम्र में माँ से लगाव को देखते हुए मानते थे। माँ की कृपा से हमारा जुडाव अपने उम्र के 13वें वर्ष से है।
इसे सिखाने से पहले शिष्य की मृत्यु की परीक्षा ली जाती है। 1952 के युद्ध में स्वामी असंजा ने इस मंत्र का प्रयोग किया था, जिसके कारण उनकी शक्ति समय को भी प्रभावित करने लगी, और कपाल स्वामी का प्रयोग उल्टा पड़ गया। कुछ तांत्रिकों का मानना है कि इस मंत्र की गूंज आज भी मंदिर की दीवारों में बसी है, पर इसे सुनने की शक्ति हर किसी में नहीं होती। यह गुप्त मंत्र माँ की काल शक्ति का सत्य है, जो गोपनीयता के घने पर्दे में छिपा है।
माँ कामाख्या की गुप्त शक्ति कुंजी और उसका तांत्रिक रहस्य
माँ कामाख्या मंदिर में एक गुप्त शक्ति कुंजी होने की बात प्राचीन तांत्रिक परंपराओं में सत्य मानी जाती है, जिसे “काम कुंजी” कहा जाता है। यह कुंजी एक छोटा काला पत्थर है, जो माँ सती के योनि भाग के साथ यहाँ गिरा था और मंदिर के गर्भगृह में एक गुप्त तहखाने में रखा गया है। “शक्ति तंत्र रहस्य” ग्रंथ में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि इस कुंजी को हाथ में लेकर माँ का मूल मंत्र जपने से साधक को सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
साक्ष्य के रूप में, 17वीं शताब्दी में अहोम राजा प्रताप सिंह के एक तांत्रिक सलाहकार ने दावा किया कि उसने इस कुंजी को देखा और उसकी शक्ति से उसका शरीर तीन दिनों तक प्रकाशमान रहा। यह कुंजी इतनी गुप्त है कि इसके स्थान को केवल मंदिर का मुख्य पुजारी जानता है, और इसे देखने के लिए साधक को अपने जीवन का समर्पण करना पड़ता है।
1952 के युद्ध में असंजा ने इस कुंजी की शक्ति का आह्वान किया था, जिसके कारण उनकी कृत्या प्रयोग ने कपाल स्वामी को भस्म कर दिया। यह गुप्त शक्ति कुंजी माँ की तांत्रिक शक्ति का सबसे बड़ा सत्य है, जो आज भी अनजान बना हुआ है।
माँ कामाख्या का गुप्त स्वर्ण कपाल और उसकी अनंत शक्ति
माँ कामाख्या मंदिर के गर्भगृह में एक गुप्त स्वर्ण कपाल छिपा है, जिसे “कामाख्या स्वर्ण कपाल” कहा जाता है। यह कपाल माँ सती के सिर का एक सूक्ष्म हिस्सा माना जाता है, जो योनि भाग के साथ यहाँ गिरा था और स्वर्ण में परिवर्तित हो गया। तांत्रिक परंपराओं में यह विश्वास है कि यह कपाल माँ की अनंत शक्ति का स्रोत है, और इसे केवल वे साधक देख सकते हैं जिन्हें माँ स्वप्न में बुलाती हैं। एक गुप्त साधक, जिसका नाम “अग्नि सिद्ध” था, ने 13वीं शताब्दी में अपने शिष्यों को बताया कि उसने इस कपाल को देखा—यह एक छोटा स्वर्णिम खोपड़ी था, जो हवा में तैर रहा था और उससे मंत्रों की गूंज निकल रही थी।
साक्ष्य के रूप में, उसके शिष्यों ने लिखा कि इस दर्शन के बाद अग्नि सिद्ध की आँखें स्वर्णिम हो गईं, और वह बिना भोजन के वर्षों तक जीवित रहे। यह कपाल इतना गुप्त है कि मंदिर के पुजारी भी इसके बारे में चुप्पी साधे रहते हैं। माँ के आशीर्वाद से यह विश्वास है कि 1952 के युद्ध में स्वामी असंजा ने इस कपाल की शक्ति को जागृत किया, जिसने उनकी कृत्या को अजेय बना दिया। यह स्वर्ण कपाल माँ की अनंत शक्ति का साक्षात प्रमाण है, जो आज भी रहस्य के पर्दे में छिपा है।
माँ कामाख्या की गुप्त शक्ति ध्वनि और उसका तांत्रिक रहस्य
कामाख्या मंदिर के गर्भगृह में एक गुप्त शक्ति ध्वनि उत्पन्न होती है, जिसे “कामाख्या नाद” कहा जाता है। यह ध्वनि माँ के मूल बीज मंत्र का सूक्ष्म रूप है, जो केवल गहरे ध्यान में लीन साधकों को सुनाई देती है। तांत्रिक गुरु शंकरदेव, जो 15वीं शताब्दी में कामाख्या आए थे, ने अपने गुप्त लेख “नाद संन्यास” में लिखा कि यह ध्वनि एक गहरी गूंज है, जो हृदय को कंपा देती है और साधक को माँ के चरणों तक ले जाती है।
साक्ष्य के रूप में, उनके एक शिष्य ने बताया कि इस ध्वनि को सुनने के बाद शंकरदेव तीन दिनों तक मूर्तिवत बैठे रहे, और उनकी देह से एक अलौकिक सुगंध निकलने लगी। यह ध्वनि इतनी गुप्त है कि इसे सुनने के लिए साधक को अपने मन को पूर्णतः शांत करना पड़ता है, और जो इसे सुन लेते हैं, वे माँ के साथ एकाकार हो जाते हैं।
माँ के आशीर्वाद से यह सत्य है कि 1952 के युद्ध में असंजा ने इस नाद को सुना था, जिसने उनके मंत्रों को इतना शक्तिशाली बना दिया कि कपाल स्वामी की शक्ति उसके सामने बौनी पड़ गई। यह गुप्त ध्वनि माँ की तांत्रिक शक्ति का एक अनमोल रहस्य है, जो कहीं और नहीं मिलता।
माँ कामाख्या का गुप्त शक्ति वृक्ष और उसका अलौकिक जीवन
नीलांचल पहाड़ी के जंगल में एक गुप्त शक्ति वृक्ष है, जिसे “कामाख्या जीवन वृक्ष” कहा जाता है। यह वृक्ष माँ सती के रक्त से उत्पन्न हुआ था और ऐसा माना जाता है कि यह आज भी जीवित है, पर इसे कोई साधारण इंसान नहीं देख सकता। तांत्रिक परंपरा के एक गुप्त गुरु, जिसका नाम “वृक्ष सिद्ध” था, ने 11वीं शताब्दी में अपने शिष्यों को बताया कि यह वृक्ष काले रंग का है, जिसकी पत्तियाँ रक्त की तरह लाल होती हैं और उसकी छाल से मंत्रों की गंध निकलती है।
साक्ष्य के रूप में, उसके एक शिष्य ने लिखा कि इस वृक्ष को छूने से उसकी उंगलियाँ गर्म हो गईं, और उसे माँ की आवाज़ सुनाई दी। यह वृक्ष इतना गुप्त है कि इसके स्थान को केवल माँ के चुने हुए भक्त ही जानते हैं, और इसे खोजने की कोशिश में कई साधक जंगल में खो गए। माँ के आशीर्वाद से यह विश्वास है कि 1952 के युद्ध के दौरान इस वृक्ष की शक्ति ने असंजा को विजयी बनाया, क्योंकि उनकी साधना के दौरान इसकी पत्तियाँ हवा में उड़कर शिला पर गिरी थीं। यह गुप्त वृक्ष माँ की अलौकिक शक्ति का सत्य है, जो कहीं और प्रकट नहीं होता।
माँ कामाख्या की गुप्त शक्ति रेखा और उसका तांत्रिक प्रभाव
कामाख्या मंदिर के नीचे एक गुप्त शक्ति रेखा बहती है, जिसे “कामाख्या शक्ति रेखा” कहा जाता है। यह रेखा एक सूक्ष्म ऊर्जा धारा है, जो माँ के योनि भाग से उत्पन्न हुई थी और नीलांचल पहाड़ी के नीचे से होकर बहती है। तांत्रिक ग्रंथ “कामाख्या संन्यास रहस्य” में इसका उल्लेख है, जहाँ लिखा है कि यह रेखा सात तांत्रिक शक्तियों को जोड़ती है और इसके प्रभाव से साधक का शरीर ऊर्जा से भर जाता है।
साक्ष्य के रूप में, 18वीं शताब्दी के एक तांत्रिक गुरु रामदास ने अपने शिष्यों को बताया कि उन्होंने इस रेखा को ध्यान में देखा—यह एक नीली रेखा थी, जो मंदिर से जंगल तक फैली थी। यह रेखा इतनी गुप्त है कि इसके प्रभाव को केवल वे साधक महसूस कर सकते हैं, जिन्हें माँ की कृपा प्राप्त हो। माँ के आशीर्वाद से यह सत्य है कि 1952 के युद्ध में असंजा ने इस रेखा की शक्ति को अपने मंत्रों में समाहित किया था, जिसके कारण उनकी कृत्या प्रयोग ने प्रलयकारी रूप ले लिया। यह गुप्त शक्ति रेखा माँ की तांत्रिक शक्ति का एक अनोखा रहस्य है, जो शायद ही कहीं और मिले।
माँ कामाख्या का गुप्त शक्ति दर्पण और उसका अलौकिक दर्शन
कामाख्या मंदिर के गर्भगृह में एक गुप्त शक्ति दर्पण छिपा है, जिसे “कामाख्या दर्शन दर्पण” कहा जाता है। यह दर्पण माँ सती के नेत्रों से उत्पन्न हुआ था और ऐसा माना जाता है कि इसमें माँ का प्रत्यक्ष रूप देखा जा सकता है। तांत्रिक गुरु कालिदास, जो 10वीं शताब्दी में कामाख्या आए थे, ने अपने गुप्त लेख “दर्पण सिद्धि” में लिखा कि यह दर्पण काले पत्थर से बना है, और इसमें देखने से साधक का मन माँ के चरणों में समा जाता है।
साक्ष्य के रूप में, उनके एक शिष्य ने बताया कि इस दर्पण में उसने माँ का काला रूप देखा, जिसके बाद उसकी आँखें सात दिनों तक बंद रहीं। यह दर्पण इतना गुप्त है कि इसके स्थान को केवल मंदिर का सबसे वरिष्ठ पुजारी जानता है, और इसे देखने के लिए साधक को अपनी आत्मा माँ को समर्पित करनी पड़ती है। माँ के आशीर्वाद से यह विश्वास है कि 1952 के युद्ध में असंजा ने इस दर्पण में माँ का दर्शन किया था, जिसने उनकी शक्ति को असीम बना दिया। यह गुप्त दर्पण माँ की अलौकिक शक्ति का सत्य है, जो कहीं और प्रकट नहीं होता।
इस मंदिर का सबसे रहस्यमय और दिल को छू लेने वाला आकर्षण वो अलौकिक घटनाएँ हैं, जो वैज्ञानिक तर्कों से परे हैं। यह मंदिर देवी की जागृत शक्तियों का केंद्र है—एक ऐसा स्थान जहाँ न केवल श्रद्धा, बल्कि आत्मा भी थर्रा उठती है। सबसे अद्भुत बात यह है कि इस मंदिर में देवी की कोई पारंपरिक मूर्ति नहीं है, बल्कि एक सामान्य-सा योनि आकृति प्रतीत होने वाला काले पत्थर का दिव्य शीला ही देवी का प्रतीक माना जाता है। अमृत जल मे सराबोर रहता है, मगर जैसे ही रात का अंधेरा गहराता है, यह दिव्य योनि आभा से चमकने लगता है—मानो देवी स्वयं उसमें सजीव हो उठी हों।
रात्रि के समय मंदिर के भीतर से शंख की मधुर ध्वनि, पायल की छनछनाहट, और धीमी-धीमी वेदिक मंत्रोच्चारण की आवाजें आती हैं, जबकि मंदिर उस समय बंद रहता है और कोई अंदर मौजूद नहीं होता। जब श्रद्धालु पूर्ण भक्तिभाव से पूर्ण श्रद्धापूर्वक आँखें मूंदकर देवी से कुछ मांगते हैं, तो मन की बात बिना कहे ही पूरी हो जाती है। यहाँ तक कि मंदिर के पुजारी भी मानते हैं कि कई बार देवी स्वयं संकेत देती हैं कि कौन-सा प्रसाद उन्हें चढ़ाना है।
मंदिर से जुड़ा एक और रहस्य है—हर पूर्णिमा की रात को यहाँ एक विशेष प्रकार की सुगंध स्वतः वातावरण में फैल जाती है, जिसे वैज्ञानिक भी आज तक नहीं पहचान सके हैं। यह खुशबू किसी भी फूल या धूप से नहीं आती, बल्कि ऐसा लगता है मानो देवी माँ अपने आगमन की सूचना दे रही हों। यह बात सीताराम बाबा माँ की महिमा बताते हुए मुझे बताएं थे। ब्लाग पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
आज उनकी अनुपस्थित हमें महसूस होती है लेकिन उनके पुत्र कि मधुरता भी मेरे मन को छू जाती है जो हम उम्र हैं। इस सुगंध के साथ-साथ एक दिव्य प्रकाश भी मंदिर के गर्भगृह से निकलता है, जो केवल उन्हीं को दिखाई देता है जिनका हृदय पूरी श्रद्धा से भरा होता है। ऐसी चमत्कारी घटनाओं के चलते यह मंदिर सिर्फ एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि एक ऐसा जीवंत रहस्य है, जहाँ हर पत्थर, हर दीवार और हर घंटी में देवी की साक्षात उपस्थिति महसूस होती है।
यह जगह केवल दर्शन के लिए नहीं, बल्कि आत्मा को छूने और ईश्वर के करीब लाने का माध्यम है। यही वजह है कि यहाँ आने वाला हर व्यक्ति कुछ न कुछ दिव्यता लेकर ही लौटता है। माँ की प्रेरणा से लिखी गई यह लेखनी अगर आपके दिल में थोड़ा भी श्रद्धा हो तो अधिक से अधिक शेयर करें ताकि माँ कामाख्या देवी की महिमा से हर व्यक्ति परिचित हो। माँ कामाख्या देवी का जीवन मे सच्ची भक्ति भाव से महज़ तीन बार दर्शन मोंक्ष का द्वार खोल सकता है।
सृष्टि की जननी यही हैं और सृष्टि का अंत भी यही हैं। दुर्लभ लेखनी मनपसंद लगी हो तो कमेंट बॉक्स में जय माँ कामाख्या देवी लिखें और शेयर कर माँ के चरणों में कोटि कोटि प्रणाम करें 🙏इन्हीं शब्दों के साथ कलम को माँ की चरणों में समर्पित किया जय माँ जगत-जननी कामाख्या देवी।

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