योनि शोथ Vaginitis- जब योनी के अन्तः कला के ऊत्तकों में शोथ हो जाता है एवं संक्रमित प्रदाह को योनीशोथ कहते हैं। इसे भग योनि शोथ vulvovaginitis कहते हैं। इसमें दुर्गन्धित श्वेत तथा लाल रंग का स्राव होता है। सर्वाधिक गमन एवं मूत्र त्याग में परेशानी होती है। योनि त्वचा में किसी भी प्रकार क्षति हो जाने से योनि त्वचा आसानी से संक्रमणों को ग्रहण कर लेती है ये संक्रमण स्ट्रेप्टोकोकस, न्यूमोकोकस, गोनोकोकस द्वारा होती है।
योनीशोथ को तीन प्रकार का माना गया है।

वयः सन्धि के पूर्व उत्पन्न होने वाला योनिशोथ: prepubertal vaginitis
वयः सन्धि के पूर्व अधिकांशत लड़कियां खेल-खेल में योनि को छेड़ती हैं। जिससे योनि की कोमल अन्त कला क्षतिग्रस्त हो जाती हैं जिससे योनि संक्रमित हो जाती है।
पूनरोत्पादक अवस्था में उत्पन्न होने वाला योनि शोथ: regenerative vaginitis
इस अवस्था में योनिशोथ कई प्रकार के संक्रमणों द्वारा संक्रमित हो जाती है। जैसे की मोनिनियल, ट्राइकोमोनास, हीमोकिलस, गोनोकोकस या सुषाकिय, योनिशोथ के प्रमुख संक्रमण है।
रजोनिवृत्ति योनिशोथ: menopausal vaginitis
रजोनिवृत्ति पर योनिशोथ परजीवी तथा जीवाणुओं के द्वारा होता है जिससे परजीवी संक्रमण ट्राइकोमोनास, मोनिनियल तथा जीवाणु संक्रमण गोनोकोकस, यद्रक्ष्मज, उपदेशान इत्यादि प्रमुख हैं।
तीब्र योनिशोथ : Acute vaginitis
तीब्र योनिशोथ में बार-बार मूत्र त्याग करने की इच्छा होती है। मूत्र त्याग करते समय योनि में जलन तथा दर्द व दुर्गन्धित स्राव होता है। योनि की श्लेष्मिक कला संकुचित तथा सुजी होती है। पहले स्राव पारदर्शी होता है तत्पश्चात दूधिया अत्यधिक स्राव के कारण हो जाता है। योनि के उपकला पर पपड़ियाँ पड़ जाने के कारण गांठ की तरह दिखाई देने लगता है। तीब्र योनिशोथ सूचांक तथा अभिघात किसी से भी हो सकता है। ये कई परिस्थितियों के कारण हो जाता है। अत्यधिक मैथुन, गर्भपात के प्रयास, कठिन प्रसव, गंदगी मासिक धर्म की अवस्था में दौड़ना, स्राव के रुकने इत्यादि से तीब्र योनिशोथ हो जाता है। गौड़ प्रकार के योनिशोथ कन्डमाला, यक्ष्मा, मधुमेह, यकृतिशोध, के रोगों के कारण भी हो सकता है।

योनि कन्द : Vaginal tubercle
स्त्रियों के योनी में गांठदार वृद्धि हो जाती है। जिसे योनिकन्द कहते हैं। ये खुजली युक्त, ज्वर से युक्त, लालिमा, नील पुष्प के समान होता है। अत्यधिक मैथुन क्रिया से, दिन में सोने से योनिकन्द उत्पन हो जाता है। ऐसा भी देखा गया है कि जो स्त्रियां अत्यधिक क्रोधित अवस्था में रहती है उन्हें भी योनिकन्द हो जाता है।
योन्याकर्ष: vaginismus
संभोग के प्रयास से ही अत्यधिक पिडा होती है। जब योनि से शिश्न सम्पर्क में आती है स्त्री भय से ग्रसित हो जाती है। कुछ महत्पूर्ण भय सा बना रहता है। कुछ मुर्छा अवस्था में आ जाती हैं इसका प्रमुख कारण पुरुष में काम कला के बारे में जानकारी न होना होता है। पुरुष शिश्न का बड़े आकार मे होना। योनि द्वार का छोटा होना। संभोग में विश्वास की कमी का होना इत्यादि का प्रमुख भूमिका होती है। योन्याकर्ष दो शब्दों से मिलकर बना है योनि +आकर्ष अर्थात योनि में तनाव का होना। योन्याकर्ष की अवस्था में योनिच्छंद Hymen तथा योनि द्वार के आस पास के क्षेत्र में संवेदन शीलता अत्यधिक होती है स्पर्श मात्र की सहन नहीं होती है।

कृच्छमैथुनता: Dvspareunia
स्त्रियों में सहवास के समय पीड़ा होती है। जो कम होने पर सहन कर ली जाती है। लेकिन असहनीय होने पर स्त्री रति क्रिया से कतराने लगती है। भय उत्पन्न हो जाता है स्त्रियों में रति क्रिया में पीड़ा होने को ही कृच्छ मैथुनता कहते हैं। ये दो प्रकार की होती है। गंभीर Deep, उपरिस्थ superficial.
गंभीर कृच्छ मैथुनता में स्त्रियों के योनि तोरणिका पर शिश्न का दबाव पड़ने पर पीड़ा होती है संभोग के बाद काफी समय तक रह सकता है। उपरिस्थ कृच्छ मैथुनता में स्त्रियों को सहवास करते समय जब उपरिस्थ में शिश्न प्रवेश करता है। उस समय योनि तथा भग प्रदेश में पीड़ा होती है। उपरिस्थ कृच्छ मैथुनता के दो कारण हो सकता है।
1-संरचनात्मक , 2-विकृति वैज्ञानिक गंभीर कारण संरचनात्मक, वैकृतिक, मनोवैज्ञानिक प्रकार का होता है। मनोवैज्ञानिक कारणों में प्रमुख बाल्यावस्था की संभोग से सम्बंधित कष्टकर अनुभव जैसे बलात्कार, गलत यौन शिक्षा इत्यादि प्रमुख हैं।

योनात्यापद: Vulva
स्त्री के योनिशोथ के चतुर्थ श्रेणी में योनि तथापद को रखते हैं। स्त्री के समस्त पुनरोत्पादक अंगों में उत्पन्न होने वाली समस्त स्त्री रोग Gynaecological Disease है। योनित्यापद के शाब्दिक अर्थ योनि में होने वाले रोग विकृतियां हैं। योनि व्यापदों में के प्रधान कारण निम्नलिखित हैं।
1 – दूषित भोजन 2 – आर्तर्व का दोष 3 – बीज दोष 4 – अंगों का विषम स्थिति में रखकर संभोग करना 5 – दैव 6 – अपहव्यो का उपयोग।
आयुर्वेद में योनित्यापदों की संख्या चरकानुसार 20 होती है। 1- वातिकी, 2 – पैत्तिकी, 3- श्लैष्मिकी, 4 – सन्निपातिकी, 5 – रक्त योनि, 6 – अरजस्का, 7 – अचरणा, 8- प्राकचरणा, 9- उपालुता, 10- उदा वर्तनी, 11- कर्णिनी, 12- पुत्रहर्णी, 13- अन्तमुर्खी, 14- सूची मुर्खी… इत्यादि।
बात प्रकोपित योनित्यापद के कारण योनि प्रदेश में सुई चुभोने की सी पीड़ा वेदना जकडाहट होती है योनि में खिंचाव होता है। इत्तला प्रकोपित योनि त्यापद के कारण योनित्यापद के कारण स्त्री ज्वर ग्रस्त हो जाती है।
स्रावित होने वाला आर्तव नील पीत कृष्ण रंग का होता है। तथा सड़े मुर्दे जैसी गन्ध आती है।
रक्तजा प्रकोपित योनित्यापद के कारण गर्भ रह जाने पर भी रक्त का आना बन्द नही होता है। परिप्लुत्ता प्रकोपित योनित्यापद के कारण स्त्री ज्वर ग्रस्त हो जाती है। उसकी योनि में सूजन आ जाती है। शिश्न स्पर्श को सहन नहीं कर पाती हैं। पुत्रहनी प्रकोपित योनि व्यापद् के कारण स्त्री को गर्भ के रक्त स्राव होता है। तथा गर्भ का विनाश हो जाता है। वर्तमान से आधुनिकता की अस्त-व्यस्त वातावरण के कारण स्त्रियां प्रजनन अंगों में होने वाले रोगों की ओर ध्यान नहीं दे पाती हैं। वही असहनीय कष्ट अज्ञानता उनके प्रजनन अंगों को विभिन्न रोगों को आमंत्रित करती है। सहवास अर्थात रति क्रिया में शिश्न तथा योनि भाग का प्रमुख कार्य होता है। वैसे तो अन्य अंगों के कार्य को नकारा नहीं जा सकता है। योनि मात्र एक नलिका ही नही अपितु थोड़ी सी भूल या अज्ञानता रोगों की खाई हो सकती है जिसकी कोई सीमा नहीं है।

योन्यर्श: Vagina
अर्श के अंकुरो के समान स्त्रियों के योनी में वृद्धियों को योन्यर्श कहते हैं। जोकि दुर्गन्धित स्राव करता है। ये अंकुर स्त्रियों के आर्तव को नष्ट करते हैं। ये योनि का भी विनाश करते हैं। योन्यर्श वातादि दोष के कारण होता है।
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