शिवलिंग की उत्पत्ति कब और कैसे, किस आकृति में हुई सम्पूर्ण जानकारी

Amit Srivastav

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शिवलिंग की उत्पत्ति से संबंधित कईयों धार्मिक, पौराणिक कथाएं और मान्यताएं हैं। शिवलिंग की कथा कई धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है। उनमें से जनमानस में सबसे प्रसिद्ध है “लिंग पुराण” में वर्णित कथा, जो शिवलिंग की उत्पत्ति का वर्णन करती है। तो आइये शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे और कब हुई इस विषय पर सभी धर्म ग्रंथों और पौराणिक कथाओं के मंथन से सटीक जानकारी पाने की कोशिश आज करते हैं।


शिवलिंग से संबंधित जानकारी देने से पहले यह बता दें कि स्त्री स्वरूपा – जगत-जननी, आदिशक्ति, ब्रह्माणी ने सर्वप्रथम बह्माजी को अपनी योग शक्ति से उत्पन्न की, वेद शास्त्र का ज्ञान देते हुए युवा अवस्था प्रदान कर, श्रृष्टि विस्तार में अपने साथ सहभागी बनने की इच्छा प्रकट की, ब्रह्माजी ने इन्कार कर दिया। माता रुष्ट होकर भस्म कर दीं पूनः कुछ युगों बाद एक रचना की वेद शास्त्र का ज्ञान देते हुए युवा अवस्था प्रदान कर श्रृष्टि रचना में सहभागी बनने के लिए पूनः इच्छा व्यक्त की, जो विष्णु जी थे- धर्म-शास्त्र का ज्ञान था, माता की संज्ञा दे इन्कार कर दिए।

विष्णुजी को भी भस्म कर कुछ युगों बाद शिवजी की उत्पत्ति की। समय आने पर अपनी इच्छा व्यक्त की शिव जी ने माता के आदेश को दो शर्तों के स्वीकार किया, शिव जी को भस्म नही कीं इसलिए शिव आदिपुरुष माने जाते हैं और जगत-जननी आदिशक्ति ब्रह्माणी आदि माता। सृष्टि में जो भी है इन्हीं से उत्पन्न हो इन्हीं में समाहित हो जाता है। पंचतत्व से निर्मित शरीर से जब आत्मा निकल जाती है, तब शरीर शव बन जाता है, फिर न जिह्वा बोल पाती है, न शरीर चल पाता है। शरीर में जो संचार होता है – वह शक्ति ही आदिशक्ति का अंश है और शव समान शरीर ही शिव है।

कहने का तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण चर-चराचर शिव व शक्ति का मिश्रित अंश है अलग-अलग हो जाने पर मृत्यु समझा जाता है। इस वृतांत को यहीं विराम दे आते हैं शिवलिंग की उत्पत्ति विषय पर।

शिवलिंग की उत्पत्ति कब और कैसे, किस आकृति में हुई सम्पूर्ण जानकारी

ब्रह्मा और विष्णु की कथा: एक समय, ब्रह्मा और विष्णु के बीच इस बात पर विवाद हो गया कि उनमें से कौन श्रेष्ठ है। दोनों ही अपनी महत्ता और सर्वोच्चता का दावा कर रहे थे। उसी समय, एक तेजस्वी अग्नि का विशाल स्तंभ प्रकट हुआ, जिसकी ऊंचाई और गहराई का कोई अंत नहीं था। ब्रह्मा और विष्णु के विवाद को सुलझाने के लिए स्तम्भ से एक आवाज आई की ब्रह्मा ऊपर विष्णु निचे अंत तक का पता जो लगाकर आयेगा वही श्रेष्ठ व बड़ा माना जायेगा। ब्रह्मा और विष्णु यह जानने के लिए कि इस स्तंभ का स्रोत क्या है, इसके दोनों सिरों का पता लगाने के लिए अलग-अलग दिशाओं में गए।


ब्रह्मा ऊपर की दिशा में गए और विष्णु नीचे की दिशा में। हालांकि, दोनों ही इस स्तंभ का अंत नहीं खोज पाए। अंत में, शिव स्वयं इस स्तंभ से प्रकट हुए और दोनों को बताया कि यह अग्नि स्तंभ उनके अनंत और अद्वितीय रूप का प्रतीक है। वही स्तंभ “शिवलिंग” के रूप में प्रसिद्ध हुआ और ब्रह्मा और विष्णु दोनों ने शिव को सर्वोच्च मानकर उनकी पूजा की।


इस प्रकार शिवलिंग शिव की अनंतता और उनके निराकार स्वरूप का प्रतीक माना जाता है।

शिव पुराण में शिवलिंग की उत्पत्ति से संबंधित एक महत्वपूर्ण कथा का वर्णन मिलता है, जो शिव के निराकार और अनंत स्वरूप की महिमा को दर्शाता है। शिव पुराण के अनुसार।

शिवलिंग की उत्पत्ति – शिव पुराण की कथा:

शिवलिंग की उत्पत्ति कब और कैसे, किस आकृति में हुई सम्पूर्ण जानकारी

प्राचीन काल में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के बीच यह विवाद हुआ कि उनमें से कौन बड़ा है। दोनों अपनी-अपनी श्रेष्ठता का दावा कर रहे थे। उस समय, भगवान शिव ने एक विशाल अग्नि के स्तंभ (ज्योतिर्लिंग) के रूप में प्रकट होकर इस विवाद को सुलझाने का निर्णय लिया।


वह अग्नि का स्तंभ इतना विशाल और अनंत था कि उसकी शुरुआत और अंत किसी को दिखाई नहीं दे रहा था। ब्रह्मा और विष्णु ने इस स्तंभ की गहराई और ऊंचाई का पता लगाने का निर्णय किया। विष्णु ने वराह (सुअर) का रूप धारण कर उस स्तंभ के नीचे की ओर यात्रा की, जबकि ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर ऊपर की दिशा में उड़ गए।


विष्णु ने नीचे तक जाने की कोशिश की, लेकिन स्तंभ का कोई अंत नहीं मिला, अंततः उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली और लौट आए। ब्रह्मा भी काफी दूर तक उड़ने के बाद स्तंभ के शीर्ष तक नहीं पहुंच पाए, लेकिन उन्होंने एक केतकी के फूल को गवाह बनाकर झूठ कहा कि वे स्तंभ के अंत तक पहुंच गए हैं।


यह सुनकर भगवान शिव उस अग्नि स्तंभ से प्रकट हुए और ब्रह्मा के झूठ को जानकर उन्हें श्राप दिया कि अब ब्रह्मा की पूजा संसार में नहीं होगी। शिव का वही श्राप आज भी ब्रह्माजी की पूजा नही होती है और फूलों में सबसे सुंदर केतकी के फुल को किसी देवी-देवता को नही चढ़ाया जाता है। विष्णु जी की सत्यता और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया।

शिवलिंग का प्रतीकात्मक महत्व:

इस कथा के अनुसार, शिवलिंग भगवान शिव के निराकार और अनंत स्वरूप का प्रतीक है। यह बताता है कि शिव का स्वरूप ऐसा है जिसे न देखा जा सकता है और न मापा जा सकता है। शिवलिंग को ब्रह्मांड की उत्पत्ति, स्थिति और अंत का प्रतीक माना जाता है, और इसे शाश्वत सत्य का प्रतीक भी माना जाता है।


इस प्रकार, शिवलिंग भगवान शिव की सर्वोच्चता और उनकी महिमा का प्रतीक है।

दंत कथाओं में शिवलिंग की उत्पत्ति और महिमा से संबंधित कई कहानियाँ हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों और परंपराओं में प्रचलित हैं। इनमें से एक प्रसिद्ध दंत कथा इस प्रकार है।

शिवलिंग की उत्पत्ति – एक दंत कथा

पुरानी मान्यता के अनुसार, एक समय भगवान शिव ने तपस्या करने के लिए हिमालय के एक घने वन में गुफा का चयन किया। वहां शिव गहरे ध्यान में लीन थे। इसी बीच, राक्षसों और असुरों ने धरती पर उत्पात मचाना शुरू कर दिया। देवता उनकी शक्ति से परेशान हो गए और सभी ने मिलकर भगवान शिव से मदद की गुहार लगाई।


लेकिन शिव अपनी तपस्या में लीन थे और उन तक कोई पहुंच नहीं पा रहा था। अंततः, धरती पर संतुलन बनाए रखने के लिए शिव ने अपनी ऊर्जा को एक अग्नि स्तंभ के रूप में प्रकट किया। यह स्तंभ किसी साधारण आकार का नहीं था, बल्कि यह अनंत था और किसी भी ओर से देखा नहीं जा सकता था।


इस अग्नि के स्तंभ को देखकर सभी देवता और असुर हैरान रह गए। देवताओं ने इस स्तंभ की पूजा की और इसे शिव के रूप में मान्यता दी। इसके बाद से यह अग्नि स्तंभ “शिवलिंग” के रूप में पूजित हुआ।

शिवलिंग और भक्तों की कथा:

एक अन्य प्रसिद्ध दंत कथा के अनुसार, एक गरीब शिकारी जंगल में शिकार के लिए निकला। वह भूख और प्यास से पीड़ित था और उसे कोई शिकार नहीं मिल रहा था। थकावट के कारण, वह एक पेड़ के नीचे आराम करने के लिए बैठ गया। उसे इस बात का अंदाजा नहीं था कि पेड़ के नीचे शिवलिंग स्थित है।
वह शिकारी अपने पास की पत्तियों को तोड़कर नीचे गिराता रहा, जो अनजाने में शिवलिंग पर गिर रही थीं। शिकारी की इस अनजाने में की गई सेवा से भगवान शिव प्रसन्न हुए और उसे दर्शन देकर आशीर्वाद दिया।


इस कथा का सार यह है कि भगवान शिव के प्रति सच्ची श्रद्धा और भक्ति के साथ किया गया कोई भी कार्य, चाहे वह जानबूझकर हो या अनजाने में, भगवान शिव को प्रसन्न कर सकता है।

शिवलिंग की उत्पत्ति, शिव लिंग कि उत्पत्ति कैसे हुई

दंत कथाओं में शिवलिंग को शिव की अनंत शक्ति, निराकार स्वरूप और उनकी व्यापकता का प्रतीक माना गया है। यह भगवान शिव के निराकार और अनंत स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे कोई भी रूप, आकार या सीमा में बांधा नहीं जा सकता।


सप्तऋषियों की पत्नियों और शिव से जुड़ी यह कथा प्राचीन हिन्दू पौराणिक कथाओं में आती है और इसे कई स्थानों पर “दक्षिणामूर्ति” से संबंधित कथा के रूप में भी जाना जाता है। इस कथा में शिव का एक रहस्यमय और अद्भुत रूप प्रकट होता है, जो सप्तऋषियों की पत्नियों के साथ जुड़ा हुआ है। यह कथा शिवलिंग की उत्पत्ति और उसके महत्व को भी दर्शाती है।

कथा का वर्णन:

एक बार भगवान शिव ने तपस्या करने के लिए धरती पर अवतार लिया। उन्होंने एक युवा तपस्वी का रूप धारण किया और जंगलों में जाकर ध्यान में लीन हो गए। उस समय, सप्तऋषियों की पत्नियाँ भी उसी जंगल में रहती थीं। जब उन महिलाओं ने शिव के युवा और तेजस्वी रूप को देखा, तो वे उनकी ओर आकर्षित हो गईं और उनके पीछे-पीछे चलने लगीं।


जब सप्तऋषियों को इस बात का पता चला कि उनकी पत्नियाँ शिव के पीछे जा रही हैं, तो उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने भगवान शिव को श्राप दिया, जिसके परिणामस्वरूप शिव का लिंग (शिवलिंग) कट कर धरती पर गिर गया। इस घटना के बाद, पूरा ब्रह्मांड असंतुलित हो गया और चारों ओर हाहाकार मच गया।

शिवलिंग का महत्त्व और स्थापन:

जब शिव का लिंग धरती पर गिरा, तो उससे उत्पन्न ऊर्जा ने संपूर्ण सृष्टि को हिलाकर रख दिया। इस अनंत शक्ति को नियंत्रित करने के लिए सभी देवता, ऋषि, और ब्रह्मा-विष्णु शिव के पास पहुंचे और उनसे इस स्थिति को शांत करने का अनुरोध किया।


भगवान शिव ने उन्हें बताया कि उनका लिंग अनंत शक्ति का प्रतीक है और इसे नियंत्रित करने के लिए इसका उचित स्थान पर स्थापन और पूजा की जानी चाहिए। तब सभी देवताओं और ऋषियों ने मिलकर उस लिंग को एक स्थान पर स्थापित किया और उसकी पूजा की। इसी शिवलिंग की पूजा का प्रचलन शुरू हुआ, जिसे शिव के निराकार और अनंत स्वरूप का प्रतीक माना जाता है।

कथा का आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक महत्व:

इस कथा में यह बताया गया है कि भगवान शिव की शक्ति अनंत और निराकार है। उनका लिंग (शिवलिंग) कोई साधारण वस्तु नहीं है, बल्कि यह शिव की अनंतता और सृष्टि की रचना, स्थिति, और संहार के चक्र का प्रतीक है। सप्तऋषियों और उनकी पत्नियों की यह कथा शिव की असीम महिमा को दर्शाती है, और यह बताती है कि शिव के प्रति सच्ची भक्ति और समर्पण ही उनके वास्तविक स्वरूप को समझने का मार्ग है।


इस प्रकार, शिवलिंग का प्रकट होना और उसकी पूजा का महत्व इसी घटना से जुड़ा हुआ है, जिसे हिन्दू धर्म में अत्यंत पवित्र और महत्त्वपूर्ण माना जाता है। Click on the link ब्लाग पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।


शिवलिंग भगवान शिव के निराकार और अनंत स्वरूप का प्रतीक है। इसका धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व बहुत गहरा है। शिवलिंग को कई प्रतीकात्मक अर्थों में देखा जाता है, जो शिव के विभिन्न रूपों और शक्तियों को दर्शाते हैं।

शिवलिंग के प्रमुख प्रतीकात्मक अर्थ:

शिवलिंग की उत्पत्ति कब और कैसे, किस आकृति में हुई सम्पूर्ण जानकारी

अनंतता और निराकारता का प्रतीक:

शिवलिंग शिव के अनंत और निराकार स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। यह दर्शाता है कि शिव का कोई प्रारंभ या अंत नहीं है, और वे समय और स्थान से परे हैं। शिवलिंग उनकी असीम और अनंत शक्ति का प्रतीक है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है।

सृजन, स्थिति, और संहार का प्रतीक:

शिवलिंग सृष्टि के तीन प्रमुख कार्यों – सृजन, स्थिति, और संहार का प्रतीक है। शिव को इन तीनों कार्यों का नियंता माना जाता है। शिवलिंग के आधार (योनिपीठ) को शक्ति या प्रकृति का प्रतीक माना जाता है, जबकि लिंग शिव के सृजनात्मक ऊर्जा का प्रतीक होता है।

प्राकृतिक और आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रतीक:

शिवलिंग शिव की वह शक्ति है, जो ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होती है। यह ऊर्जा सृजन की शक्ति है, जो प्रकृति और जीवन की निरंतरता को सुनिश्चित करती है। शिवलिंग ध्यान और आध्यात्मिकता का भी प्रतीक है, जिसे तपस्वी और साधक अपने भीतर की ऊर्जा को जागृत करने के लिए पूजते हैं।

पुरुष और प्रकृति का मेल:

शिवलिंग को पुरुष (शिव) और प्रकृति (शक्ति) के मिलन का प्रतीक भी माना जाता है। योनिपीठ, जो शिवलिंग का आधार होता है, प्रकृति या शक्ति का प्रतीक है, और शिवलिंग पुरुष तत्व का प्रतीक है। यह संयोजन सृष्टि की रचना और जीवन की निरंतरता को दर्शाता है।

प्राचीन ब्रह्मांडीय स्तंभ का प्रतीक:

एक अन्य दृष्टिकोण से शिवलिंग को ब्रह्मांडीय स्तंभ के रूप में भी देखा जाता है, जो धरती और आकाश के बीच अनंतता का संकेत देता है। यह स्तंभ जीवन और मृत्यु के बीच के चक्र का प्रतिनिधित्व करता है, जो कभी समाप्त नहीं होता।

ज्ञान और आध्यात्मिकता का प्रतीक:

शिवलिंग शिव के ज्ञानी रूप “दक्षिणामूर्ति” का प्रतीक भी है, जो योग और ध्यान के माध्यम से सत्य को प्रकट करने वाले देवता माने जाते हैं। यह ध्यान और साधना का प्रतीक है, जो आत्म-ज्ञान और मोक्ष की ओर ले जाता है।


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शिवलिंग की उत्पत्ति लेखनी का निष्कर्ष:

शिवलिंग भगवान शिव की असीम और सर्वव्यापी शक्ति, सृजनात्मक ऊर्जा, और उनके निराकार स्वरूप का प्रतीक है। इसे जीवन, प्रकृति, और ब्रह्मांड की अनंतता के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है, जो हिंदू धर्म में विशेष महत्व रखता है।

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