भाजपा सरकार के धार्मिक राष्ट्रवाद के बीच देव दीपावली और कार्तिक पूर्णिमा जैसे सनातन पर्वों की उपेक्षा क्यों हो रही है? क्या यह “धर्म के नाम पर राजनीति” का नया खेल है? पढ़िए एक व्यंग्यात्मक विश्लेषण।
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लेख भूमिका: जब दीप बुझे तो सिर्फ़ अंधकार नहीं फैलता, संस्कृति भी मरती है—
देव दीपावली, वह पावन रात्रि जब काशी की घाटों पर दीप जलाकर देवता स्वयं गंगा में स्नान करते हैं, आज वही पर्व सरकारी कैलेंडर से लगभग मिट चुका है। और कार्तिक पूर्णिमा, जो भारत की ग्रामीण आत्मा में गुँथी थी, अब सिर्फ़ पन्नों में बची है। पहले गांवों में यह दिन ऐसा होता था जैसे पूरा भारत किसी अदृश्य ध्वनि से पुकारा जा रहा हो — गंगा किनारे दीप, आरती, हवन, मंत्र और भक्ति का समंदर।
लेकिन आज “धर्म की राजनीति” करने वाले शासक, उन्हीं पर्वों को सरकारी छुट्टी की सूची से बाहर कर रहे हैं जिन पर कभी हम भारतवासी के पूर्वजों ने गर्व किया था।

1. धर्म के नाम पर सत्ता, पर धर्म के दिनों में सन्नाटा
भाजपा खुद को हिंदुत्व की जननी बताती है — लेकिन जब बात धर्म के वास्तविक पर्वों की आती है तो उसके कदम सरकारी फाइलों में सिमट जाते हैं।
सवाल उठता है — जो सरकार “राम मंदिर” को अपनी उपलब्धि बताती है, वही “कार्तिक पूर्णिमा, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण जैसे पर्वों पर छुट्टी क्यों समाप्त करती है?
क्या अब धर्म सिर्फ़ चुनावी भाषणों का विषय बन चुका है, न कि जीवन का उत्सव?
सरकारी दफ्तरों में दीपावली की छुट्टी तो अब भी मजबूरी से मिलती है, पर देव दीपावली या पूर्णिमा के दिन कोई उत्सव नहीं।
यही तो विरोधाभास है — मंदिर बनवाना राजनीति है, लेकिन त्यौहार मनाना “अनुत्पादक समय” मान लिया गया है।
2. सूर्य और चंद्र ग्रहण पर भी छुट्टी बंद कर दी गई
पुराने समय में सूर्य ग्रहण के दिन और चंद्र ग्रहण के अगले दिन स्कूल और दफ्तर बंद रहते थे। यह परंपरा स्नान दान तक सिर्फ़ धार्मिक नहीं, बल्कि वैज्ञानिक भी थी — शरीर और मन को विश्राम देने की।
पर अब सरकारी निर्देश कहते हैं — “ग्रहण कोई बीमारी नहीं।”
यह वही सरकार ने किया है जो रामजन्मभूमि पर दीपोत्सव आयोजित करती है, लेकिन बच्चों को यह नहीं बताना चाहती कि सूर्य व चंद्र ग्रहण या कार्तिक स्नान क्यों पवित्र माना गया।
संस्कृति का यह अंधेरा तब और गहरा हो जाता है जब “हिंदू राष्ट्र” के नारों के बीच हिंदू जीवन पद्धति के पर्व ही ग़ायब होने लगते हैं।
3. गाँव का गाँव खाली हो जाता था, अब मनुष्य खाली है
10-15 वर्ष पहले कार्तिक पूर्णिमा के दिन गाँव का हर व्यक्ति गंगा या स्थानीय सरोवर की ओर निकल पड़ता था। खेतों में धान कट चुका होता था, गेहूं की बुवाई हो चुका होता था और किसान परिवार स्नान-दान के लिए सज्जित होता था।
लेकिन आज का किसान किस घाट पर जाए?
जिसकी जेब में मोबाइल है, लेकिन घर में तेल का दीप नहीं। घर में कोई नौकरी पेशा वाला है जो खर्च उठाएं उसके पास छुट्टी नहीं। जिसके पास वोट देने का अधिकार है, पर धर्म निभाने का समय नहीं। भाजपा सरकार ने छुट्टियाँ कम कर दीं, दफ्तरों ने पर्व को “वेकेंड एडजस्टमेंट” बना दिया, और धीरे-धीरे हमारी आत्मा ही छुट्टी पर चली गई।
4. “धर्मनिरपेक्षता” को गाली देने वाले खुद धर्महीन बन गए
भाजपा हर मंच पर धर्मनिरपेक्षता को “छद्म” कहती है।
लेकिन जब वही पार्टी सत्ता में आती है तो धर्म को भी सरकारी नीति के हिसाब से मापती है।
कौन-सा पर्व मनाया जाएगा, यह अब जनता नहीं, बल्कि प्रचार विभाग तय करता है। हिंदू त्व के नाम पर कलंक हमारे धर्म हमारे पर्व को लूप्त करने वाले सत्ताधारी तय करता है।
“दीपावली” चलेगी क्योंकि फोटो चाहिए। “देव दीपावली” नहीं चलेगी क्योंकि उसमें वोट नहीं।
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जो लोग धर्म की रक्षा का दावा करते हैं, वे ही धर्म की आत्मा को सरकारी नोटिस में तब्दील कर चुके हैं?
5. धर्म अब त्योहार नहीं, भाजपा का ट्रेंड बन गया है
ट्विटर और इंस्टाग्राम पर “जय श्रीराम” ट्रेंड करता है, पर कार्तिक स्नान करने वाला हाथ अब गिने-चुने रह गए हैं।
पहले हर परिवार में एक “घाट योजना” होती थी — कौन पहले जाएगा, कौन दान देगा, कौन दीप बहाएगा।
अब सिर्फ़ “सेल्फी घाट” बचे हैं — जहाँ स्नान नहीं, फ़ोटो होती है। और सरकार?
वह “डिजिटल इंडिया” का नारा लगाकर यह दिखा रही है कि धर्म अब स्क्रीन पर ही पर्याप्त है, धरातल पर नहीं।
6. जब संस्कृति और अर्थशास्त्र की टक्कर हुई
भाजपा की नीतियों का एक छिपा हुआ तर्क है — “हर छुट्टी का मतलब उत्पादकता में कमी।”
पर धर्म कोई फैक्ट्री नहीं है कि छुट्टी से घाटा हो जाए।
धर्म तो आत्मा का विश्राम है।
सरकार ने सोच लिया कि जितनी कम छुट्टियाँ होंगी, उतनी कम बिजली जलेगी, उतना कम तेल खर्च होगा, और उतना ही “विकास” बढ़ेगा।
लेकिन उन्हें कौन समझाए कि जब दीप नहीं जलता, तो देश भी अंधकारमय हो जाता है।
7. देव दीपावली का अर्थ अब केवल पर्यटन है
काशी में देव दीपावली आज “टूरिस्ट फेस्टिवल” बन गई है।
सरकार का पर्यटन विभाग लाइटिंग करवाता है, विदेशी मेहमानों के लिए बोट राइड होती है, पर स्थानीय लोग जानते हैं — यह पहले जैसी नहीं रही।
पहले हर घाट पर साधु-संतों की आरती होती थी, अब बैंड-बाजा और कैमरा होता है।
धर्म अब “फोटो सेशन” है और सरकार उसका आयोजक।
8. छुट्टियाँ घटाकर सनातन परंपरा घटाई गई
कार्तिक पूर्णिमा, श्रावणी, रक्षाबंधन, हरियाली तीज — ये बहुत सारे पर्व अब “नॉन गजेटेड” छुट्टियाँ हैं।
अर्थात् अगर आप सरकारी कर्मचारी हैं तो मनाइए, लेकिन अपने रिस्क पर।
यह वही नीति है जिसके तहत सनातनी संस्कृति को धीरे-धीरे “फ्लेक्सी हॉलिडे” बना दिया गया।
अर्थात् धर्म, अब आपकी “परसनल चॉइस” है — सरकार की नहीं।
क्या यही “राम राज्य” का आदर्श है?
9. राजनीतिक धर्म बनाम जीवंत धर्म
भाजपा का “राजनीतिक धर्म” सिर्फ़ मंदिर निर्माण और चुनावी लाभ तक सीमित है।
वहीं सनातन धर्म का “जीवंत धर्म” दान, स्नान, व्रत, और आत्मशुद्धि पर आधारित था।
एक दिखाने के लिए है, दूसरा जीने के लिए।
आज दुख इस बात का है कि जीने वाला धर्म मर रहा है और दिखाने वाला धर्म फल-फूल रहा है।

10. प्रधानमंत्री की आरती और जनता की निराशा
टीवी पर प्रधानमंत्री की दीप जलाते हुए तस्वीरें आती हैं।
लेकिन क्या प्रधानमंत्री ने कभी कहा कि कार्तिक स्नान करो, दान दो, दीप बहाओ?
नहीं।
क्योंकि वह “पब्लिक रिलेशन” नहीं, “पब्लिक स्पिरिचुअल” होता।
धर्म को सरकार ने शोभायात्रा बना दिया है — जहां सब कुछ सजावटी है, पर आत्मा अनुपस्थित।
11. जब धर्म की आत्मा सरकारी फाइलों में फँस गई
हर साल सरकारी कैलेंडर में छुट्टियों की लिस्ट बनती है।
अब उसमें “कार्तिक पूर्णिमा” जैसी तिथियाँ गायब हैं।
कारण पूछा जाए तो जवाब मिलता है — “पब्लिक डिमांड कम है।”
पर कौन तय करेगा यह “डिमांड”?
जिस जनता को आपने पर्व भूलने पर मजबूर किया, वही जनता अब उसे माँगेगी कैसे?
12. राम राज्य की परिभाषा बदल गई
राम राज्य में राज्य के नियम धर्म से चलते थे।
लेकिन आज के “राम राज्य” में धर्म को नियमों से बाँध दिया गया है।
सरकार कहती है — “हमें धर्म पर गर्व है।”
लेकिन छुट्टियाँ काटकर वही सरकार कहती है — “काम ही पूजा है।”
शायद वह यह भूल गई कि पूजा तभी होती है जब श्रद्धा हो, मजबूरी नहीं।
13. समाज की चेतना को शांत कर देना राजनीति की नई रणनीति है।
जब समाज पर्व मनाता है, तो उसमें एकता और जागरूकता आती है।
गांव-गांव में लोग मिलते हैं, बातें करते हैं, समस्याएँ साझा करते हैं।
राजनीति को डर इसी का है।
इसलिए सरकार धीरे-धीरे उन पर्वों को खत्म कर रही है जो जनता को संगठित करते थे।
क्योंकि जो जनता संगठित होती है, वह सवाल पूछती है — और सवाल सरकारें नहीं झेल पातीं।
14. त्योहारों के लोप से अर्थव्यवस्था भी मर रही है
त्योहार सिर्फ़ पूजा नहीं, स्थानीय अर्थव्यवस्था का इंजन थे।
घाटों पर दीप, मटके, मिठाइयाँ, कपड़े, फूल — सब बिकते थे।
अब जब छुट्टियाँ ही नहीं, तो बाजार भी नहीं।
सरकार कहती है कि वह “Make in India” कर रही है, पर जिन त्योहारों से “Sell in Village” होता था, उन्हें ही मिटा रही है।
15. धर्म की रक्षा सिर्फ़ भाषणों से नहीं होती
भक्त और नागरिक में अंतर होता है।
भक्त पूजा करता है, नागरिक पर्व निभाता है।
लेकिन आज भाजपा ने जनता को सिर्फ़ “भक्त” बना दिया है — जो ताली बजाए, पर दीप न जलाए।
क्योंकि दीप जलाने वाला सोचता है, और सोचने वाला प्रश्न करता है और प्रश्न करना अब देश द्रोही कहा जाता है।
16. जब धर्म बाज़ार बन गया, तब श्रद्धा उपभोक्ता बन गई
टीवी चैनलों पर “देव दीपावली स्पेशल” आता है, लेकिन घाटों पर असली दीप बुझे रहते हैं।
सरकार और मीडिया ने मिलकर धर्म को मनोरंजन में बदल दिया है।
अब गंगा की लहरों में श्रद्धा नहीं, बिजली की रोशनी झिलमिलाती है।
जो पर्व आत्मा को शुद्ध करता था, वह अब सिर्फ़ पर्यटन नीति का हिस्सा बन गया।
17. भाजपा की धर्म नीति: दिखावे का महाकाव्य
भाजपा का धर्म वहीं तक चलता है जहाँ तक गोदीमीडिया का कैमरा पहुँचता है।
जहाँ कैमरा नहीं, वहाँ धर्म नहीं।
देव दीपावली अब विज्ञापन है, कार्तिक पूर्णिमा अब फ़ाइल है।
और जनता?
वह बस मोबाइल में “जय श्रीराम” लिखकर खुद को धार्मिक समझ लेती है।
18. सनातन परंपरा का राजनीतिक अपहरण
सनातन धर्म किसी पार्टी की निजी संपत्ति नहीं है।
लेकिन भाजपा ने उसे अपना ब्रांड बना लिया है।
राम, कृष्ण, शिव — सबको चुनावी प्रतीक बना दिया गया।
और बाकी देवता?
वे अब छुट्टियों की सूची से बाहर हैं।
19. धर्म का भविष्य अब जनता के हाथ में है, सरकार के नहीं
अगर जनता चाहे तो हर घर दीप जलेगा, चाहे सरकार छुट्टी दे या न दे। क्योंकि धर्म का अस्तित्व शासन से नहीं, श्रद्धा से है।
पर यदि श्रद्धा भी राजनीति की भाषा में बोलने लगे, तो यह देश “रामराज्य” नहीं, “राजधर्महीन” बन जाएगा।
20. दीप बुझने से पहले एक बार सोचिए
आज जब आप अपने मोबाइल में देव दीपावली की बधाई भेजें, तो याद करें कि कभी यह पर्व घाटों पर दीप जलाकर मनाया जाता था।
जब आप टीवी पर प्रधानमंत्री की आरती देखें, तो सोचें कि क्या आपने अपने घर में आरती की?
सरकार ने छुट्टियाँ काट दीं — लेकिन धर्म को जीवित रखना अब हमारी जिम्मेदारी है।
भाजपा की धर्मनीति का सार यही है —
“दीप जलाओ तो फोटो खिंचवाओ,
मगर दीप का अर्थ मत जानो।”

लेखक भगवान श्री चित्रगुप्त जी के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की निस्पक्ष सुस्पष्ट निर्भिक कलम से हर तरह की सुस्पष्ट जानकारी के लिए बने रहिए amitsrivastav.in साइट पर, बेल आइकॉन को दबा एक्सेप्ट करें एप्स इंस्टाल करें।
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