राजनीति और वसूल सिद्धांत

Amit Srivastav

चुनाव आते ही नेताओं की विचारधारा व दिल बदलने लगता है। लोग राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिये पाला बदलने लगते हैं। जब तक महत्वाकांक्षा की पूर्ति नहीं होती है। तब तक पाला बदलने में कोई संकोच नहीं होता है। पाला बदलने का कार्य चुनाव के समय जोर मारने लगता है और अपना उल्लू सीधा करने के लिये अगर गधे को बाप बनाना पड़े तो कोई संकोच नहीं होता है। भाजपा का दावा लोकसभा 2024 चुनाव में चार सौ पार कि चल रही है जिसके कारण अन्य दलों से आकर भाजपा का दामन थामने में लगे हुए हैं। वहीं विपक्षी दल ईबीएम से चुनाव न कराने को लेकर सुप्रीम कोर्ट का चक्कर काट रहे हैं। भाजपा ईबीएम की पक्षधर है बाकी सभी पार्टियों का आरोप है भाजपा ईबीएम से मतों का घोटाला कर चुनाव जीत रही है। एक कहावत सदैव चरितार्थ होती आयी है और होती ही रहेगी जिसकी लाठी उसकी भैंस, जब भाजपा पूरी तरह सत्ता पर काबिज नही थी तब भी तो यह कहावत अन्य दलों ने चरितार्थ ही किया है। अब गेंद भाजपा के पाले में है, अगर वही कहावत भाजपा भी चरितार्थ कर रही है तो क्यों अन्य दल रो रहे हैं। सब तो सत्ता के ही भूखे रहे हैं, कौन सा दल अपने नेता बिरादरी का हित छोड़ आम जन का हितैषी रहा है।

बिहार की राजनीति

राजनीति और वसूल सिद्धांत

जब बिहार में लालू प्रसाद यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने निचे से ऊपर तक अपने माफिक अधिकारीयों को रखा उनके इशारे पर जिलाधिकारी तक कार्य करते थे। उस समय मतदान मत पत्र से होता था। लालू प्रसाद यादव चुनावी मंचों से भोजपुरी भाषा का इस्तेमाल कर भाषण में इतना तक कह जाते थे भूरा बाल साफ करो.. इसका मतलब आप को याद आ गया होगा। रऊआ ओटवा केहू के देब लमटेनिए जीती उनका चुनाव चिन्ह था लामटेन। होता भी वही था चुनाव आयुक्त टीएन सेशन जब टाइट हुए और चुनाव पर अपनी पैनी नज़र डाल चुनाव कराया तब बिहार से लालू प्रसाद यादव सत्ता से बेदखल हुए और भाजपा गठबंधन की सरकार बनी तब से नितिस कुमार मुख्यमंत्री पद का बागडोर सम्भाले हुए हैं। बीच-बीच में उहापोह हो रहा किन्तु सत्ता का भूख स्थिति सुधर जाती है।

राजनीति और वसूल सिद्धांत

अब इस लोक सभा चुनाव में कितनी सीटें किसको मिलेगी आने वाला 4 जून ही बताएगा। चुनाव का घोषणा होते ही पाला बदलने का दौर चल रहा है और सभी मुख्य राजनैतिक दलों में भगदड़ मची है। राजनैतिक दल शरण में आने वालों का चरित्र नहीं बल्कि उसकी ताकत देखते हैं। घोटाला, भ्रस्टाचार, बेरोजगारी आदि का मुद्दा लेकर 2014 केन्द्र में आई भाजपा सरकार धीरे-धीरे राज्यों में भी यह कह सरकार बना ली कि केन्द्र से दिया जा रहा धन विपक्ष की राज्य सरकारें सही से खर्च नही कर रही हैं। प्रदेशों की जनता ने राज्यों का भी बागडोर दे दिया अब तो नीचे से ऊपर तक एकक्ष राज है फिर भी बेरोजगारी भ्रष्टाचार लूट-खसोट में इजाफा ही हुआ है। पहले रिश्वत छोटा लगता था अब भाजपा का धौंस दिखा मोटा लगने लगा है। पांच किलो फ्री के राशन से लोगों का कितना कल्याण हो रहा है यह आम जन मे चर्चा का विषय बना हुआ है। चुनावी नतीजा पर आम जन का भी कहना है ईबीएम होते हुए बीजेपी को सत्ता से बाहर होना नामुमकिन है। जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत पहले से ही चरितार्थ होती आ रही है तो आगे भी होती ही रहेगी।

राजनीति और वसूल सिद्धांत

एक समय था जबकि राजनीति वसूल सिद्धांतों की होती थी लेकिन आजकल राजनीति में कोई वसूल सिद्धांत नहीं रह गया है। वसूलों सिद्धांतों की जगह अब अपना हित सर्वोच्च होता जा रहा है और अपने स्वार्थ के लिये वसूल सिद्धांत बदलने लगे हैं। नोटबंदी ने आम लोगों को भले ही परेशान कर डाला हो लेकिन नेताओं पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है और राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये जेब से पैसा खर्च करने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं। इस समय विभिन्न सरकारी एजेंसियों द्वारा की जा रही नकदी धनराशि की बरामदगी इस बात का प्रतीक हैं कि अभी भी काली कमाई लोगों के पास नयी करेन्सी के रूप में मौजूद है। राजनीति में कथनी करनी में अंतर नहीं होना चाहिए किन्तु बदलते दौर में कथनी करनी एक जैसी नहीं रह गयी है। राजनेता सामने वाले की मनोदशा देखकर भाषण देता है तथा हर जगह गिरगिट की तरह रंग बदलता रहता है। राजनैतिक गिरावट के दौर में भी कुछ राजनेता ऐसे हैं जो वसूल सिद्धांत को प्राथमिकता देते हैं और महत्वाकांक्षा पूर्ति के लिये पाला नहीं बदलते हैं। ऐसे लोग लगभग सभी राजनैतिक दलों में मौजूद हैं और उनकी अपनी अलग पहचान है। लोकतंत्र में मतदाता भयमुक्त होकर जब राग द्वैष से हटकर मतदान करता है तो लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। राजनेता जब राग द्वैष से दूर रहकर वसूलों सिद्धांतों की राजनीति करता है तो कौवौं के मध्य हंस जैसा दूर से दिखने लगता है। वर्तमान में भाजपा में शामिल होने वालो को छोड़कर बता रहे हैं, वही राजनेता हैं जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कभी चुनाव नहीं हारते हैं और लगातार चुन लिये जाते हैं। राजनीति में आ रही गिरावट लोकतंत्र के लिये शुभ नहीं मानी जायेगी क्योंकि लोकतंत्र में राजनीति जनता के भविष्य की निर्माता होती है। राजनीति में नियत और नीति का बहुत महत्व होता है और नियत व नीति तब ठीक होती है जब राजनीति वसूलों सिद्धांतों की होती है। कहते जिसकी जैसी नियत होती है वैसे ही उसे बरक्कत होती है और बिना वसूल सिद्धांत की राजनीति रंगें सियार जैसी होती है। आजादी सत्ता का हस्तांतरण मिलने के पहले राजनीति वसूलों सिद्धांतों की होती थी और कोई महत्वाकांक्षा नहीं होती थी। सबका लक्ष्य धन नाम कमाना नहीं बल्कि भारत माता की आजादी था और सत्ता हस्तांतरण आजादी दिलाने के लिये कभी वसूल सिद्धांत नहीं बदला भले ही राह बदलनी पड़ गयी हो।

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