महाकवि कालिदास के जीवन से मृत्यु तक की अद्भुत रोचक यात्रा, जानिये क्या और क्यों दी मां पार्वती ने kalidas को श्राप और कैसे हुई कालिदास की हत्या? पत्नी पार्वती के साथ प्रेम, रत्नावली और विद्योत्तमा कि अलौकिक ज्ञानवर्धक आख्यान को समेटे यह लेख सभी रहस्यों को उजागर करेगा जो आपके लिए एक अनसुनी किन्तु ज्ञानवर्धक होगा।
महाकवि कालिदास कुमारसंभवम् की रचना कर रहे थे भगवान शिव माता पार्वती के साथ कैलाश पर बैठे हुए दिव्य दृष्टि से अपने भक्त कवि Kalidas के कला कौतुक का आनंद उठा रहे थे दिन गुजरते गए और काव्य रचना एक-एक सर्ग पूर्ण होती हुई अपने परिपाक पर पहुंचने को थी भगवान और भगवती आनंदित थे कि तभी आठवां सर्ग आरंभ हुआ शिव-पार्वती विवाह के बाद मिलन के वर्णन का सर्ग हास्य परिहास से शुरू हुआ यह वर्णन धीरे-धीरे श्रृंगार के चरम पर जाता हुआ केली प्रसंग तक जा पहुंचा सीमा पार हो गई।
कालिदास से मर्यादा का उल्लंघन हुआ और भगवती की प्रसन्नता क्रोध में परिणित हो गई देवी पार्वती ने कालिदास को श्राप दिया कि तुमने मेरा अमर्यादित वर्णन किया है अतः तुम्हारी मृत्यु भी अमर्यादित होगी एक वेश्या के हाथों मरोगे तुम, जब अपने उम्र के अंतिम पड़ाव पर सुदूर देश श्रीलंका में एक नवयवना वेश्या कामिनी के हाथों धोखे से कालिदास मारे गए वहीं देवी पार्वती का श्राप फलीभूत हुआ कालिदास के मृत्यु को अपना आधार मिल गया।
तो आखिर श्रीलंका के वेश्या कामिनी कौन थी और कालिदास श्रीलंका क्यों पहुंचे थे कालिदास की पहली पत्नी पार्वती की कहानी क्या है और कालिदास का जीवन वृत्त कैसा रहा यह सब आज हम लेखक भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव मां आदिशक्ति स्वरुपा सर्वशक्तिशाली देवी कामाख्या की कृपा से amitsrivastav.in पर अमित श्रीवास्तव कि कर्म-धर्म लेखनी से जानने का प्रयास करेंगें।
महाकवि कालिदास भारतीय साहित्य के एक ऐसे युग पुरुष हैं, जिनका नाम उनकी रचनाओं—कुमारसंभवम्, मेघदूतम्, और रघुवंशम्—के कारण आज भी विश्व भर में गूंजता है। उनकी कृतियाँ मानव भावनाओं, प्रकृति के सौंदर्य, और श्रृंगार रस का ऐसा अनुपम चित्रण प्रस्तुत करती हैं कि वे कालजयी बन गईं। परंतु कालिदास अपने जीवन के बारे में कुछ भी नहीं बताते—न अपने जन्म का स्थान, न समय, न अपने अनुभव। इसीलिए उनकी जीवनी ऐतिहासिक तथ्यों से कम और लोककथाओं, किंवदंतियों से अधिक रची-बसी प्रतीत होती है।
विद्वानों के बीच उनके जन्म, जीवन, और मृत्यु को लेकर मतभेद हैं, पर उनकी प्रतिभा निर्विवाद है। यह मां कामाख्या देवी की कृपा से भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में जानिये उनके जीवन की कहानी को तथ्यों के आधार पर एक काल्पनिक, रोचक, और अत्यंत विस्तृत ढांचे में, यहां हमारे द्वारा दी गई जानकारी और भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित डॉ. एच. डी. भट्ट शैलेश की पुस्तक से प्रेरित है। इसमें कालिदास के जन्म, उनके प्रेम की कहानी, उनकी विद्वता का उदय, और मृत्यु तक की यात्रा को समेटा गया है।
इसमें उनकी पहली पत्नी पार्वती की कहानी, श्रीलंका की वेश्या कामिनी का रहस्य, और उनके जीवन की प्रमुख घटनाएँ शामिल हैं। कालिदास का जीवन केवल एक कवि का नहीं, बल्कि एक संवेदनशील हृदय का आख्यान है, जो प्रेम, विरह, विद्वता, और मृत्यु के रहस्यमय चक्र में लिपटा हुआ है। उनकी कथा ऐसी है कि यह न केवल ज्ञानवर्धक है, बल्कि भावनाओं को झकझोरने वाली भी है। आइए, इस महान कवि की जीवंत यात्रा को गहराई से जानें और उनके जीवन के हर पहलू को विस्तार से अनुभव करें।
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कालिदास का जीवन परिचय इन हिंदी
Biography of kalidas in hindi
जन्म और प्रारंभिक जीवन: हिमालय की गोद में माँ काली का आशीर्वाद – कालिदास के जन्म के बारे में विद्वानों में लंबे समय से बहस चलती आई है। उनके जन्म का समय और स्थान निश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सका है, पर बहुसंख्यक विद्वानों की मान्यता के अनुसार उनका जन्म उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के कविठा नामक छोटे से गाँव में हुआ था। यह गाँव हिमालय की खूबसूरत तराई में बसा था, जहाँ प्रकृति का सौंदर्य चारों ओर बिखरा हुआ था। बीते सालों में यहाँ भारत सरकार ने कालिदास की स्मृति में एक प्रतिमा और सभागार बनवाया है, जहाँ प्रत्येक वर्ष जून के महीने में साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन होता है।
यह स्थान उनकी महानता का परिचय देता है, इस गाँव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में धर्मनंद और उनकी पत्नी रहते थे। उनकी संपत्ति केवल जीने-खाने भर की थी, पर जहाँ संतोष हो, वहाँ अभाव का एहसास कहाँ होता है? दोनों पति-पत्नी अपनी भौतिक स्थिति से संतुष्ट थे, पर जैसे-जैसे समय बीता, एक दुख उनके मन को सताने लगा। विवाह के कई वर्षों बाद भी उन्हें संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था। यह अभाव धीरे-धीरे उनके जीवन में एक गहरे दर्द के रूप में बदलने लगा। संतान की चाह में उन्होंने बहुत सारी पूजा-पाठ की विधियाँ कीं।
मंदिरों के चक्कर लगाए, व्रत-उपवास किए, और कई महात्माओं से आशीर्वाद माँगा, पर उनकी गोद सूनी रही। समय के साथ उनका यह दुख गहराता गया, और उनकी आँखों में संतान का मुख देखने की लालसा बढ़ती गई। अंततः एक दिन हिमालय से एक महान संत उनके गाँव में आए। चूँकि यह गाँव हिमालय की तराई में बसा था, यहाँ महात्माओं और साधुओं का आना-जाना लगा रहता था। धर्मनंद और उनकी पत्नी तुरंत उनके चरणों में जा गिरे। वे फूट-फूटकर रोने लगे और अपनी व्यथा सुनाई, “बाबा, मेरे दुख का निवारण केवल आप ही कर सकते हैं। मुझे संतान का मुख देखना है।”
महात्मा ने उन्हें उठाया, सांत्वना दी और कहा, “वत्स, चिंता मत करो। तुम्हारे घर एक पुत्र जन्म लेगा। वह कोई साधारण पुत्र नहीं होगा, बल्कि ऐसा पुत्र होगा जो तुम्हारा और इस विश्व का नाम सदियों तक अमर कर देगा। इसके लिए तुम्हें माँ काली की कठोर उपासना करनी होगी।”
यह सुनकर धर्मनंद और उनकी पत्नी का मन आनंद से भर गया। वे घर लौटे और पूरे वर्ष माँ काली की भक्ति में लीन रहे। दोनों नवरात्रियों में कठिन अनुष्ठान किए, दिन-रात माँ काली का ध्यान किया, और अपनी पूरी श्रद्धा उनके चरणों में अर्पित कर दी। अंततः तय समय पर उनकी प्रार्थना रंग लाई और उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। चूँकि यह पुत्र माँ काली के आशीर्वाद से जन्मा था, उसका नाम रखा गया—कालिदास। कालिदास का जन्म उनके माता-पिता के लिए एक चमत्कार से कम नहीं था। वह बचपन से ही अत्यंत सुंदर थे।
उनकी सुंदरता ऐसी थी कि गाँव में उनकी चर्चा होने लगी। उनकी बड़ी-बड़ी आँखें, कोमल चेहरा, और मासूम मुस्कान हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती थी। परंतु यह सुख ज्यादा दिन न टिका। जब कालिदास केवल चार वर्ष के थे, उनके माता-पिता का अचानक देहांत हो गया। इस छोटी सी उम्र में वे अनाथ हो गए। उनके जीवन में यह पहला बड़ा आघात था, जिसने उनके कोमल हृदय पर गहरी चोट छोड़ी। उस समय गाँव की संरचना बड़ी सुंदर थी। यदि किसी पर संकट आता, तो सारा गाँव एकजुट होकर उसकी मदद करता था।
कालिदास अभी बहुत छोटे थे, ऐसे में गाँव के मुखिया ने उनकी जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली। मुखिया ने उन्हें अपने बच्चे की तरह पाला और कभी माता-पिता का अभाव खलने नहीं दिया। हालाँकि वे यतीम थे और यह दुख उनके मन में कहीं न कहीं बना रहता था, पर खाने-पीने की कोई कमी उन्हें न हुई। मुखिया का परिवार उनकी हर जरूरत का ध्यान रखता था। कालिदास का गला बड़ा मधुर था। जब वे बोलने लायक हुए, तो उनकी आवाज में एक अनोखी मिठास थी। वे अपने आसपास की चीजों—पेड़-पौधों, नदियों, पहाड़ों—को देखते और उन्हें कविताओं में ढाल देते। फिर इन्हें अपने मधुर स्वर में गाते।
कहते हैं कि उनके गीत इतने सुंदर होते थे कि लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। न केवल मनुष्य, बल्कि पशु-पक्षी भी उनके गीतों की ओर खिंचे चले आते और चुपचाप सुनने लगते। इस तरह कालिदास का बचपन धीरे-धीरे बीतने लगा। उनकी प्रतिभा बचपन से ही झलकने लगी थी, जो आगे चलकर उन्हें महान कवि बनाएगी। एक बार हिमालय से एक बड़ा पहुँचा हुआ महात्मा उनके गाँव में आए। गाँव वाले उनके दर्शन के लिए गए। कालिदास भी वहाँ थे, पर अपने अनाथ होने के कारण वे पीछे खड़े थे। उनकी आँखों में एक उदासी थी, जो उनकी छोटी उम्र के बावजूद साफ दिखाई देती थी।
महात्मा की दृष्टि उन पर पड़ी। उन्होंने कालिदास को अपने पास बुलाया और पूछा, “पुत्र, तुम चिंतित क्यों हो? दुखी क्यों दिखाई देते हो?” कालिदास के मुँह से कोई शब्द न निकला। वे चुपचाप खड़े रहे। महात्मा ने उनका हाथ अपने हाथों में लिया, उनकी हस्तरेखाएँ देखीं, और फिर गंभीर स्वर में बोले, “पुत्र, चिंता मत करो। तुम बड़े महान व्यक्ति बनने वाले हो। तुम्हारा विवाह एक राजकुमारी से होगा, और उसके बाएँ गाल पर ठीक वैसा ही तिल होगा जैसा तुम्हारे बाएँ गाल पर है।”
यह सुनकर गाँव के कुछ दुष्ट प्रवृत्ति के लोग हँसने लगे। वे सोचते थे कि एक अनाथ, जो गाँव वालों की कृपा पर निर्भर है, वह कैसे महान बनेगा? उनकी हँसी में जलन और अविश्वास था। परंतु महात्मा ने इन काना-फूसियों और हँसियों की ओर ध्यान नहीं दिया। वे अपनी बात कहकर वहाँ से चले गए। इस घटना ने कालिदास के मन में एक नई आशा जगा दी। हालाँकि वे अभी छोटे थे, पर महात्मा के शब्द उनके हृदय में गहरे उतर गए। इस तरह उनका बचपन बीतता गया, जहाँ दुख और प्रतिभा एक साथ पनप रहे थे।
प्रथम प्रेम और दुख की शुरुआत: पार्वती के साथ सुख और बिछोह
कालिदास धीरे-धीरे बड़े होने लगे। गाँव में उनकी सुंदरता और मधुर गायन की चर्चा अब हर किसी की जुबान पर थी। गाँव के मुखिया की एक बेटी थी—पार्वती। पार्वती कालिदास से उम्र में थोड़ी छोटी थी, पर उनकी सुंदरता और गीतों ने उसे भी प्रभावित किया। धीरे-धीरे पार्वती का मन कालिदास की ओर खिंचने लगा। कालिदास जब गाते, तो पार्वती दूर से उन्हें सुनती और उनकी आवाज में खो जाती। कालिदास भी पार्वती की सादगी और कोमल स्वभाव से प्रभावित थे। यह युवावस्था का पहला प्रेम था, जो इतना प्रगाढ़ था कि दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे से लगते थे।
पहला प्रेम कितना गहरा और पवित्र होता है, यह शायद हर कोई समझ सकता है। कालिदास और पार्वती के बीच भी यही भावना थी। वे एक-दूसरे के साथ समय बिताते, हँसते-बोलते, और अपने सपनों की छोटी-सी दुनिया बसाते। गाँव के लोग भी उनके प्रेम को देखकर मुस्कुराते थे। मुखिया ने अपनी बेटी की आँखों में कालिदास के लिए प्रेम देखा। वह एक दयालु और समझदार व्यक्ति था। उसने पार्वती और कालिदास की भावनाओं का सम्मान किया और दोनों का विवाह करवा दिया। यह विवाह गाँव में एक उत्सव की तरह मनाया गया। कालिदास और पार्वती सुखपूर्वक पति-पत्नी बन गए।
उनके दिन हँसी-खुशी में बीतने लगे। कालिदास अपनी कविताएँ पार्वती को सुनाते, और पार्वती उन्हें बड़े ध्यान से सुनती। उनके छोटे से घर में प्रेम और संतोष का वास था। परंतु ईश्वर की लीला ऐसी होती है कि वह सुख को ज्यादा दिन टिकने न दे। कालिदास सुखपूर्वक जीने और गाँव में बंधे रहने के लिए बने नहीं थे। उनके जीवन में दुखों का पहाड़ टूटने वाला था। एक दिन अचानक गाँव पर डकैतों ने हमला कर दिया। यह हमला इतना भयंकर था कि गाँव में हाहाकार मच गया। डकैतों ने खूब लूटपाट की। गाँव के मुखिया ने उनकी टक्कर लेने की कोशिश की, पर वह डकैतों के हाथों मारा गया।
इस हमले में सबसे बड़ा आघात तब लगा, जब डकैत पार्वती को अगवा करके ले गए। कालिदास उस समय शायद कहीं बाहर थे। जब वे लौटे, तो उनके सामने केवल तबाही का मंजर था। मुखिया की मृत्यु और पार्वती का अपहरण—यह दृश्य उनके लिए असहनीय था। कालिदास और गाँव वालों ने पार्वती को खोजने की बहुत कोशिश की। जंगलों में गए, आसपास के गाँवों में पूछताछ की, पर उसका कोई पता न चला। डकैत उसे कहाँ ले गए, यह एक रहस्य बन गया। इस बिछोह ने कालिदास को भीतर तक तोड़ दिया। उनकी दुनिया उजड़ गई। पार्वती उनके जीवन का आधार थी, और अब वह छिन गई थी।
वे इस दुख को बर्दाश्त न कर सके। गाँव में रहना उनके लिए असंभव हो गया। हर कोने में पार्वती की यादें थीं, जो उनके हृदय को चीर रही थीं। अंततः कालिदास ने गाँव छोड़ने का फैसला किया। वे अपने प्रेम के इस दर्द को लेकर भ्रमण पर निकल पड़े। उनके पास कुछ भी नहीं था—न धन, न संपत्ति, केवल उनके गीत और कविताएँ थीं। ब्राह्मण परिवार में जन्मे होने के कारण उन्हें पिता से ज्ञान की थोड़ी-बहुत विरासत मिली थी। अब वे इस ज्ञान और अपनी प्रतिभा को लेकर आगे बढ़े। भटकते हुए उनकी ख्याति एक कवि और गायक के रूप में फैलने लगी। वे जहाँ जाते, वहाँ अपनी कविताएँ सुनाते और गीत गाते।
लोग उनकी मधुर आवाज और भावपूर्ण रचनाओं से प्रभावित होते। इस भटकन ने उन्हें अनुभवों का एक विशाल भंडार दिया। जो ज्ञान किताबों से नहीं मिलता, वह उन्हें यात्राओं से मिला। अलग-अलग समाज, भूगोल, और संस्कृतियों से परिचय ने उनके जीवन दर्शन को विस्तृत किया। उनकी कविताओं में अब गहराई आने लगी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति इतनी बढ़ी कि यह राजा विक्रमादित्य के दरबार तक पहुँच गई। कुछ लोगों ने उनसे कहा, “तुम इधर-उधर क्यों भटकते हो? एक बार राजा विक्रमादित्य के दरबार में जाओ।
वहाँ तुम्हें तुम्हारी विद्वता का समुचित सम्मान मिलेगा।” कालिदास को भौतिकता से कोई मतलब नहीं था। वे धन या वैभव के पीछे नहीं थे। पर अपनी विद्वता और कला को दुनिया तक पहुँचाने की इच्छा उनके मन में थी। इसलिए वे विक्रमादित्य के दरबार की ओर चल पड़े। यह उनके जीवन का एक नया मोड़ था, जो उन्हें एक साधारण भटकते कवि से महान कवि के रूप में स्थापित करने वाला था।
कालिदास: काव्यात्मक जीवन की अनसुनी 1 अद्भुत गाथा
Kalidas: An unheard and amazing tale of his poetic life
महाकवि कालिदास के काव्यात्मक जीवंत लेख के उपरोक्त शिर्षक में हमने उनके जन्म, प्रारंभिक जीवन, और पार्वती के साथ प्रेम व बिछोह तक का वर्णन किया है। अब हम उनकी यात्रा, विक्रमादित्य के दरबार में प्रवेश, उनकी दूसरी पत्नी रत्नावली की कहानी, और विद्वता के उदय तक की घटनाओं को विस्तार से जानेंगे। आगे लेख और भी रुचिकर और ज्ञानवर्धक होने वाला है तो पढ़िए अंत तक इस लेख में कालिदास से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी मिलेगी। कालिदास का जीवन एक संवेदनशील हृदय की यात्रा है, जो प्रेम, दुख, और काव्य की गहराइयों से होकर गुजरती है। आइए, इस यात्रा के अगले पड़ाव को गहराई से अनुभव करें।
यात्रा और ख्याति का प्रसार: भटकन से दरबार तक
पार्वती के बिछोह ने कालिदास को गाँव से निकलने के लिए मजबूर कर दिया था। उनके पास कुछ भी नहीं था—न धन, न संपत्ति, न कोई ठिकाना। उनके पास केवल उनकी कविताएँ और गीत थे, जो उनके हृदय के दर्द को व्यक्त करते थे। ब्राह्मण परिवार में जन्मे होने के कारण उन्हें अपने पिता से ज्ञान की थोड़ी-बहुत विरासत मिली थी, पर अब वे इसे अपनी भटकन के अनुभवों से समृद्ध करने लगे। वे गाँव-गाँव, जंगल-जंगल, और नगर-नगर भटकते हुए आगे बढ़े। उनकी यात्राएँ केवल शारीरिक नहीं थीं, बल्कि एक आंतरिक खोज की प्रक्रिया थीं। जहाँ वे जाते, वहाँ अपनी कविताएँ सुनाते और गीत गाते।
उनकी मधुर आवाज और भावपूर्ण रचनाएँ सुनने वालों को मंत्रमुग्ध कर देती थीं। लोग उनके गीतों में खो जाते, और उनकी कविताओं में प्रकृति और प्रेम का ऐसा समन्वय देखते कि वे उनकी प्रशंसा किए बिना न रह पाते। कहते हैं कि उनकी आवाज में एक जादू था, जो सुनने वालों के हृदय को छू लेता था। उनकी रचनाओं में पार्वती के लिए उनका विरह साफ झलकता था, जो उन्हें और भी मार्मिक बनाता था। इस भटकन ने उन्हें अनुभवों का एक विशाल भंडार दिया। जो ज्ञान किताबों से नहीं मिलता, वह उन्हें यात्राओं से मिला। अलग-अलग समाजों, भूगोलों, और संस्कृतियों से परिचय ने उनके जीवन दर्शन को विस्तृत किया।
वे नदियों के किनारे बैठकर उनके प्रवाह को कविता में ढालते, पहाड़ों की चोटियों को देखकर उनकी ऊँचाई को शब्दों में बाँधते, और जंगलों की शांति को अपने गीतों में उतारते। उनकी कविताओं में अब एक गहराई आने लगी थी, जो केवल किताबी ज्ञान से नहीं, बल्कि जीवन के कठिन अनुभवों से उपजी थी। धीरे-धीरे उनकी ख्याति एक कवि और गायक के रूप में फैलने लगी। लोग उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर से आने लगे। उनकी कला की चर्चा गाँवों से निकलकर नगरों तक पहुँची। कुछ विद्वानों और साहित्य प्रेमियों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उनसे कहा,-
“तुम इतना बड़ा हुनर लेकर इधर-उधर क्यों भटकते हो? तुम्हें अपनी कला को बड़े मंच पर ले जाना चाहिए। राजा विक्रमादित्य का दरबार विद्वानों और कवियों का सम्मान करता है। वहाँ जाओ, तुम्हें तुम्हारी विद्वता का समुचित फल मिलेगा।”
कालिदास को भौतिकता से कोई लगाव नहीं था। वे न तो धन चाहते थे, न वैभव। उनका उद्देश्य केवल अपनी कला को दुनिया तक पहुँचाना था। वे अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के हृदय तक पहुँचना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने इन सुझावों को गंभीरता से लिया और राजा विक्रमादित्य के दरबार की ओर चल पड़े। यह यात्रा उनके लिए आसान नहीं थी। उनके पास न कोई साधन था, न कोई सहारा। वे पैदल ही चलते गए, रास्ते में आने वाली हर मुश्किल को पार करते हुए।
उनकी यह यात्रा केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक नहीं थी, बल्कि एक साधारण भटकते कवि से महान कवि बनने की ओर बढ़ता हुआ कदम थी। जब वे विक्रमादित्य के दरबार में पहुँचे, तो उनकी हालत देखने लायक थी। उनके कपड़े फटे हुए थे, शरीर थकान से चूर था, पर उनकी आँखों में एक चमक थी और उनकी आवाज में वही मिठास थी, जो लोगों को अपनी ओर खींचती थी। यहाँ से उनके जीवन का एक नया अध्याय शुरू होने वाला था।
विक्रमादित्य के दरबार में प्रवेश: रत्नावली और दूसरा विवाह
विक्रमादित्य का दरबार उस समय विद्वानों, कवियों, और कलाकारों का केंद्र था। यहाँ देश भर से प्रतिभाशाली लोग आते थे और अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। कालिदास जब दरबार में पहुँचे, तो उनकी सादगी और थकी हुई शक्ल देखकर पहले तो किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया। पर जब वे बोलने लगे, अपनी कविताएँ सुनाने लगे, तो सारा दरबार स्तब्ध रह गया। उनकी मधुर आवाज और गहरी रचनाओं ने वहाँ मौजूद हर विद्वान को प्रभावित किया। उन्होंने अपनी कुछ कविताएँ सुनाईं, जिनमें पार्वती के लिए उनका विरह और प्रकृति का सौंदर्य ऐसा घुला-मिला था कि सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो गए।
दरबार के विद्वानों ने उनके सामने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं, पर कालिदास की कला के सामने सब फीके पड़ गए। उनकी विद्वता और काव्य कौशल को देखकर सभी ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा विक्रमादित्य स्वयं विद्वानों को सम्मान देने वाले शासक थे। जब उन्होंने कालिदास की प्रतिभा को देखा, तो वे भी मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने कालिदास से अनुरोध किया — “आप हमारे दरबार में रहें और राज्य कवि बनें। आपकी कला को यहाँ वह सम्मान मिलेगा, जिसकी वह हकदार है।”
कालिदास का मन दरबार में बंधने का नहीं था। वे स्वतंत्र आत्मा थे, जो भटकन में ही अपनी शांति ढूँढते थे। उन्होंने विनम्रता से इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पर विक्रमादित्य उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे। कालिदास युवा थे, सुंदर थे, और उनकी विद्वता बेजोड़ थी। विक्रमादित्य ने सोचा कि यदि कालिदास को दरबार से जोड़ा जाए, तो उनकी प्रतिभा का लाभ पूरे राज्य को मिलेगा। इसलिए उन्होंने एक चतुराई भरा कदम उठाया। उनकी एक पुत्री थी—रत्नावली। रत्नावली सुंदर, बुद्धिमान, और कला प्रेमी थी। विक्रमादित्य ने रत्नावली का विवाह कालिदास से करवा दिया। यह विवाह कालिदास के लिए अप्रत्याशित था।
वे पार्वती के प्रेम को भूल नहीं पाए थे। उनके हृदय में पार्वती की यादें अभी भी ताजा थीं। इसीलिए वे रत्नावली पर पूरा ध्यान नहीं दे पाए। रत्नावली एक संवेदनशील और प्रेम की चाह रखने वाली युवती थी। वह अपने पति से प्रेम और साथ चाहती थी, पर कालिदास का मन कहीं और अटका हुआ था। वे अक्सर उदास रहते, अपनी कविताओं में खोए रहते। रत्नावली को यह देखकर दुख होता। एक दिन उसने कालिदास से पूछा, — “आप हमेशा इतने अनमने क्यों रहते हैं? क्या मैं आपके प्रेम के योग्य नहीं हूँ?”
कालिदास ने अपनी उदासी का कारण बताया। उन्होंने पार्वती के साथ अपने पहले प्रेम और उसके बिछोह की कहानी सुनाई। यह सुनकर रत्नावली का हृदय द्रवित हो गया। उसने अपने पिता विक्रमादित्य से कहा कि पार्वती को खोजने के लिए सैनिक भेजे जाएँ। विक्रमादित्य ने अपनी पुत्री की बात मानी और सैनिकों को उस गाँव और आसपास के इलाकों में भेजा। सैनिकों ने डकैतों का पता लगाने की कोशिश की, जंगलों में खोज की, पर पार्वती का कोई सुराग न मिला। यह खोज असफल रही। रत्नावली इस असफलता से और दुखी हो गई।
वह कालिदास का प्रेम चाहती थी, पर उनके हृदय में पार्वती का स्थान कोई न ले सका। कालिदास की अनमनी हालत और रत्नावली से दूरी धीरे-धीरे रत्नावली के लिए असहनीय होती गई। वह अपने पति के प्रेम से वंचित रहकर अकेलापन महसूस करने लगी। यह दुख धीरे-धीरे उसके शरीर को कमजोर करने लगा। वह बीमार पड़ गई। विक्रमादित्य ने अपनी पुत्री की हालत देखी और सोचा कि शायद कालिदास को कोई बड़ी जिम्मेदारी दी जाए, तो उनका मन लगे और वे रत्नावली पर ध्यान दे सकें। इसीलिए उन्होंने कालिदास को कश्मीर का राजा बना दिया।
कालिदास कश्मीर गए, पर वहाँ का हिमालयी वातावरण देखकर पार्वती की यादें और गहरी हो गईं। उनकी बेचैनी बढ़ गई। वे पार्वती के बिना रह नहीं सकते थे। उनका मन अब न घर में लगता था, न राज्य में। अंततः उन्होंने विक्रमादित्य को एक स्पष्ट चिट्ठी लिखी, “मैं अब राज्य काज से मुक्त होना चाहता हूँ।” यह चिट्ठी उनके मन की पूरी व्यथा को व्यक्त करती थी।
विक्रमादित्य ने उनकी इच्छा को स्वीकार किया और कालिदास ने राज्य त्याग दिया। रत्नावली का दुख अब रोग का रूप ले चुका था। वह अपने पति के प्रेम से वंचित रहकर धीरे-धीरे टूटती गई और अंततः इस रोग से उसकी मृत्यु हो गई। रत्नावली की मृत्यु कालिदास के लिए एक और बड़ा आघात थी। वह उनके जीवन का एक ऐसा धागा थी, जो उन्हें दैहिक जीवन से जोड़े रखता था। अब वे पूरी तरह से अपने मन के आकाश में खो गए।
विद्वता का उदय: काशी और विद्योत्तमा की कहानी
रत्नावली की मृत्यु के बाद कालिदास ने राज्य और दरबार को हमेशा के लिए त्याग दिया। वे फिर से भटकने लगे। इस बार उनकी यात्रा उन्हें काशी ले गई। काशी उस समय विद्वता की नगरी थी। यहाँ देश भर से पढ़ने-लिखने के शौकीन लोग आते थे। यहाँ के राजा की एक बेटी थी—विद्योत्तमा। विद्योत्तमा एक प्रकांड विद्वान थी। उसकी विद्वता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। राजा चाहते थे कि उसका विवाह उनके मंत्री वरुचि के पुत्र से हो। वरुचि का पुत्र भी विद्वान था, पर विद्योत्तमा उसे पसंद नहीं करती थी।
उसने एक शर्त रखी,— “यदि वरुचि मुझे शास्त्रार्थ में हरा देगा, तो मैं उससे विवाह कर लूँगी। और यदि कोई अन्य मुझे हरा देगा, तो मैं उसी से विवाह करूँगी।” यह शर्त सुनकर वरुचि ने विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ किया, पर वह हार गया। इस हार से वरुचि के मन में बदले की भावना जागी। वह विद्योत्तमा को अपमानित करना चाहता था। उसने सोचा कि यदि कोई मूर्ख विद्योत्तमा को हरा दे, तो उसका घमंड टूटेगा। उसने एक मूर्ख की तलाश शुरू की। कई विद्वानों ने विद्योत्तमा से शास्त्रार्थ करने की कोशिश की, पर वे सब हार गए। ये हारे हुए विद्वान भी वरुचि के साथ हो गए।
उनकी तलाश तब पूरी हुई, जब कालिदास काशी पहुँचे। उस समय कालिदास की हालत बहुत खराब थी। उनके राजसी वस्त्र फटकर लत्ता बन गए थे। उनका सुंदर चेहरा बिखरी दाढ़ी और बालों से ढक गया था। लोग उन्हें मूर्ख समझते थे। वे पार्वती और रत्नावली के दुख में डूबे हुए थे। उनकी प्रसिद्धि अब गायब हो चुकी थी। लोग उन्हें केवल एक भटकते हुए गायक के रूप में जानते थे। वरुचि ने कालिदास को देखा और सोचा कि यह मूर्ख ही उसकी योजना के लिए सही है। उसने कालिदास को विद्योत्तमा के सामने शास्त्रार्थ के लिए पेश किया।
कालिदास उस समय बोलने की हालत में नहीं थे। उनकी उदासी और थकान ने उन्हें मौन बना दिया था। शास्त्रार्थ में कुछ ऐसा संयोग हुआ कि कालिदास विजयी घोषित हो गए। यह विजय उनकी विद्वता से नहीं, बल्कि एक संयोग से हुई थी। विद्योत्तमा को इससे कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि उसने शर्त रखी थी। उसका कालिदास से विवाह हो गया। पर जब विद्योत्तमा को पता चला कि कालिदास मूर्ख हैं और उनकी विजय केवल संयोग थी, तो वह क्रोधित हो गई। उसने कालिदास को अपमानित किया और घर से निकाल दिया। यह अपमान कालिदास के लिए एक turning point था।
उज्जैन शक्तिपीठ माता हरसिद्धि से मिला था कालिदास को दृब्य ज्ञान का वरदान
वे उज्जैन के शक्तिपीठ माँ काली के मंदिर गए। वहाँ उन्होंने कठोर उपासना की। दिन-रात माँ काली का ध्यान किया और अपनी बुद्धि को प्रखर करने की प्रार्थना की। माँ काली की कृपा से उनकी विद्वता न केवल लौट आई, बल्कि वह इतनी प्रखर हो गई कि अब उनके समान कोई दूसरा विद्वान इस धरती पर नहीं था। वे घर लौटे और विद्योत्तमा के दरवाजे पर खड़े होकर बोले, “कपाटम उद्घाट सुंदरी” (दरवाजा खोलो सुंदरी)। विद्योत्तमा ने उनकी आवाज पहचानी, पर व्यंग्य में कहा, “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष” (कोई विद्वान लगता है)। वह सोच रही थी कि यह फिर से कोई रटा हुआ वाक्य है।
कालिदास ने इस व्यंग्य को समझा। यह उनके मर्म पर चोट थी। अपने सम्मान को वापस पाने के लिए उन्होंने तीन महाकाव्य लिखे—‘अस्ति’ से कुमारसंभवम्, ‘कश्चित्’ से मेघदूतम्, और ‘वाग्विशेष’ से रघुवंशम्। ये काव्य जब विद्योत्तमा तक पहुँचे, तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। वह कालिदास के पास लौटी और क्षमा माँगी, पर कालिदास ने उसे क्षमा नहीं किया। उनकी विद्वता अब चारों ओर फैल गई थी।

महाकवि कालिदास: एक काव्य जीवन की अंतिम यात्रा
उपरोक्त लेख में हमने कालिदास के जन्म, प्रारंभिक जीवन, और पहली पत्नी पार्वती के साथ प्रेम व बिछोह को दर्शाते उनकी भटकन, विक्रमादित्य के दरबार में प्रवेश, रत्नावली की कहानी, और विद्योत्तमा के साथ विद्वता का उदय शामिल किया। अब हम उनकी श्रीलंका यात्रा, मृत्यु, उनके काल और कार्यस्थली, और जीवन के अंतिम रहस्यों को विस्तार से जानेंगे। सर्वशक्तिशाली मां कामाख्या देवी की कृपा से हमारे इस रिसर्च लेख में कालिदास से सम्बंधित वो अद्भुत प्रश्नों के उत्तर समाहित हैं जो आपको अन्य लेख में शायद न मिले।
हमारे मन में इस नवरात्रि इस लेख को लिखने का विचार आखिर क्यों आया? शायद इसलिए देवी कामाख्या ने लिखने के लिए प्रेरित किया कि भक्तों को यह ज्ञान प्राप्त हो सके, देवी के कृपा पात्र बने रहने के लिए उनका गुणगान तो ठीक है, किन्तु अपमान करना अक्षम्य हो सकता है। कालिदास का जीवन एक संवेदनशील हृदय की यात्रा है, जो प्रेम, दुख, और काव्य की गहराइयों से होकर गुजरती है। कालिदास के जीवन का अंत मां पार्वती देवी के दिए गए श्राप से, एक कामिनी नाम कि वेश्या के हाथ जो (सुदुर देश अपमान और ग्लानि से भरा) दूर देश श्रीलंका में होती है तो आइए, इस यात्रा के अंतिम पड़ाव को गहराई से अनुभव करें।
श्रीलंका की यात्रा: पार्वती से पुनर्मिलन और अंतिम वचन
विद्योत्तमा के साथ घटना के बाद कालिदास की ख्याति एक महान कवि के रूप में चारों ओर फैल चुकी थी। उनकी रचनाएँ—कुमारसंभवम्, मेघदूतम्, और रघुवंशम्—लोगों के मुँह पर थीं। पर उनका मन अभी भी शांत नहीं था। पार्वती का बिछोह और रत्नावली की मृत्यु उनके हृदय में गहरे घाव छोड़ गई थीं। वे अपनी कविताओं में खोए रहते, पर भीतर एक अधूरापन हमेशा बना रहता। उम्र के अंतिम पड़ाव में, जब वे लगभग 80 वर्ष के हो चुके थे, उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। श्रीलंका के राजकुमार कुमारगुप्त, जो कालिदास की कविताओं के बड़े प्रशंसक थे, ने उन्हें एक संदेश भेजा।
कुमारगुप्त ने रघुवंशम् से प्रेरित होकर एक काव्य लिखा था—‘जानकी हरणम्’। यह काव्य बड़ा सुंदर था और उसमें रघुवंशम् की छाप साफ दिखाई देती थी। उन्होंने कालिदास से अनुरोध किया कि वे इसे पढ़ें। कालिदास ने काव्य पढ़ा और बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रत्युत्तर में लिखा, “मैं आपके इस काव्य से अति प्रभावित हूँ।” इसके बाद दोनों में पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हुआ। उम्र में बड़ा अंतर होने के बावजूद उनकी विद्वता और काव्य प्रेम ने उन्हें गहरे मित्र बना दिया।
एक दिन कुमारगुप्त ने अपने पत्र में लिखा,—“महाकवि, आपने अपनी रचनाओं में जो प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है, वह श्रीलंका में और अधिक निखरकर दिखाई देता है। कृपया एक बार मेरे देश में पधारें।” कालिदास इस अनुरोध से प्रभावित हुए। उन्होंने अपने मित्र से वचन दिया, “मैं आपके राज्य में आऊँगा।” यह निर्णय उनके लिए आसान नहीं था। 80 वर्ष की उम्र में उज्जैन से श्रीलंका तक की यात्रा उस समय एक बड़ी चुनौती थी। आज की तरह साधन सुलभ नहीं थे। पर कालिदास ने अपने वचन को पूरा करने का संकल्प लिया। वे उज्जैन से निकले।
उनके पास केवल एक छोटी पोटली थी, जिसमें उनकी रचनाओं की प्रतियाँ और कुछ नए गीत थे, जो वे कुमारगुप्त को भेंट करना चाहते थे। यात्रा लंबी और कठिन थी। वे भारतवर्ष के विभिन्न राज्यों से गुजरते हुए आगे बढ़े। जंगलों, पहाड़ों, और नदियों को पार किया। हर कदम पर उनकी थकान बढ़ती गई, पर उनके मन में अपने मित्र से मिलने की उत्सुकता उन्हें आगे खींचती रही। अंततः वे कन्याकुमारी पहुँचे। यहाँ समुद्र का किनारा था। आगे का रास्ता नाव से तय करना था। थकान के कारण उन्होंने कुछ दिन विश्राम करने का फैसला किया। विश्राम के दौरान उन्हें एक आश्रम का पता चला। वे वहाँ गए।
वहाँ एक बूढ़ी स्त्री उनके पास आई और उनके चरणों में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगी। कालिदास आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने उसे उठाया और पूछा, “आप कौन हैं? मेरे पास आकर क्यों रो रही हैं?” बूढ़ी स्त्री ने कहा, “क्या आप मुझे नहीं पहचानते?” कालिदास ने कहा, “क्षमा करें, मैं आपको नहीं जानता।” तब उसने अपनी पहचान बताई, “मैं पार्वती हूँ।” यह सुनकर कालिदास के पैरों तले जमीन खिसक गई। पार्वती ने अपनी कहानी सुनाई, “डकैतों ने मुझे अगवा किया था। मैं किसी तरह उनके चंगुल से भागी।
एक साधु दल के साथ यहाँ आई और इस आश्रम में रहने लगी। मैंने ब्रह्मचर्य अपनाया और आपके याद में जीवन बिताया। आपके काव्यों को पढ़ा। जहाँ-जहाँ विरह का वर्णन है—रघुवंशम् में, मेघदूतम् में, कुमारसंभवम् में—वह मेरा भी विरह है। मैं आपके चरणों में सिर रखे बिना देह नहीं त्यागना चाहती थी।” कालिदास की आँखों से आँसू छलक पड़े। उनका बचपन का प्यार, जिसे वे इतने वर्षों से खोज रहे थे, उम्र के इस पड़ाव पर उनके सामने था।
दोनों कुछ दिन साथ रहे। कालिदास अपने पहले प्रेम के साथ वे पल जीना चाहते थे, जो उन्हें कभी न मिले थे। पर उनका वचन उन्हें बुला रहा था। पार्वती ने उनके चरणों में सिर रखा और फिर शांति से देह त्याग दी। कालिदास ने अपने हाथों से उसकी चिता को अग्नि दी। यह उनके जीवन का सबसे भावुक क्षण था। इसके बाद वे श्रीलंका के लिए रवाना हुए। यह यात्रा उनके जीवन की अंतिम यात्रा थी।
मृत्यु और माँ पार्वती का श्राप: कामिनी और कुमारगुप्त का अंत
कालिदास जब श्रीलंका पहुँचे, तो रात हो चुकी थी। वे थके हुए थे और कुमारगुप्त को परेशान नहीं करना चाहते थे। अपनी पहचान छिपाने के लिए वे नगर में एक बड़े भवन के सामने साफ-सुथरी सड़क पर लेट गए। उनके पास केवल उनकी पोटली थी, जिसमें रचनाएँ थीं। कुछ देर बाद एक अति सुंदरी स्त्री वहाँ आई। उसने कहा, “आप यहाँ नहीं सो सकते। यह श्रीलंका की सबसे बड़ी वेश्या का महल है, और मैं हूँ कामिनी। आपके यहाँ सोने से महल की सुंदरता खराब हो रही है।”
कालिदास ने कहा, “हे नवयुवना, मैं दूर देश से आया पथिक हूँ। मुझे इस देश की सुंदरता देखनी है। मेरे पास धन नहीं कि सराय में ठहरूँ।” कामिनी ने कहा, “आप मेरे अतिथि हैं। मेरे महल में विश्राम करें। सुबह अपने गंतव्य को चले जाइएगा।” कालिदास को कोई आपत्ति न थी। वे महल में गए और उन्हें एक कमरा दे दिया गया। वे सो गए। मध्य रात्रि को खटपट की आवाज से उनकी नींद खुली। उन्होंने देखा कि कामिनी के कमरे में बत्ती जल रही थी। वे वहाँ गए और पूछा, “क्या परेशानी है?” कामिनी की आँखें आँसुओं से भरी थीं। वह एक कागज का टुकड़ा देख रही थी।
उसने कहा, “इस नगर का राजा कुमारगुप्त मुझसे प्रेम करता है। मैं भी उससे प्रेम करती हूँ। पर उसने कहा कि जब तक मैं इस कविता की पंक्ति को पूरा नहीं करूँगी, वह मुझसे विवाह नहीं करेगा। मैंने बहुत कोशिश की, पर असफल रही।” कालिदास ने कागज लिया। उस पर लिखा था, “कमल के ऊपर कमल खिला हो देखा क्या? सुनी-सुनाई बात मात्र है, ऐसा कभी कहाँ देखा?” कालिदास ने कलम उठाई और लिखा, “पर प्रियवर मेरे यह अचरज संभव है, ऐसे मोखांबुज पर तेरे दोनों कमल नयन हैं।” कामिनी यह पढ़कर खुशी से नाच उठी। उसने कालिदास को धन्यवाद दिया।
कालिदास अपने कमरे में लौटकर सो गए। पर कामिनी को डर हुआ कि यदि यह पथिक राजा के पास गया और उसने बताया कि कविता उसने पूरी की, तो उसका विवाह खतरे में पड़ जाएगा। उसने कालिदास के कमरे में जाकर कटार से उन पर हमला कर दिया। दो वार हुए और कालिदास के प्राण निकल गए। मरते वक्त उनके मुँह से निकला, “कुमारगुप्त, मैं कितना अभागा हूँ कि तुम्हारे देश में आकर भी तुमसे न मिल सका। मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार करो, मित्र।” इसके बाद कामिनी को उनकी गठरी से पता चला कि वे कालिदास थे। उसे ग्लानि हुई। उसने उसी कटार से खुद को मार डाला।
यह खबर नगर में फैली। कुमारगुप्त वहाँ आए। उन्होंने कालिदास की चिता चंदन की लकड़ी से सजाई। कालिदास की कविताएँ पढ़ीं और कहा, “महाकवि, तुम मुझसे मिलकर कविताएँ सुनाना चाहते थे। यह इस जन्म में संभव न हुआ, तो आसमान में होगा।” यह कहकर वे चिता में कूद पड़े और अपने प्रिय कवि के साथ जीवन का होम कर दिया। यहाँ माँ पार्वती का श्राप फलित हुआ, जो कालिदास को कुमारसंभवम् के श्रृंगार वर्णन के लिए मिला था।

कालिदास का काल और कार्यस्थली: उज्जैन से श्रीलंका तक
कालिदास का समय और कार्यस्थली विद्वानों में विवाद का विषय है। उनकी रचनाओं में उज्जैन का विस्तृत वर्णन मिलता है, जिससे लगता है कि उनकी कार्यस्थली मालवा (आधुनिक उज्जैन) थी। हिमालय का वर्णन उनके जन्म और युवावस्था को दर्शाता है। सर्वमान्य मान्यता के अनुसार, वे 57 ईसा पूर्व के विक्रमादित्य के समकालीन थे, जिन्होंने विक्रमी संवत् चलाया। उनके नाटक ‘मालविकाग्निमित्रम्’ में पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र का वर्णन है, जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व की ओर इशारा करता है।
कुछ विद्वान उन्हें चौथी-पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं, पर यह कम स्वीकार्य है। उनका जन्म हिमालय में हुआ, युवावस्था कश्मीर में बीती, और जीवन का बड़ा हिस्सा उज्जैन में व्यतीत हुआ। उनका जीवन कश्मीर से काशी, उत्तराखंड से कन्याकुमारी, और श्रीलंका तक फैला था। उनका नाम राजा भोज (दसवीं शताब्दी) से भी जुड़ता है, पर यह किंवदंती मात्र है। उनकी मृत्यु से जुड़ी कहानी उनके जीवन को और रहस्यमय बनाती है।
कालिदास की काव्यात्मक एक किंवदंती का अमर जीवन यात्रा
कालिदास का जीवन प्रेम, काव्य, और दुख की एक अनूठी गाथा है। पार्वती से बिछोह, रत्नावली और विद्योत्तमा से संबंध, और कामिनी नामक वेश्या के हाथों मृत्यु उनकी कहानी को रहस्यमय बनाती है। माँ पार्वती का श्राप सच हुआ या यह लोककथा है, यह अनसुलझा आप सबके लिए अनसुना है। वे साहित्य के ऐसे महाकवि हैं, जिनका नाम और रचनाएँ अमर हैं, पर जीवन किंवदंतियों में छिपा है। उनका प्रभाव कश्मीर से श्रीलंका तक फैला।
यह कहानी उनके जीवन को एक रोचक और ज्ञानवर्धक रूप में प्रस्तुत करती है, जो उनकी संवेदनशीलता और प्रतिभा की गहराई को उजागर करती है। यह अलौकिक अद्भुत जानकारी आपको अच्छी लगी हो तो शेयर जरूर करें। महाकवि कालिदास के जीवन से सीखने वाली नयी पीढ़ी को इस लेख में शिक्षा से जुड़ी जानकारी प्रदान की गई है। Click on the link ब्लाग पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।






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