खजुराहो का नाम आते ही उसकी भव्य और अलौकिक मूर्तिकला की छवियाँ मन में उभरने लगती हैं। यह khajuraho temple का स्थान भारतीय स्थापत्य कला और संस्कृति का अनमोल धरोहर है। खजुराहो के मंदिरों पर उकेरी गई मूर्तियों में अनेक कलाओं का प्रदर्शन किया गया है, जिनमें विशेष रूप से “64 काम कलाएँ” प्रमुख मानी जाती हैं।
Table of Contents
khajuraho mandir खजुराहो का परिचय
खजुराहो, मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित एक ऐतिहासिक स्थल है, जो अपने प्राचीन हिंदू और जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। ये मंदिर चंदेल वंश के राजाओं द्वारा (10वीं-12वीं शताब्दी) निर्मित किए गए थे। इन मंदिरों की मूर्तियों में धर्म, अध्यात्म, काम, संगीत, नृत्य और जीवन की विभिन्न कलाओं को दर्शाया गया है।
64 काम कलाएँ क्या हैं?
प्राचीन भारतीय संस्कृति में “64 कलाएँ” (चौसठ कलाएँ) एक व्यक्ति की संपूर्ण योग्यता और दक्षता को दर्शाने वाली विधाएँ मानी जाती थीं। ये कलाएँ विशेष रूप से कामकला, नृत्य, संगीत, चित्रकला, शिल्पकला, युद्ध-कौशल, सौंदर्य, प्रेम, और संवाद-कौशल से संबंधित थीं। इनका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है, जिनमें वास्यायन का कामसूत्र, शिवपुराण, और अग्निपुराण प्रमुख हैं।
खजुराहो और 64 कलाओं का संबंध
खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियाँ इन 64 कलाओं को जीवंत रूप में प्रस्तुत करती हैं। यहाँ के शिल्पियों ने शारीरिक भंगिमाओं, भाव-भंगिमा, संगीत, नृत्य, श्रृंगार, योग, ध्यान, प्रेम और सामाजिक जीवन के विविध पक्षों को अत्यंत सूक्ष्मता से उकेरा है।
खजुराहो की मूर्तियाँ सिर्फ काम (संभोग) तक सीमित नहीं हैं, बल्कि ये सम्पूर्ण जीवनशैली और आध्यात्मिक चेतना का भी प्रतिनिधित्व करती हैं।

खजुराहो की मूर्तियों की विशेषताएँ
1. यथार्थवादी शिल्पकला – प्रत्येक मूर्ति मानवीय जीवन के किसी न किसी पक्ष को दर्शाती है।
2. सौंदर्य और भव्यता – इनकी अनुपात, संरचना और मुद्रा अत्यंत सजीव है।
3. यौगिक और तांत्रिक प्रभाव – कुछ मूर्तियाँ ध्यान और योग साधना को दर्शाती हैं।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक झलक – इनमें तत्कालीन समाज की परंपराओं, नृत्य, संगीत, प्रेम और भक्ति के भाव दिखते हैं।
खजुराहो और 64 कलाओं का संबंध प्राचीन भारतीय संस्कृति की समृद्धता को दर्शाता है। यह स्थान केवल स्थापत्य कला का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह उस युग की जीवनशैली, कला, शिल्प और आध्यात्मिकता का जीवंत प्रमाण भी है। यदि आप भारतीय संस्कृति और कला में रुचि रखते हैं, तो खजुराहो का भ्रमण अवश्य करें।
प्राचीन भारतीय 64 काम कलाएँ – संपूर्ण सूची और विवरण
भारतीय परंपरा में “चौसठ कलाएँ” (64 कलाएँ) जीवन को संपूर्ण और समृद्ध बनाने वाली विधाएँ मानी गई हैं। कलाएँ व्यक्ति को विभिन्न कौशलों में निपुण बनाती हैं और आत्मविकास का मार्ग दिखाती हैं। इनका उल्लेख वास्यायन के कामसूत्र, शिवपुराण, अग्निपुराण, और अन्य शास्त्रों में मिलता है।
64 काम कलाओं की जानकारी
इस लेख में हम भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव अपनी कर्म-धर्म लेखनी से खजुराहो की 64 काम कलाओं की जानकारी दे रहे हैं जो जानकारी अत्यन्त ही दुर्लभ और जानने योग्य है। यह लेख थोड़ा बड़ा जरुर हो रहा है लेकिन समझने के लिए अंत तक पढ़िए। जानिए दुर्लभ जानकारी जो आप जानकर हैरान हो जाएंगे कि जिस खजुराहो की मूर्तियों को संभोग करते दिखाय गगया है उसकी विशेषताएं कितनी महत्वपूर्ण हैं। क्रमशः 64 कलाओं का वर्णन इस लेख के अंत तक मे दिया गया है।
संगीत, नृत्य और कला से संबंधित
1. गीत-विद्या – गायन की कला
गीत-विद्या भारतीय 64 कलाओं में से एक प्रमुख कला है, जिसमें संगीत और गायन का गहन अध्ययन शामिल है। यह केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और भावनाओं की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में ध्रुपद, ख्याल, ठुमरी, और भजन जैसी विधाएँ गीत-विद्या के विविध रूप हैं, जबकि लोकगीत और आधुनिक संगीत भी इसके अंग हैं।
इसमें स्वर, ताल, लय और भावनात्मक अभिव्यक्ति का संतुलन आवश्यक होता है। प्राचीन काल में यह कला गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से सिखाई जाती थी, और आज भी नियमित रियाज़ और अभ्यास के बिना इसमें निपुणता प्राप्त करना कठिन है।
2. वाद्य-विद्या – विभिन्न वाद्ययंत्र बजाने की कला
वाद्य-विद्या भारतीय 64 कलाओं में से एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें विभिन्न प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाने की तकनीक और ज्ञान शामिल है। यह संगीत का एक अभिन्न अंग है, जो व्यक्ति की भावनाओं को व्यक्त करने और वातावरण में ऊर्जा उत्पन्न करने का माध्यम बनता है। भारतीय संगीत में वाद्ययंत्रों को तीन मुख्य वर्गों में बाँटा गया है – तत वाद्य (स्ट्रिंग वाले जैसे वीणा, सितार, सारंगी), सुषिर वाद्य (फूंक वाले जैसे बांसुरी, शंख, शहनाई) और अवनद्ध वाद्य (ताल वाद्य जैसे तबला, मृदंग, ढोलक)।
वाद्य-विद्या केवल संगीत तक सीमित नहीं है, बल्कि योग, ध्यान और तांत्रिक साधनाओं में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्राचीन काल में यह विद्या गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से सिखाई जाती थी, और आज भी इसे सीखने के लिए निरंतर अभ्यास आवश्यक है।
3. नृत्य – शास्त्रीय और लोक नृत्य की विधाएँ
नृत्य-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें शारीरिक भाव-भंगिमा, लय, ताल और रस के माध्यम से भावनाओं और कथाओं की अभिव्यक्ति की जाती है। यह मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है – शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य। शास्त्रीय नृत्यों में भरतनाट्यम, कथक, कुचिपुड़ी, ओडिसी, मणिपुरी, मोहिनीअट्टम और कथकली शामिल हैं, जो नाट्यशास्त्र के नियमों पर आधारित होते हैं और इनमें मुद्राएँ, भाव और संगीत का गहरा समन्वय होता है।
वहीं, लोक नृत्य किसी विशेष क्षेत्र की संस्कृति और परंपरा को दर्शाते हैं, जैसे गरबा, भांगड़ा, घूमर, लावणी, बिहु और चाऊ नृत्य। नृत्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि ध्यान, भक्ति, उत्सव और आध्यात्मिक साधना का भी महत्वपूर्ण माध्यम है, जिसे सीखने के लिए नियमित अभ्यास और ताल-लय का गहरा ज्ञान आवश्यक होता है।
4. नाट्य – अभिनय और रंगमंच कला
नाट्य-विद्या अभिनय और रंगमंच की वह प्राचीन कला है, जिसमें व्यक्ति भाव, संवाद, हाव-भाव और शारीरिक अभिव्यक्ति के माध्यम से किसी पात्र या कथा को जीवंत करता है। यह भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है और इसकी जड़ें भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में मिलती हैं, जहाँ अभिनय को अंगिक (शारीरिक हावभाव), वाचिक (संवाद), सात्त्विक (भावनाएँ) और आहार्य (पोशाक व सज्जा) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
नाट्य-कला केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि समाज में नैतिक शिक्षा, सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और आध्यात्मिक संदेश प्रसारित करने का प्रभावशाली माध्यम भी है। भरतनाट्यम, कथकली, यक्षगान जैसे शास्त्रीय नाट्य रूपों से लेकर आधुनिक रंगमंच और सिनेमा तक, अभिनय की यह विद्या समय के साथ विकसित होती रही है। इसे सीखने के लिए अभ्यास, कल्पनाशीलता और चरित्र में पूरी तरह समाने की क्षमता आवश्यक होती है।
5. अलेख्य – चित्रकला, स्केचिंग, पेंटिंग
अलेख्य-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक प्रमुख कला है, जिसमें चित्रकला, स्केचिंग और पेंटिंग के माध्यम से भावनाओं, विचारों और कथाओं की अभिव्यक्ति की जाती है। यह कला प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही है, जिसका प्रमाण अजंता-एलोरा की गुफाएँ, मधुबनी, वार्ली और तंजावुर जैसी पारंपरिक चित्रकला शैलियों में देखा जा सकता है। अलेख्य में रंगों, आकृतियों और रेखाओं का संतुलित उपयोग कर दृश्य या भावों को सजीव बनाया जाता है।
यह कला केवल सौंदर्य और अभिव्यक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि धार्मिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक घटनाओं को संरक्षित करने का भी एक माध्यम है। आधुनिक युग में यह डिजिटल आर्ट और ग्राफिक डिजाइनिंग के रूप में भी विकसित हो चुकी है, लेकिन इसकी मूल आत्मा रचनात्मकता और सृजनात्मक कौशल में निहित रहती है।
6. विसेषकच्छेद्य – श्रृंगार और सौंदर्य प्रसाधन की कला
विसेषकच्छेद्य-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें श्रृंगार और सौंदर्य प्रसाधन की विधियों का ज्ञान शामिल है। यह केवल बाहरी सौंदर्य तक सीमित नहीं, बल्कि आत्म-अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक परंपराओं और मानसिक भावनाओं को उजागर करने का भी माध्यम है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों में इसे शरीर सज्जा, वस्त्र चयन, आभूषण धारण, बाल संवारने, सुगंधित तेलों, उबटन और प्राकृतिक प्रसाधनों के उपयोग की विस्तृत विधि के रूप में वर्णित किया गया है।
राजमहलों में विशेष रूप से प्रशिक्षित कलाकार इस कला में निपुण होते थे, जो रंग-संयोजन, त्वचा की देखभाल और विभिन्न अवसरों के अनुसार श्रृंगार की तकनीक अपनाते थे। आधुनिक युग में यह विद्या सौंदर्य उद्योग, मेकअप आर्टिस्ट्री और फैशन डिज़ाइनिंग के रूप में विकसित हो चुकी है, लेकिन इसकी जड़ें आज भी पारंपरिक भारतीय सौंदर्यशास्त्र में गहराई से जुड़ी हुई हैं।
7. तण्डुलकुसुमबलिविकार – अनाज और फूलों से सजावट
तण्डुलकुसुमबलिविकार भारतीय 64 कलाओं में एक अनूठी कला है, जिसमें अनाज (तण्डुल), फूल (कुसुम) और बलि सामग्री का उपयोग सजावट और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए किया जाता है। यह कला विशेष रूप से भारतीय मंदिरों, पूजा स्थलों और उत्सवों में देखने को मिलती है, जहाँ चावल, फूलों की पंखुड़ियों, पत्तियों और प्राकृतिक रंगों से intricate (सूक्ष्म) अलंकरण किए जाते हैं। दक्षिण भारत में रंगोली (कोलम, पुक्कलम) और उत्तर भारत में अल्पना इस कला के प्रमुख उदाहरण हैं।
अनाज और फूलों से बनाई गई सजावट न केवल सौंदर्य बढ़ाती है, बल्कि इसे शुभता, सकारात्मक ऊर्जा और देवताओं की कृपा प्राप्त करने का भी प्रतीक माना जाता है। यह कला प्रकृति के साथ जुड़ाव, धैर्य और सृजनात्मकता को विकसित करने का एक माध्यम भी है, जो आज भी त्योहारों, विवाहों और धार्मिक अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
8. पुष्पशय्या – फूलों से शय्या (बिस्तर) सजाने की कला
पुष्पशय्या भारतीय 64 कलाओं में एक अत्यंत मनोहर और सुगंधित कला है, जिसमें फूलों से शय्या (बिस्तर) सजाने की विधि शामिल है। प्राचीन राजमहलों और मंदिरों में इस कला का विशेष स्थान था, जहाँ इसे सौंदर्य, विश्राम और आध्यात्मिक शुद्धि के लिए प्रयोग किया जाता था। विभिन्न प्रकार के सुगंधित फूल, जैसे गुलाब, चमेली, मोगरा और केवड़ा, को विशेष रूप से सजाकर शय्या तैयार की जाती थी, जिससे मन और शरीर को शीतलता और सुखद अनुभूति प्राप्त हो।
यह कला केवल श्रृंगार तक सीमित नहीं, बल्कि इसे शुभ अवसरों, विवाह, उत्सवों और देव पूजन में भी प्रयोग किया जाता था। आज भी यह परंपरा होटलों, स्पा, और विशेष आयोजनों में देखने को मिलती है, जहाँ फूलों की सुव्यवस्थित सजावट माहौल को रोमांचक और शांतिदायक बनाती है।
9. दशनवसनांग रागासज्जा – दाँत, वस्त्र, और शरीर के श्रृंगार की कला
दशनवसनांग रागासज्जा भारतीय 64 कलाओं में एक विशेष कला है, जिसमें दाँत, वस्त्र और शरीर के श्रृंगार की विधियाँ शामिल हैं। यह केवल सौंदर्य बढ़ाने तक सीमित नहीं, बल्कि व्यक्तिगत आकर्षण, सामाजिक प्रतिष्ठा और आध्यात्मिक शुद्धि का भी प्रतीक मानी जाती है। प्राचीन काल में दाँतों की सफेदी और चमक बनाए रखने के लिए प्राकृतिक औषधियों जैसे मिस्सी, लौंग और नीम का उपयोग किया जाता था। वस्त्र-सज्जा में रंग, वस्त्रों की डिजाइन, आभूषणों का मेल और अवसर के अनुसार परिधान चयन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
शरीर श्रृंगार के लिए चंदन, उबटन, इत्र और मेंहदी जैसी प्राकृतिक सामग्रियों का प्रयोग किया जाता था, जिससे तन और मन दोनों को शीतलता और ताजगी मिलती थी। यह कला आज भी आधुनिक फैशन, ग्रूमिंग और सौंदर्य प्रसाधन उद्योग में महत्वपूर्ण स्थान रखती है।
10. मणिभूमिकाकर्म – आभूषण और रत्नों की पहचान
मणिभूमिकाकर्म भारतीय 64 कलाओं में एक विशिष्ट कला है, जिसमें आभूषणों और रत्नों की पहचान, मूल्यांकन और उन्हें सजाने की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन काल से ही रत्नों को न केवल सौंदर्य और वैभव का प्रतीक माना गया है, बल्कि इन्हें ज्योतिष और आध्यात्मिक उन्नति से भी जोड़ा जाता है। इस कला के अंतर्गत विभिन्न रत्नों जैसे हीरा, मोती, पन्ना, माणिक्य, नीलम, पुखराज आदि की गुणवत्ता, रंग, चमक और ऊर्जा को परखने की विधियाँ सिखाई जाती थीं।
साथ ही, इन्हें उचित धातु में जड़कर गहनों का निर्माण किया जाता था, जिससे उनकी सुंदरता और प्रभाव बढ़ता था। यह विद्या केवल आभूषण निर्माण तक सीमित नहीं, बल्कि रत्नों के आध्यात्मिक प्रभाव और शरीर पर उनके सकारात्मक प्रभाव को समझने में भी सहायक होती है। आज के समय में यह कला जेमोलॉजी (रत्न विज्ञान) और आभूषण डिजाइनिंग के रूप में विकसित हो चुकी है।

लेखन, गणित और सज्जा से संबंधित
11. शयनरचन – विभिन्न प्रकार के बिस्तर और आसन बनाने की कला
शयनरचन भारतीय 64 कलाओं में एक विशेष कला है, जिसमें विभिन्न प्रकार के बिस्तर (शय्या) और आसन बनाने की विधियाँ शामिल हैं। यह कला केवल आराम और विश्राम तक सीमित नहीं, बल्कि सौंदर्य, भव्यता और स्वास्थ्य के सिद्धांतों पर भी आधारित होती है। प्राचीन काल में राजा-महाराजाओं और विद्वानों के लिए विशेष रूप से सुसज्जित शय्याएँ तैयार की जाती थीं, जिनमें मखमली गद्दे, रेशमी चादरें, पुष्पों की सजावट और औषधीय जड़ी-बूटियों से युक्त वस्त्रों का उपयोग किया जाता था।
जिससे विश्राम के दौरान शारीरिक और मानसिक शांति मिल सके। इसके अलावा, योग और ध्यान के लिए उपयुक्त आसन, जैसे कुशासन, मृगचर्म और रेशमी वस्त्रों से बने आसनों का प्रयोग किया जाता था। आज के युग में यह कला इंटीरियर डिजाइनिंग, फर्निशिंग और लग्जरी बेडिंग इंडस्ट्री के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ विश्राम और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
12. उदकवादन – जल में संगीत उत्पन्न करने की कला
उदकवादन भारतीय 64 कलाओं में एक अनूठी कला है, जिसमें जल के माध्यम से संगीत उत्पन्न करने की विधियाँ शामिल हैं। यह विद्या ध्वनि तरंगों और जल के कंपन पर आधारित होती है, जहाँ जल से भरे विभिन्न आकार के पात्रों (जलतरंग) या सीधे जल की सतह पर हाथों की गति से मधुर ध्वनि उत्पन्न की जाती है। प्राचीन भारत में जलतरंग इस कला का एक लोकप्रिय स्वरूप था, जिसमें अलग-अलग मात्रा में जल भरे कटोरों को विभिन्न प्रकार से बजाकर सुर निकाले जाते थे।
यह कला केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसे मानसिक शांति, ध्यान और चिकित्सा के लिए भी प्रयोग किया जाता था। आज के आधुनिक युग में यह विधा जल संगीत (वॉटर म्यूजिक थेरेपी) और फव्वारों के संगीतमय संयोजन में देखने को मिलती है, जहाँ जल की ध्वनि से सुकून और आनंद की अनुभूति कराई जाती है।
13. चित्रयोजना – भित्ति चित्र और सजावट
चित्रयोजना भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें भित्ति चित्र (दीवारों पर चित्रांकन) और सजावट की विधियाँ शामिल हैं। यह कला प्राचीन भारत में मंदिरों, गुफाओं, महलों और घरों की दीवारों पर भव्य चित्रों और अलंकरणों के रूप में विकसित हुई। अजंता-एलोरा, बाघ गुफाएँ, तंजावुर और राजस्थान की फ्रेस्को पेंटिंग्स इस कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। चित्रयोजना में प्राकृतिक रंगों, सूक्ष्म रेखाओं और जटिल डिजाइनों का उपयोग कर दीवारों को अलंकृत किया जाता था।
जिससे वे न केवल सौंदर्यपूर्ण दिखें, बल्कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक कथाएँ भी दर्शाएँ। यह कला आज के आधुनिक युग में इंटीरियर डिजाइनिंग, वॉल म्यूरल्स और डिजिटल आर्ट के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ पारंपरिक और समकालीन शैलियों का अद्भुत संयोजन देखने को मिलता है।
14. माल्यगुंठन – फूलों की माला बनाने की कला
माल्यगुंठन भारतीय 64 कलाओं में एक सुगंधित और आकर्षक कला है, जिसमें फूलों की माला बनाने की विधियाँ शामिल हैं। यह केवल सौंदर्य और सजावट तक सीमित नहीं, बल्कि धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी रखती है। प्राचीन काल से ही मंदिरों, पूजन, उत्सवों, विवाह और स्वागत समारोहों में माला पहनाने की परंपरा रही है। मोगरा, चमेली, गुलाब, कमल और गेंदा जैसे सुगंधित फूलों को धागे में पिरोकर विभिन्न डिजाइनों में माला बनाई जाती है।
दक्षिण भारत में यह कला विशेष रूप से विकसित हुई, जहाँ अत्यधिक कलात्मक और जटिल मालाएँ देवी-देवताओं की पूजा और दुल्हन के श्रृंगार के लिए तैयार की जाती हैं। आज के समय में यह कला फूलों की सजावट, फ्लोरल डिज़ाइनिंग और इवेंट डेकोरेशन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है, जिसमें ताजगी, रंग और सौंदर्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है।
15. केससंयोजन – बाल संवारने की कला
केससंयोजन भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें बालों को संवारने, सजाने और विभिन्न शैलियों में संजोने की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन भारत में यह कला न केवल सौंदर्य से जुड़ी थी, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का भी प्रतीक मानी जाती थी। राजमहलों में प्रशिक्षित केशशिल्पी विभिन्न अवसरों के अनुसार जटिल गुँथाइयाँ, कलात्मक जुड़ें (जूड़ा), और पुष्पों एवं आभूषणों से सुसज्जित केशविन्यास तैयार करते थे।
आयुर्वेदिक ग्रंथों में बालों की देखभाल के लिए तेल मालिश, हर्बल लेप और प्राकृतिक रंगों का उपयोग करने की विधियाँ वर्णित हैं। विभिन्न नृत्य शैलियों और पारंपरिक अनुष्ठानों में भी विशेष प्रकार के केशसंयोजन का महत्व होता है। आज के समय में यह कला हेयर स्टाइलिंग और सौंदर्य उद्योग का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है, जहाँ पारंपरिक और आधुनिक तकनीकों का संयोजन देखने को मिलता है।
16. संवाद-योग – प्रभावी संचार और वार्तालाप की कला
संवाद-योग भारतीय 64 कलाओं में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कला है, जिसमें प्रभावी संचार, वार्तालाप और अभिव्यक्ति की दक्षता शामिल है। यह केवल बोलने तक सीमित नहीं, बल्कि भाषा, भाव-भंगिमा, शब्दों के चयन, तर्कशक्ति और श्रोता को प्रभावित करने की क्षमता का भी समावेश करता है। प्राचीन भारत में राजा, दूत, शिक्षक और विद्वान इस कला में निपुण होते थे, जिससे वे अपने विचारों को स्पष्ट, प्रभावशाली और मधुरता के साथ प्रस्तुत कर सकें।
नाट्यशास्त्र और काव्यशास्त्र में संवाद की विभिन्न शैलियों और उनके मनोवैज्ञानिक प्रभावों का विस्तृत वर्णन मिलता है। एक कुशल वक्ता की वाणी में स्पष्टता, आत्मविश्वास, शिष्टाचार और श्रोताओं को आकर्षित करने की शक्ति होती है। आधुनिक युग में यह कला सार्वजनिक भाषण, व्यवसायिक संचार, राजनयिक वार्तालाप और व्यक्तिगत प्रभावशीलता के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ प्रभावी संवाद सफलता की कुंजी बन चुका है।
17. नाटकीय विद्या – नाटक की संरचना और मंचन की कला
नाटकीय विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक प्रमुख कला है, जिसमें नाटक की संरचना, लेखन, अभिनय और मंचन की विधियाँ शामिल हैं। यह कला प्राचीन भारत में भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर आधारित थी, जिसमें नाटक को संपूर्ण कला (संगीत, नृत्य, अभिनय और संवाद) का समन्वय माना गया। नाटक की संरचना में कथा-विकास, चरित्र निर्माण, संवाद लेखन, रस (भावनाएँ) और दृश्य योजना महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मंचन के दौरान प्रकाश, वेशभूषा, मंच सज्जा और पार्श्व संगीत का उचित प्रयोग नाटक की प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
संस्कृत नाटकों में कालिदास, भास और शूद्रक जैसे महान नाटककारों ने अपनी रचनाओं से इस विद्या को समृद्ध किया। आधुनिक युग में यह कला रंगमंच, सिनेमा, टेलीविजन और डिजिटल माध्यमों में विकसित हो चुकी है, जहाँ प्रभावी कहानी कहने और प्रस्तुति के लिए नाटकीय तत्वों का प्रयोग किया जाता है।
18. काव्य-समस्या पूर्ति – कविता और साहित्य लेखन
काव्य-समस्या पूर्ति भारतीय 64 कलाओं में एक सृजनात्मक और बौद्धिक कला है, जिसमें अधूरे काव्य या पद्य को पूरा करने की क्षमता विकसित की जाती है। यह कला कवियों और साहित्यकारों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण रही है, जहाँ उन्हें दी गई पंक्ति, छंद या किसी विशेष विषय पर तुरंत सुसंगत और अर्थपूर्ण काव्य की रचना करनी होती थी। संस्कृत साहित्य में यह विद्या कविसंमेलनों और दरबारी प्रतियोगिताओं का अभिन्न हिस्सा रही है, जहाँ विद्वान अपनी काव्य प्रतिभा का प्रदर्शन करते थे।
इस कला में छंद, अलंकार, रस और अर्थ की गहरी समझ आवश्यक होती है, ताकि कविता में सौंदर्य, प्रवाह और भावनात्मक गहराई बनी रहे। आधुनिक साहित्य और लेखन में यह कौशल कवियों, गीतकारों और रचनाकारों के लिए बेहद उपयोगी है, जिससे वे अपनी रचनाओं को अधिक प्रभावशाली और सारगर्भित बना सकते हैं।
19. पत्रकवितावाचन – पत्र लेखन और पाठ
पत्रकवितावाचन भारतीय 64 कलाओं में एक विशिष्ट कला है, जिसमें पत्र लेखन और उसके प्रभावशाली पाठ (वाचन) की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन काल में यह कला राजा-महाराजाओं, प्रेमियों, दूतों और विद्वानों के बीच संवाद का एक महत्वपूर्ण माध्यम थी। पत्र लेखन में शब्दों की सटीकता, भावनाओं की अभिव्यक्ति और साहित्यिक सौंदर्य का विशेष ध्यान रखा जाता था, जिससे संदेश केवल सूचना ही नहीं, बल्कि कला का भी रूप ले लेता था।
संस्कृत और प्राचीन भारतीय साहित्य में प्रेम, भक्ति, कूटनीति और समाज सुधार से जुड़े पत्रों का विशेष महत्व रहा है। वाचन कला के माध्यम से पत्र के भावों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जाता था, जिससे सुनने वाला व्यक्ति उसमें व्यक्त भावनाओं को गहराई से अनुभव कर सके। आधुनिक युग में यह कला भाषण, काव्य-पाठ और आधिकारिक संचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जहाँ शब्दों की प्रस्तुति का प्रभाव गहरा होता है।
20. अभिधान कोष – शब्दों और उनके अर्थों का ज्ञान
अभिधान कोष भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण कला है, जिसमें शब्दों और उनके अर्थों का गहन ज्ञान शामिल है। यह कला केवल शब्दों की परिभाषा तक सीमित नहीं, बल्कि उनके प्रयोग, पर्यायवाची, विलोम, व्युत्पत्ति और सांस्कृतिक संदर्भों की समझ भी विकसित करती है। प्राचीन भारत में अमरकोश जैसे ग्रंथ इसी विद्या का उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जहाँ शब्दों को विभिन्न श्रेणियों में विभाजित कर उनके अर्थों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
यह कला कवियों, लेखकों, वक्ताओं और विद्वानों के लिए अत्यंत आवश्यक मानी जाती थी, क्योंकि प्रभावी लेखन और संवाद के लिए शब्दों का सही चयन अनिवार्य होता है। आधुनिक युग में यह विद्या शब्दकोश, थिसॉरस, अनुवाद, भाषा विज्ञान और कंटेंट राइटिंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे भाषा अधिक समृद्ध और प्रभावशाली बनती है।
खेल, हस्तकला और गणित से संबंधित
21. संख्या-विद्या – गणित और संख्याओं का ज्ञान
संख्या-विद्या गणित और संख्याओं के गूढ़ ज्ञान से संबंधित एक प्राचीन और आधुनिक विज्ञान है, जो गणना, मापन, संरचनाओं और ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्राचीन भारत में आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञों ने शून्य की खोज, दशमलव प्रणाली और बीजगणित का विकास किया, जिसने आधुनिक गणित की नींव रखी। संख्या-विद्या में संख्या पद्धतियाँ, अंकगणित, ज्यामिति, सांख्यिकी और संख्याओं की रहस्यमयी शक्तियाँ शामिल हैं, जिनका उपयोग वास्तु, ज्योतिष और दैनिक जीवन में किया जाता है।
अंकशास्त्र (न्यूमेरोलॉजी) के अनुसार, प्रत्येक संख्या का एक विशेष कंपन और प्रभाव होता है, जो व्यक्ति के जीवन, भाग्य और व्यक्तित्व को प्रभावित कर सकता है। गणितीय अवधारणाएँ न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी में बल्कि वित्त, व्यापार और खगोलशास्त्र में भी महत्वपूर्ण हैं, जिससे यह विद्या मानव सभ्यता की प्रगति का एक आधारस्तंभ बन गई है।
22. मेष कुक्कुट लकूणकादि विज्ञान – पशु-पक्षियों की देखभाल और प्रतियोगिता
मेष कुक्कुट लकूणकादि विज्ञान पशु-पक्षियों की देखभाल, उनके पालन-पोषण और प्रतियोगिताओं से जुड़ा एक पारंपरिक और वैज्ञानिक ज्ञान है। इसमें भेड़ (मेष), मुर्गे (कुक्कुट), कबूतर (लकूणक) और अन्य पालतू एवं प्रतियोगी जीवों के स्वास्थ्य, आहार, प्रशिक्षण और व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। पशुपालन में दूध, ऊन और मांस उत्पादन के लिए उचित देखभाल आवश्यक होती है, जबकि पक्षीपालन में कबूतरबाजी, मुर्गों की लड़ाई और शो-बर्ड प्रतियोगिताएँ विशेष रुचि का विषय रही हैं।
भारत में गाय, भैंस, ऊँट और हाथियों की देखभाल से जुड़े पारंपरिक ज्ञान का उपयोग कृषि, परिवहन और धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है। आधुनिक दौर में पशु-पक्षियों के लिए पोषण, टीकाकरण और वैज्ञानिक प्रशिक्षण पद्धतियों को अपनाया जा रहा है, जिससे उनकी उत्पादकता और स्वास्थ्य में सुधार हो सके। प्रतियोगिता स्तर पर घुड़दौड़, बैलगाड़ी दौड़ और पक्षी उड़ान स्पर्धाएँ लोकप्रिय हैं, जो पारंपरिक संस्कृति और खेल भावना को बनाए रखती हैं।
23. सूचिवाण कर्म – सुई, सिलाई और कढ़ाई की कला
सूचिवाण कर्म सुई, सिलाई और कढ़ाई की पारंपरिक और रचनात्मक कला है, जिसमें कपड़ों और वस्त्रों को सुंदर और उपयोगी रूप दिया जाता है। यह कौशल प्राचीन समय से ही मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है, जिसमें सुई-धागे की मदद से परिधान तैयार करना, मरम्मत करना और उन्हें आकर्षक बनाने के लिए कढ़ाई करना शामिल है। भारतीय परंपरा में चिकनकारी, जर्दोजी, फुलकारी और काथा जैसी कढ़ाई शैलियाँ प्रसिद्ध हैं, जो अलग-अलग क्षेत्रों की सांस्कृतिक पहचान दर्शाती हैं।
आधुनिक समय में सिलाई और कढ़ाई केवल हाथों तक सीमित नहीं रही, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक सिलाई मशीनों और कंप्यूटराइज्ड एम्ब्रॉयडरी तकनीकों ने इसे और उन्नत बना दिया है। फैशन उद्योग, होम डेकोर और हस्तकला के क्षेत्र में सूचिवाण कर्म की मांग हमेशा बनी रहती है, जिससे यह न केवल एक कला बल्कि एक व्यावसायिक अवसर भी बन गया है।
24. सूत्रक्रिया – धागे से विविध प्रकार के डिज़ाइन बनाना
सूत्रक्रिया धागे के माध्यम से विविध प्रकार के डिज़ाइन और कलात्मक वस्तुएँ बनाने की पारंपरिक कला है, जो सुई, कढ़ाई, बुनाई और गांठ लगाने की तकनीकों पर आधारित होती है। इस विद्या में धागों को कुशलतापूर्वक मोड़कर और संजोकर सुंदर आकृतियाँ, वस्त्र अलंकरण, आभूषण और सजावटी वस्तुएँ तैयार की जाती हैं। भारतीय कढ़ाई शैलियों में कांथा, चिकनकारी, जर्दोजी और फुलकारी प्रसिद्ध हैं, जो धागों से बनाए गए जटिल पैटर्न और अलंकरण को दर्शाती हैं।
सूत्रक्रिया में रेशम, सूती, ऊनी और सिंथेटिक धागों का उपयोग किया जाता है, जो कपड़ों, घर की सजावट और धार्मिक अनुष्ठानों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह कला न केवल सौंदर्यबोध को बढ़ाती है, बल्कि समाज और संस्कृति की परंपराओं को भी संरक्षित रखती है। आधुनिक युग में मैकरेम और क्रोशिया जैसी विदेशी सूत्रकलाएँ भी लोकप्रिय हो रही हैं, जो हस्तनिर्मित वस्त्रों और सजावटी उत्पादों के क्षेत्र में नया आयाम जोड़ रही हैं।
25. मणि रागज्ञान – रत्नों और उनके रंगों का ज्ञान
मणि रागज्ञान रत्नों और उनके रंगों से जुड़े गूढ़ अर्थों, ज्योतिषीय प्रभावों और सौंदर्यशास्त्र की समझ को दर्शाता है। प्रत्येक रत्न का अपना विशिष्ट रंग, चमक और ऊर्जा होती है, जो उसके गुणों और प्रभावों को निर्धारित करता है। नीलम (ब्लू सफायर) गहरे नीले रंग का होता है और शनि ग्रह से जुड़ा होता है, जबकि पन्ना (एमराल्ड) हरे रंग का होता है और बुध ग्रह को संतुलित करता है। माणिक्य (रूबी) चमकदार लाल रंग का होता है और इसे सूर्य की ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है।
हीरा (डायमंड) सफेद और पारदर्शी होता है, जो शुक्र ग्रह से संबंधित होता है और आकर्षण एवं समृद्धि बढ़ाने में सहायक माना जाता है। रत्नों के रंग केवल उनकी सुंदरता ही नहीं बढ़ाते, बल्कि इनके ज्योतिषीय और चिकित्सीय प्रभाव भी माने जाते हैं, जो व्यक्ति के जीवन, मनोदशा और भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं। प्राचीन भारतीय परंपराओं में रत्नों का उपयोग न केवल आभूषणों में बल्कि आध्यात्मिक और चिकित्सीय उद्देश्यों के लिए भी किया जाता रहा है।
26. धातु-विद्या – धातुओं से वस्तुएँ बनाना
धातु-विद्या विभिन्न धातुओं से उपयोगी और कलात्मक वस्तुएँ बनाने की प्राचीन और वैज्ञानिक कला है। इसमें धातुओं के निष्कर्षण, परिशोधन, मिश्रधातु निर्माण और ढलाई की प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं, जिससे आभूषण, औजार, मूर्तियाँ, बर्तन और औद्योगिक उपकरण बनाए जाते हैं। तांबा, कांस्य, पीतल, लोहा, चाँदी और सोना जैसी धातुएँ ऐतिहासिक रूप से भारतीय हस्तकला और वास्तुकला का अभिन्न हिस्सा रही हैं।
प्राचीन भारत में पंचधातु (सोना, चाँदी, तांबा, जस्ता, लोहा) से मूर्तियाँ और धार्मिक प्रतीक बनाए जाते थे, जबकि आधुनिक तकनीकों में कास्टिंग, वेल्डिंग और 3D मेटल प्रिंटिंग का उपयोग हो रहा है। धातु-विद्या ने न केवल ऐतिहासिक धरोहरों को आकार दिया है, बल्कि यह उद्योग, इंजीनियरिंग और चिकित्सा उपकरणों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
27. रूप्यपरख ज्ञान – चाँदी और अन्य धातुओं की गुणवत्ता पहचानना
रूप्यपरख ज्ञान चाँदी और अन्य धातुओं की शुद्धता एवं गुणवत्ता को पहचानने की कला है, जो प्राचीन काल से आभूषण निर्माण, मुद्रा निर्माण और व्यापार में महत्वपूर्ण रही है। चाँदी की शुद्धता जाँचने के लिए हॉलमार्क, ध्वनि परीक्षण, घर्षण विधि और अम्ल परीक्षण का उपयोग किया जाता है। शुद्ध चाँदी कोमल और चमकदार होती है, जबकि उसमें मिलावट होने पर रंग फीका और कठोरता अधिक हो जाती है। सोना, तांबा, पीतल और कांस्य जैसी धातुओं की पहचान उनके रंग, वजन, चुंबकीय गुणों और रासायनिक अभिक्रियाओं के आधार पर की जाती है।
पारंपरिक आभूषण व्यवसायी और कुशल कारीगर धातुओं की गुणवत्ता परखने के लिए अनुभवजन्य तरीकों का प्रयोग करते हैं, जबकि आधुनिक युग में XRF मशीन और एसिड टेस्टिंग किट जैसी तकनीकों का उपयोग किया जाता है। सही रूप्यपरख ज्ञान होने से न केवल शुद्ध धातु की पहचान संभव होती है, बल्कि धोखाधड़ी से बचाव भी किया जा सकता है।
28. वस्त्रगोपन विद्या – वस्त्रों को संवारना और उनकी देखभाल
वस्त्रगोपन विद्या कपड़ों को संवारने, उनकी देखभाल करने और सही तरीके से संचित करने की कला है, जिससे वे लंबे समय तक सुंदर और टिकाऊ बने रहें। विभिन्न प्रकार के वस्त्रों की देखभाल के लिए उपयुक्त धुलाई, इस्त्री, सुखाने और भंडारण आवश्यक होता है। रेशमी और ऊनी कपड़ों को हल्के डिटर्जेंट से धोना चाहिए, जबकि सूती और लिनेन वस्त्रों को धूप में अच्छी तरह सुखाना जरूरी होता है।
कपड़ों को कीड़ों से बचाने के लिए नीम की पत्तियाँ, कपूर या खास तरह के फ्रैब्रिक फ्रेशनर का उपयोग किया जाता है। उचित तह करके रखने और मौसम के अनुसार कपड़ों का चयन करने से उनकी गुणवत्ता बनी रहती है। पारंपरिक भारतीय परिधान, जैसे बनारसी साड़ी या पश्मीना शॉल, विशेष देखभाल की मांग करते हैं, जिन्हें सही तरीके से संचित करने पर उनकी चमक और नाजुकता वर्षों तक बनी रहती है।
29. चित्रकारी – विभिन्न प्रकार की चित्रकारी
चित्रकारी एक सृजनात्मक कला है, जिसमें रंगों, रेखाओं और आकृतियों के माध्यम से भावनाओं, विचारों और कहानियों को अभिव्यक्त किया जाता है। यह कई प्रकार की होती है, जैसे भित्ति चित्र (दीवारों पर बनाई जाने वाली चित्रकारी, जैसे अजंता-एलोरा की गुफाओं में), मधुबनी और वार्ली चित्रकला (लोक शैली की पारंपरिक चित्रकारी), तैल चित्र (तेल रंगों से कैनवास पर बनाई जाने वाली पेंटिंग), जलरंग चित्र (हल्के और पारदर्शी रंगों का उपयोग), और डिजिटल चित्रकारी (कंप्यूटर और टैबलेट के माध्यम से बनाई जाने वाली आधुनिक कला)।
इसके अलावा, आधुनिक युग में क्यूबिज़्म, एब्सट्रैक्ट और रियलिस्टिक पेंटिंग जैसी कई शैलियाँ भी लोकप्रिय हैं। चित्रकारी न केवल सौंदर्यबोध को प्रकट करती है, बल्कि समाज, संस्कृति और इतिहास का भी दर्पण होती है।
30. कुशकांतार-ज्ञान – जंगलों और कठिन रास्तों में चलने की कला
कुशकांतार-ज्ञान जंगलों और कठिन रास्तों में सुरक्षित और कुशलता से चलने की कला है, जो विशेष रूप से यात्रियों, खोजकर्ताओं और आदिवासी समुदायों के लिए आवश्यक होती है। यह ज्ञान व्यक्ति को प्राकृतिक भूभाग, वनस्पति, जलस्रोतों और संभावित खतरों को पहचानने में मदद करता है। घने जंगलों में दिशा खोजने के लिए सूर्य, तारे, हवा की दिशा और वृक्षों पर उगे काई जैसे प्राकृतिक संकेतों का उपयोग किया जाता है।
कठिन रास्तों पर संतुलन बनाए रखना, उचित गति से चलना, आवश्यक संसाधनों को साथ रखना और जंगली जीवों से बचाव के उपाय करना इस कौशल का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि और शिकारी इस ज्ञान का उपयोग करते थे, जबकि आज यह पर्वतारोहियों, सैन्य बलों और जंगल सफारी प्रेमियों के लिए अत्यंत उपयोगी है।
भोजन, चिकित्सा और व्यापार से संबंधित
पाकशास्त्र स्वादिष्ट भोजन बनाने की एक कला है, जिसमें विभिन्न सामग्रियों, मसालों और पकाने की तकनीकों का संतुलित उपयोग किया जाता है। एक अच्छे पकवान के लिए सही तापमान, समय, मसालों का अनुपात और प्रस्तुतिकरण का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है। भारतीय पाकशास्त्र अपनी विविधता और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें विभिन्न प्रांतों के अनोखे व्यंजन शामिल हैं, जैसे पंजाब का मक्खन Loaded पराठा, दक्षिण भारत का डोसा-सांभर, बंगाल की रसगुल्ला मिठाई और राजस्थान का दाल-बाटी-चूरमा।
आयुर्वेद में भी बताया गया है कि सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन का हमारे शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पाककला में पारंपरिक और फ्यूजन कुकिंग के साथ-साथ हेल्दी और ऑर्गेनिक फूड ट्रेंड भी लोकप्रिय हो रहे हैं, जिससे स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जा सके।
31. मसालों का ज्ञान – खाने में उपयोग होने वाले मसाले पहचानना
मसालों का ज्ञान भोजन के स्वाद, सुगंध और पोषण को बढ़ाने की एक महत्वपूर्ण कला है। भारतीय रसोई में मसालों का विशेष महत्व है, जो न केवल व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाते हैं, बल्कि उनके औषधीय गुण भी होते हैं। हल्दी एंटीसेप्टिक गुणों से भरपूर होती है, जबकि जीरा और सौंफ पाचन को सुधारते हैं। धनिया और हिंग खाने में खुशबू बढ़ाते हैं, तो काली मिर्च और लौंग रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक होते हैं।
इलायची मिठाइयों और पेय पदार्थों में सुगंध लाती है, जबकि गरम मसाला भारतीय व्यंजनों को विशेष स्वाद देता है। विभिन्न व्यंजनों में मसालों का सही संतुलन बनाना पाक कला का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिससे भोजन स्वादिष्ट और सेहतमंद दोनों बनता है।
32. पाकशास्त्र – स्वादिष्ट भोजन बनाने की कला
पाकशास्त्र स्वादिष्ट भोजन बनाने की एक कला है, जिसमें विभिन्न सामग्रियों, मसालों और पकाने की तकनीकों का संतुलित उपयोग किया जाता है। एक अच्छे पकवान के लिए सही तापमान, समय, मसालों का अनुपात और प्रस्तुतिकरण का विशेष ध्यान रखना आवश्यक होता है। भारतीय पाकशास्त्र अपनी विविधता और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें विभिन्न प्रांतों के अनोखे व्यंजन शामिल हैं, जैसे पंजाब का मक्खन Loaded पराठा, दक्षिण भारत का डोसा-सांभर, बंगाल की रसगुल्ला मिठाई और राजस्थान का दाल-बाटी-चूरमा।
आयुर्वेद में भी बताया गया है कि सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन का हमारे शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पाककला में पारंपरिक और फ्यूजन कुकिंग के साथ-साथ हेल्दी और ऑर्गेनिक फूड ट्रेंड भी लोकप्रिय हो रहे हैं, जिससे स्वाद के साथ-साथ स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जा सके।
33. औषधि-निर्माण – जड़ी-बूटियों और आयुर्वेदिक औषधियों का ज्ञान
औषधि-निर्माण एक प्राचीन विज्ञान है, जिसमें जड़ी-बूटियों और आयुर्वेदिक औषधियों के गुणों का अध्ययन कर विभिन्न रोगों के उपचार हेतु दवाएँ तैयार की जाती हैं। आयुर्वेद में त्रिदोष सिद्धांत – वात, पित्त और कफ के संतुलन पर आधारित औषधियों का निर्माण किया जाता है। तुलसी, अश्वगंधा, गिलोय, हल्दी, आंवला और ब्राह्मी जैसी जड़ी-बूटियाँ प्राकृतिक औषधियों के रूप में उपयोग की जाती हैं, जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक होती हैं।
आयुर्वेदिक औषधियों को काढ़ा, चूर्ण, आसव, अरिष्ट और तेल के रूप में तैयार किया जाता है, जिनका उपयोग न केवल उपचार में बल्कि रोगों की रोकथाम और संपूर्ण स्वास्थ्य सुधार के लिए भी किया जाता है। आधुनिक विज्ञान भी आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभाव को मान्यता दे रहा है, जिससे पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली का वैश्विक महत्व बढ़ता जा रहा है।
34. भोजन की सज्जा – थाली और व्यंजनों को आकर्षक बनाना
भोजन की सज्जा न केवल स्वाद को बढ़ाती है बल्कि खाने के प्रति आकर्षण और आनंद भी बढ़ाती है। थाली और व्यंजनों की सुंदरता सही रंग संयोजन, बनावट और परोसने की शैली पर निर्भर करती है। भारतीय परंपरा में विभिन्न व्यंजनों को थाली में इस प्रकार सजाया जाता है कि पोषण संतुलित हो और दृष्टि से भी मनमोहक लगे। पत्तों, फूलों, जड़ी-बूटियों और रंगीन मसालों से सजावट करने से भोजन अधिक आकर्षक दिखता है।
दक्षिण भारतीय थाली में केले के पत्ते का उपयोग, राजस्थानी थाली में विभिन्न रंग-बिरंगे व्यंजन, और मुगलई खाने में सुनहरी चांदी की परत इस कला के कुछ उदाहरण हैं। आधुनिक रेस्तरां और होम शेफ्स आज फूड प्लेटिंग की विभिन्न तकनीकों का उपयोग कर भोजन को कला का रूप दे रहे हैं, जिससे खाने का अनुभव और भी खास बन जाता है।
35. व्यवसाय-ज्ञान – व्यापार करने की कला
व्यवसाय-ज्ञान व्यापार करने की वह कला है, जिसमें बाजार की समझ, रणनीति, प्रबंधन और ग्राहक संतुष्टि का समावेश होता है। सफल व्यापार के लिए सही उत्पाद या सेवा का चयन, पूंजी प्रबंधन, विपणन रणनीति और प्रतिस्पर्धा का विश्लेषण आवश्यक होता है। व्यापार में जोखिम और अवसर दोनों होते हैं, इसलिए कुशल योजना, नवीनता और तकनीकी अपनाने से इसे बढ़ाया जा सकता है।
भारतीय परंपरा में व्यापार को धन, समृद्धि और सामाजिक विकास से जोड़ा गया है, और प्राचीन काल से ही भारत व्यापारिक केंद्र के रूप में समृद्ध रहा है। आज के डिजिटल युग में ऑनलाइन व्यापार, स्टार्टअप और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म व्यवसाय को नए आयाम दे रहे हैं, जिससे उद्यमी कम लागत में भी वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बना सकते हैं।
36. धन-संग्रह – पैसे की बचत और प्रबंधन
धन-संग्रह का अर्थ केवल पैसे बचाने से नहीं, बल्कि उसे सही तरीके से प्रबंधित और निवेश करने से भी है। यह एक महत्वपूर्ण वित्तीय कला है, जो व्यक्ति को आर्थिक रूप से सुरक्षित और स्वतंत्र बनाती है। धन-संग्रह के लिए आय और व्यय का संतुलन बनाए रखना आवश्यक होता है, जिससे अनावश्यक खर्चों से बचते हुए बचत को बढ़ाया जा सके। बैंकिंग, निवेश, बीमा, और रियल एस्टेट जैसी योजनाएँ आर्थिक स्थिरता लाने में मदद करती हैं।
भारतीय परंपरा में धन-संग्रह को लक्ष्मी प्राप्ति का साधन माना गया है, और प्राचीन ग्रंथों में भी मितव्ययिता और बुद्धिमान निवेश की सलाह दी गई है। आधुनिक समय में फिक्स्ड डिपॉजिट, म्यूचुअल फंड, शेयर बाजार और डिजिटल एसेट्स जैसे विकल्पों के माध्यम से लोग अपने धन को सुरक्षित और विकसित कर सकते हैं, जिससे भविष्य की आवश्यकताओं के लिए आर्थिक मजबूती बनी रहे।
37. रत्नखल निष्कासन – खदान से रत्न निकालने की कला
रत्नखल निष्कासन वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा खदानों से बहुमूल्य रत्नों को निकाला जाता है। यह एक जटिल और श्रमसाध्य कला है, जिसमें भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण, खुदाई, छानबीन और प्रसंस्करण की विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया जाता है। रत्नों की खदानें आमतौर पर गहरी चट्टानों, नदी की तलहटी या ज्वालामुखीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं। खुदाई के बाद कच्चे रत्नों को छांटकर तराशा और चमकाया जाता है, जिससे वे आभूषणों और औद्योगिक उपयोग के लिए तैयार हो सकें।
भारत में मध्य प्रदेश की पन्ना खदानें हीरे के लिए प्रसिद्ध हैं, जबकि कर्नाटक, ओडिशा और राजस्थान में भी विभिन्न बहुमूल्य रत्नों की खदानें पाई जाती हैं। प्राचीन काल से ही रत्न निष्कासन और उनकी परख में भारत का विश्व स्तर पर महत्वपूर्ण स्थान रहा है, और यह कला आज भी आधुनिक तकनीकों के साथ विकसित हो रही है।
38. ज्योतिष-ज्ञान – ग्रह-नक्षत्रों और राशियों का ज्ञान
ज्योतिष-ज्ञान एक प्राचीन वैदिक विद्या है, जो ग्रह-नक्षत्रों और राशियों के अध्ययन पर आधारित है। इसके अनुसार, सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि और अन्य ग्रहों की स्थिति व्यक्ति के जीवन, स्वभाव और भाग्य को प्रभावित करती है। ज्योतिष में बारह राशियाँ होती हैं, जो जन्म समय में चंद्रमा की स्थिति के आधार पर निर्धारित की जाती हैं। इन राशियों और ग्रहों के संयोग से कुंडली बनाई जाती है, जिससे व्यक्ति के भविष्य, स्वास्थ्य, करियर और विवाह से जुड़ी संभावनाओं का विश्लेषण किया जाता है।
वैदिक ज्योतिष में नवग्रहों की चाल, दशाएँ, गोचर और विभिन्न योगों का विशेष महत्व होता है, जो जीवन में शुभ और अशुभ प्रभाव डालते हैं। भारत में ज्योतिष का प्रयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि वास्तु, कृषि और धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता है, जिससे समय की शुभता और ऊर्जा संतुलन सुनिश्चित किया जा सके।
39. वास्तु-ज्ञान – भवन निर्माण और वास्तुशास्त्र
वास्तु-ज्ञान भारतीय स्थापत्य और भवन निर्माण की प्राचीन विधा है, जिसमें वास्तुशास्त्र एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में दिशाओं, ऊर्जा संतुलन और प्राकृतिक तत्वों के समन्वय पर आधारित है। यह शास्त्र भवनों, मंदिरों, महलों, नगरों और अन्य संरचनाओं के निर्माण के लिए वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दिशानिर्देश प्रदान करता है, जिससे सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बना रहे। प्राचीन भारतीय वास्तुकला में अयोध्या, मथुरा, उज्जैन और हस्तिनापुर जैसे नगरों की योजना वास्तु सिद्धांतों के अनुसार बनाई गई थी।
मंदिरों और महलों में उपयोग किए गए वास्तुशिल्प तत्व, जैसे गोपुरम, मंडप, स्तंभ और शिखर, न केवल सौंदर्यशास्त्र को बढ़ाते हैं, बल्कि आध्यात्मिक और प्राकृतिक ऊर्जा संतुलन भी स्थापित करते हैं। आधुनिक भवन निर्माण में भी वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है, ताकि सुख-समृद्धि और शांति बनी रहे।
40. शिल्प-विद्या – मूर्तिकला और शिल्पकला
शिल्प-विद्या में मूर्तिकला और शिल्पकला दो प्रमुख विधाएँ हैं, जो प्राचीन समय से ही भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रही हैं। मूर्तिकला पत्थर, धातु, लकड़ी या मिट्टी से देवी-देवताओं, राजाओं और ऐतिहासिक व्यक्तित्वों की मूर्तियाँ गढ़ने की कला है, जो धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनती है।
वहीं, शिल्पकला में भवनों, स्तंभों, मंदिरों और हस्तशिल्प की सुंदर नक्काशी शामिल होती है, जिसमें जटिल डिजाइन, भित्तिचित्र और वास्तुशिल्प सौंदर्य झलकता है। भारत की अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ, खजुराहो और कोणार्क के मंदिर, चोल व गुप्त काल की मूर्तियाँ इस समृद्ध शिल्प परंपरा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
मनोरंजन, शस्त्र और प्रकृति से संबंधित
Click on the link भारत के दस प्राचीन रहस्यमयी मंदिर आस्था का केंद्र जानकारी के लिए यहां क्लिक करें।
41. जल-क्रीड़ा – तैराकी और जल में खेलने की कला
जल-क्रीड़ा भारतीय 64 कलाओं में एक मनोरंजक और व्यावहारिक विद्या है, जिसमें तैराकी, जल में खेलों की तकनीक और जल में आत्मरक्षा के कौशल शामिल हैं। प्राचीन भारत में यह कला न केवल मनोरंजन का साधन थी, बल्कि युद्ध और रक्षा के लिए भी उपयोगी मानी जाती थी। नदियों, तालाबों और झीलों में तैराकी, गोताखोरी और जल में विविध कलात्मक क्रियाएँ करना इस विद्या का हिस्सा था।
महाकाव्यों और पुराणों में जल-क्रीड़ा के अनेक संदर्भ मिलते हैं, जहाँ राजपरिवारों और योद्धाओं द्वारा जल में खेले जाने वाले खेलों और प्रतियोगिताओं का वर्णन किया गया है। यह विद्या शरीर को सुदृढ़ बनाने, सहनशक्ति बढ़ाने और जल में संकट के समय आत्मरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी थी। आधुनिक युग में यह कला तैराकी, वाटर स्पोर्ट्स, स्कूबा डाइविंग और लाइफ सेविंग तकनीकों के रूप में विकसित हो चुकी है, जिससे जल सुरक्षा और मनोरंजन के नए आयाम जुड़े हैं।
42. युद्ध-कला – अस्त्र-शस्त्र चलाने की विधि
युद्ध-कला भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें अस्त्र-शस्त्र चलाने की विधियाँ, युद्ध कौशल और रणनीति शामिल हैं। प्राचीन भारत में यह कला क्षत्रियों और योद्धाओं के लिए अनिवार्य मानी जाती थी, जिससे वे युद्ध के विभिन्न आयामों में निपुण हो सकें। धनुर्वेद और शस्त्रविद्या जैसे ग्रंथों में तलवार, धनुष-बाण, भाला, गदा, चक्र और अन्य शस्त्रों के प्रयोग की तकनीकें विस्तार से वर्णित हैं। युद्ध-कला में व्यक्तिगत युद्ध कौशल के साथ-साथ सैन्य संगठन, व्यूह रचना (चक्रव्यूह जैसी रणनीतियाँ), घुड़सवारी, हाथी संचालन और कुश्ती का ज्ञान भी आवश्यक था।
प्राचीन भारत के योद्धा, जैसे अर्जुन, परशुराम और कर्ण, इस विद्या में निपुण माने जाते थे। आधुनिक युग में यह कला सैन्य विज्ञान, मार्शल आर्ट्स, रक्षा रणनीति और आत्मरक्षा प्रशिक्षण के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ आधुनिक हथियारों और युद्धनीतियों का विशेष अध्ययन किया जाता है।
43. गज-विद्या – हाथियों की देखभाल और संचालन
गज-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें हाथियों की देखभाल, प्रशिक्षण और संचालन की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन भारत में हाथियों को राजकीय शान, युद्ध, परिवहन और उत्सवों का अभिन्न अंग माना जाता था, इसलिए इस विद्या का विशेष महत्व था। गजशास्त्र और मातंगलीला जैसे ग्रंथों में हाथियों की नस्लों, स्वभाव, रोगों, उपचार और प्रशिक्षण की विस्तृत जानकारी मिलती है।
प्रशिक्षित महावत (हाथी संचालक) हाथियों को संकेतों और ध्वनियों के माध्यम से नियंत्रित करते थे, जिससे वे युद्ध, भारी सामान ढोने और राजसी समारोहों में भाग लेने के लिए सक्षम होते थे। प्राचीन भारतीय राजाओं की सेनाओं में विशेष रूप से प्रशिक्षित युद्ध हाथियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। आधुनिक युग में यह विद्या वन्यजीव संरक्षण, हाथी पुनर्वास, इको-टूरिज्म और वन प्रबंधन में विकसित हो चुकी है, जहाँ हाथियों की देखभाल और संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
44. अश्व-विद्या – घोड़ों की देखभाल और संचालन
अश्व-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें घोड़ों की देखभाल, उनके प्रशिक्षण और संचालन की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन भारत में घोड़े युद्ध, परिवहन और राजकीय शान का प्रतीक माने जाते थे, इसलिए इस विद्या का विशेष महत्व था। इसमें घोड़ों की नस्लों की पहचान, उनके स्वास्थ्य, आहार, उपचार, सवारी (अश्वारोहण) और युद्ध कौशल में उनके उपयोग का ज्ञान शामिल था। अश्वशास्त्र और शालिहोत्र संहिता जैसे ग्रंथों में घोड़ों की देखभाल, उनकी बीमारियों और चिकित्सा का विस्तृत वर्णन मिलता है।
राजाओं और योद्धाओं के लिए प्रशिक्षित घोड़े युद्ध और यात्राओं में अति आवश्यक होते थे, जिनकी गति, सहनशीलता और बुद्धिमत्ता पर उनकी विजय निर्भर करती थी। आधुनिक युग में यह विद्या घुड़सवारी, पोलो, घुड़दौड़, पशु चिकित्सा और घोड़ा प्रजनन (Equestrian Science) के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ घोड़ों का संरक्षण और उनके बेहतर प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
45. मृग-विद्या – जंगल में शिकार और जानवरों की पहचान
मृग-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें जंगल में शिकार, वन्यजीवों की पहचान और उनके व्यवहार को समझने की कला शामिल है। प्राचीन भारत में यह विद्या राजाओं, योद्धाओं और वनवासियों के लिए अत्यंत उपयोगी थी, जिससे वे जंगल में जीवों के पदचिह्न, उनकी चाल, स्वभाव और रहन-सहन का अध्ययन कर शिकार या संरक्षण कर सकते थे।
मनुस्मृति और अर्थशास्त्र जैसे ग्रंथों में शिकार की नीति, हथियारों के उपयोग और वन्यजीव प्रबंधन का उल्लेख मिलता है। यह कला केवल शिकार तक सीमित नहीं थी, बल्कि वन्यजीवों के साथ सह-अस्तित्व, चिकित्सा में पशु उत्पादों के उपयोग और पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में भी सहायक थी। आधुनिक युग में यह विद्या वाइल्डलाइफ बायोलॉजी, फॉरेस्ट्री, ईकोटूरिज्म और वन्यजीव संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे जैव विविधता और पर्यावरण की रक्षा की जा सके।
46. पक्षी-विद्या – पक्षियों को प्रशिक्षित करने की कला
पक्षी-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक रोचक और उपयोगी विद्या है, जिसमें पक्षियों के व्यवहार, उनकी प्रजातियों की पहचान और उन्हें प्रशिक्षित करने की विधियाँ शामिल हैं। प्राचीन भारत में यह कला राजाओं और अभिजात्य वर्ग के बीच लोकप्रिय थी, जहाँ विशेष रूप से बाज, कबूतर और तोतों को संदेशवाहक, शिकार और मनोरंजन के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। ऐतिहासिक ग्रंथों और राजदरबारों में बाज़ीगरी (फाल्कनरी) और कबूतरबाजी का उल्लेख मिलता है, जिसमें पक्षियों को संकेतों और ध्वनियों के माध्यम से निर्देश दिए जाते थे।
इसके अलावा, विद्वान तोतों को संस्कृत श्लोक और कथाएँ सिखाकर ज्ञान के प्रसार में इस कला का उपयोग करते थे। आधुनिक समय में पक्षी-विद्या का महत्व एवियन ट्रेनिंग, पक्षी संरक्षण, शोध और पर्यावरण संतुलन में बढ़ गया है, जिससे जैव विविधता की रक्षा और पक्षियों के अनुकूल वातावरण बनाने में सहायता मिलती है।
47. सर्प-विद्या – साँपों और उनके विष का ज्ञान
सर्प-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक रहस्यमय और महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें साँपों की पहचान, उनके व्यवहार, विष के प्रकार और उससे उपचार की विधियों का ज्ञान शामिल है। प्राचीन भारत में यह विद्या विशेष रूप से नागों की पूजा, सर्प दंश से बचाव और औषधीय उपचार के लिए विकसित की गई थी। आयुर्वेद और अग्नि पुराण जैसे ग्रंथों में विभिन्न साँपों और उनके विष के प्रभावों का उल्लेख मिलता है, साथ ही सर्पदंश के उपचार के लिए जड़ी-बूटियों और मंत्रों का भी वर्णन किया गया है।
प्राचीनकाल में राजवैद्य और तांत्रिक इस विद्या में निपुण होते थे और विष चिकित्सा के विशेषज्ञ माने जाते थे। यह विद्या केवल चिकित्सा तक सीमित नहीं थी, बल्कि साँपों के संरक्षण, उनके पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान और मानव-सर्प संघर्ष को कम करने के लिए भी उपयोगी थी। आधुनिक विज्ञान में यह विद्या हर्पेटोलॉजी (Herpetology) के रूप में विकसित हो चुकी है, जहाँ साँपों के अध्ययन, एंटी-वेनम (विषरोधी दवाएँ) निर्माण और जैव विविधता संरक्षण पर शोध किया जाता है।
48. मधु-विद्या – शहद और मधुमक्खियों का अध्ययन
मधु-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक विशिष्ट विद्या है, जिसमें शहद, मधुमक्खियों के व्यवहार और मधुमक्खी पालन (एपीकल्चर) का अध्ययन किया जाता है। प्राचीन भारत में शहद को केवल एक प्राकृतिक मधुर द्रव्य ही नहीं, बल्कि औषधीय और आध्यात्मिक महत्व वाला पदार्थ माना जाता था। आयुर्वेद में शहद के अनेक स्वास्थ्य लाभों का वर्णन मिलता है, जिनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाना, घाव भरना और पाचन सुधारना प्रमुख हैं।
यह विद्या मधुमक्खियों की विभिन्न प्रजातियों, उनके छत्तों की संरचना, शहद एकत्र करने की तकनीकों और परागण में उनकी भूमिका को समझने में सहायक होती है। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनि और वनवासी इस कला में निपुण होते थे, जिससे वे प्राकृतिक रूप से शहद संग्रह कर उसका सही उपयोग कर पाते थे। आधुनिक युग में मधु-विद्या वैज्ञानिक मधुमक्खी पालन, जैवविविधता संरक्षण और जैविक कृषि में एक महत्वपूर्ण विषय बन चुकी है, जिससे शहद उत्पादन को सतत और लाभदायक बनाया जा सके।
49. वनस्पति-ज्ञान – पेड़-पौधों और उनके औषधीय गुणों का ज्ञान
वनस्पति-ज्ञान भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें विभिन्न पेड़-पौधों की पहचान, उनके गुणधर्म और औषधीय उपयोग का विस्तृत ज्ञान शामिल है। प्राचीन भारत में यह विद्या आयुर्वेद, कृषि और पर्यावरण संरक्षण का आधार थी। ऋषि-मुनि और वैद्य वनस्पतियों के औषधीय गुणों को पहचानकर उनसे औषधियाँ तैयार करते थे, जिनका उपयोग उपचार और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए किया जाता था। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता जैसे ग्रंथों में सैकड़ों औषधीय पौधों का वर्णन मिलता है, जिनका उपयोग आज भी आयुर्वेदिक चिकित्सा में किया जाता है।
इसके अलावा, यह विद्या खाद्य, इंधन, वस्त्र, रंग और सुगंध बनाने में भी सहायक होती थी। आधुनिक युग में वनस्पति-ज्ञान कृषि, हर्बल मेडिसिन, बायोटेक्नोलॉजी और पर्यावरणीय शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जिससे जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बनाए रखा जा सके।
50. जलविज्ञान – जल स्रोतों और उनके उपयोग का ज्ञान
जलविज्ञान भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें जल स्रोतों की पहचान, संरक्षण और उनके उपयोग का गहन ज्ञान शामिल है। प्राचीन भारत में जल को जीवन और समृद्धि का आधार माना जाता था, और इस कला के माध्यम से नदी, झील, तालाब, कुओं और भूमिगत जल स्रोतों के महत्व को समझा जाता था। यह विद्या जल संचयन, जल प्रबंधन, नहरों और बावड़ियों के निर्माण, तथा सिंचाई प्रणालियों के विकास में सहायक थी।
अर्थशास्त्र और वास्तुशास्त्र जैसे ग्रंथों में जल संरक्षण की विस्तृत विधियाँ वर्णित हैं, जो पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में सहायक होती थीं। आधुनिक युग में यह विद्या जल संसाधन प्रबंधन, जल शुद्धिकरण तकनीकों और जल संरक्षण अभियानों के रूप में विकसित हो चुकी है, जिससे सतत विकास और पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
तंत्र, योग और आध्यात्म से संबंधित
Click on the link कामशास्त्र, तंत्र-शास्त्र, धार्मिक, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से "शिव-पार्वती संवाद" सहित सभी ग्रंथों का पूर्ण मंथन - शायद आपको नहीं पता होगा कि स्त्री योनि कितने प्रकार की होती है। यह गुप्त रहस्य प्रत्येक स्त्री को समझना चाहिए इससे अपने गुण दोष स्वम् की जानकारी प्राप्त होगी। धार्मिक आध्यात्मिक दृष्टि से 64 का बहुत बड़ा रहस्य है - जानिए स्त्री योनि के 64 प्रकार कौन कौन से हैं और देवी-देवताओं का स्थान कहाँ है। दूसरी सम्बंधित लेख गर्भावस्था के नौ महीने की यात्रा भी पढ़िए। यहां विस्तृत जानकारी दी गई है ब्लू लाइन पर क्लिक कर पढ़िए।
51. मंत्र-विद्या – तंत्र-मंत्र और साधना
मंत्र-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक रहस्यमयी और शक्तिशाली विद्या है, जिसमें तंत्र, मंत्र और साधना के माध्यम से आध्यात्मिक और दैवीय शक्तियों को जाग्रत करने की विधियाँ शामिल हैं। यह विद्या वेदों, उपनिषदों और तंत्र ग्रंथों में वर्णित है, जहाँ विभिन्न मंत्रों के उच्चारण से ऊर्जा संचार, आत्मशुद्धि और सिद्धियों की प्राप्ति संभव मानी गई है। गायत्री मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, श्रीविद्या मंत्र जैसे शक्तिशाली मंत्रों का जप करने से मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और नकारात्मक ऊर्जा का नाश होता है।
तंत्र-मंत्र साधना में विशेष अनुष्ठानों, यंत्रों और ध्यान विधियों का उपयोग किया जाता है, जिससे साधक अपनी चेतना को जाग्रत कर आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त कर सकता है। मंत्रों के सही उच्चारण और नियमों का पालन करना अत्यंत आवश्यक होता है, क्योंकि यह ध्वनि तरंगों और ऊर्जा संतुलन पर आधारित विज्ञान है। आधुनिक समय में भी मंत्र-विद्या को ध्यान, योग और आध्यात्मिक उपचार के रूप में अपनाया जा रहा है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में सकारात्मकता, शक्ति और शांति प्राप्त कर सकता है।
52. योग-साधना – योग और ध्यान की विधियाँ
योग-साधना भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा के संतुलन के लिए योग और ध्यान की विधियाँ शामिल हैं। पतंजलि योगसूत्र, भगवद गीता और उपनिषदों में योग को आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। योग के आठ अंग—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त बनाते हैं। हठयोग, राजयोग, कर्मयोग और भक्तियोग जैसी विधियाँ आत्म-विकास और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती हैं।
नियमित योग-साधना से शारीरिक लचीलापन, मानसिक शांति और ऊर्जा संतुलन बना रहता है, जिससे व्यक्ति तनाव, रोग और नकारात्मक विचारों से मुक्त होकर संतुलित जीवन जी सकता है। आधुनिक युग में योग एक वैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, जिससे योग चिकित्सा, प्राणायाम और माइंडफुलनेस मेडिटेशन के माध्यम से स्वास्थ्य और आध्यात्मिक उन्नति को बढ़ावा दिया जा रहा है।
53. आयुर्वेद – जीवन के लिए स्वास्थ्य का ज्ञान
आयुर्वेद भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा और संतुलित दिनचर्या का ज्ञान शामिल है। यह प्राचीन चिकित्सा विज्ञान ऋग्वेद, अथर्ववेद और चरक संहिता, सुश्रुत संहिता जैसे ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित है, जहाँ शरीर, मन और आत्मा के संतुलन को स्वास्थ्य का मूल आधार माना गया है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर तीन दोषों—वात, पित्त और कफ—के संतुलन से स्वस्थ रहता है, और इनका असंतुलन रोगों का कारण बनता है।
इसमें जड़ी-बूटियों, पंचकर्म, योग, आहार-विहार और प्राकृतिक उपचारों के माध्यम से बीमारियों को दूर करने और दीर्घायु प्राप्त करने की विधियाँ बताई गई हैं। आयुर्वेद केवल रोगों के उपचार तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जीवनशैली, मानसिक शांति और संपूर्ण स्वास्थ्य को बनाए रखने की एक सम्पूर्ण जीवन पद्धति है। आधुनिक विज्ञान भी आयुर्वेद की प्रभावशीलता को स्वीकार कर रहा है, और आज आयुष चिकित्सा, हर्बल उपचार तथा योग चिकित्सा के रूप में इसे वैश्विक स्तर पर अपनाया जा रहा है।
54. ध्यान-कला – मानसिक शांति के लिए ध्यान
ध्यान-कला भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें मानसिक शांति, आत्मचेतना और आंतरिक संतुलन प्राप्त करने की विधियाँ शामिल हैं। यह विद्या प्राचीन योग शास्त्रों, पतंजलि योगसूत्र, वेदों और उपनिषदों में वर्णित है, जहाँ ध्यान को आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग माना गया है। ध्यान-कला के माध्यम से व्यक्ति अपने विचारों को नियंत्रित कर मानसिक शांति, एकाग्रता और आंतरिक ऊर्जा को जागृत कर सकता है।
सहज ध्यान, विपश्यना, त्राटक और कुंडलिनी ध्यान जैसी विधियाँ मन को स्थिर कर आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होती हैं। आधुनिक जीवन की भागदौड़ और तनाव को दूर करने के लिए ध्यान-कला को माइंडफुलनेस मेडिटेशन और योग चिकित्सा के रूप में अपनाया जा रहा है, जिससे मानसिक स्वास्थ्य, आत्मसंयम और सकारात्मक सोच को बढ़ावा मिलता है। ध्यान न केवल आध्यात्मिक साधना का हिस्सा है, बल्कि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया भी है, जिससे मस्तिष्क को शांति, सृजनात्मकता और नई ऊर्जा प्राप्त होती है।
55. संयम-विद्या – संयम और आत्मनियंत्रण की कला
संयम-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक गूढ़ और महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें मन, वाणी, इंद्रियों और कर्मों पर नियंत्रण रखने की कला शामिल है। यह विद्या आत्म-अनुशासन, धैर्य और मानसिक स्थिरता को विकसित करने में सहायक होती है। प्राचीन ग्रंथों, जैसे भगवद गीता, योग सूत्र और उपनिषदों में संयम को आत्मविकास और मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन बताया गया है। योग और ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने विचारों, इच्छाओं और भावनाओं पर नियंत्रण रख सकता है, जिससे वह बाहरी प्रलोभनों से मुक्त होकर सत्य और धर्म के मार्ग पर चल सकता है।
संयम-विद्या केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए भी आवश्यक मानी जाती है। यह विद्या योगियों, राजाओं और महान व्यक्तित्वों की विशेषता रही है, जो अपने संयम के बल पर महान कार्य करने में सक्षम हुए। आधुनिक युग में यह विद्या आत्मसंयम, अनुशासन, तनाव-प्रबंधन और सकारात्मक जीवनशैली के रूप में विकसित हो चुकी है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में संतुलन और सफलता प्राप्त कर सकता है।
56. संस्कार-विद्या – विभिन्न संस्कारों का ज्ञान
संस्कार-विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें जीवन के विभिन्न चरणों में संपन्न किए जाने वाले संस्कारों का ज्ञान शामिल है। हिंदू धर्म में संस्कार को व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए आवश्यक माना गया है। मनुस्मृति, गृह्यसूत्रों और धर्मशास्त्रों में 16 प्रमुख संस्कारों का वर्णन किया गया है, जिनमें गर्भाधान (गर्भधारण), नामकरण (नामकरण संस्कार), उपनयन (जनेऊ संस्कार), विवाह, अंत्येष्टि (अंतिम संस्कार) आदि प्रमुख हैं।
इन संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति के जीवन को शुद्ध, अनुशासित और आध्यात्मिक रूप से उन्नत बनाना है। प्रत्येक संस्कार विशेष मंत्रों, अनुष्ठानों और पूजा-पद्धतियों के साथ संपन्न किया जाता है, जो व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होते हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि और आचार्य इन संस्कारों का संचालन करते थे, जिससे समाज में नैतिकता और धार्मिकता बनी रहती थी। आधुनिक समय में भी ये संस्कार पारंपरिक रूप से परिवारों और समाज में प्रचलित हैं, जो सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखने और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होते हैं।
57. कर्मकांड – पूजा-पाठ और अनुष्ठान
कर्मकांड भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें पूजा-पाठ, अनुष्ठान और धार्मिक क्रियाओं की विधियाँ शामिल हैं। यह विद्या वेदों, पुराणों और धर्मशास्त्रों पर आधारित है, जिनमें यज्ञ, हवन, व्रत, संकल्प, मंत्र-जप, तर्पण और संस्कारों की विस्तृत प्रक्रियाएँ वर्णित हैं। हिंदू धर्म में कर्मकांड का विशेष महत्व है, क्योंकि इसे व्यक्ति के जीवन को शुद्ध और शुभ बनाने का माध्यम माना जाता है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद में विभिन्न अनुष्ठानों और यज्ञों की महिमा का वर्णन किया गया है, जो देवताओं की कृपा प्राप्त करने और नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने में सहायक होते हैं।
जन्म, विवाह, गृह प्रवेश, श्राद्ध और अंतिम संस्कार जैसे महत्वपूर्ण संस्कार भी कर्मकांड के अंतर्गत आते हैं। यह विद्या केवल धार्मिक परंपराओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका गहरा मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक प्रभाव भी होता है, जिससे व्यक्ति में शांति, श्रद्धा और आस्था बनी रहती है। आधुनिक युग में यह विद्या धार्मिक गुरुओं, पुरोहितों और ज्योतिषाचार्यों द्वारा संरक्षित की जा रही है, जो पारंपरिक विधियों से अनुष्ठानों का संचालन करते हैं और समाज में धार्मिक चेतना जाग्रत रखते हैं।
58. तंत्र-साधना – शक्ति और साधना का मार्ग
तंत्र-साधना भारतीय 64 कलाओं में एक रहस्यमयी और गूढ़ विद्या है, जिसमें आध्यात्मिक शक्ति को जाग्रत करने और साधना के माध्यम से आत्म-सिद्धि प्राप्त करने की प्रक्रिया शामिल है। यह विद्या वेदों, उपनिषदों और तंत्र ग्रंथों में वर्णित है, जिसमें विशेष मंत्रों, यंत्रों, मुद्राओं और ध्यान की विधियों द्वारा आंतरिक ऊर्जा को नियंत्रित किया जाता है। शक्ति उपासना में तंत्र-साधना का विशेष महत्व है, जहाँ साधक देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त करने, कुंडलिनी शक्ति जाग्रत करने और सिद्धियों को प्राप्त करने का प्रयास करता है।
प्राचीन काल में कई योगी और तांत्रिक इस विद्या में निपुण थे, जिन्होंने गूढ़ रहस्यों को समझकर अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति की। काली तंत्र, श्री विद्या तंत्र और अघोर तंत्र जैसी साधनाएँ विभिन्न रूपों में प्रचलित हैं। हालाँकि, तंत्र-साधना केवल चमत्कारों या शक्तियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आत्मिक उन्नति, ध्यान और भौतिक व आध्यात्मिक संतुलन का मार्ग भी है। आधुनिक युग में यह विद्या ध्यान, कुंडलिनी योग और मानसिक ऊर्जा के जागरण के रूप में विकसित हो चुकी है, जिससे व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानकर जीवन में सफलता और शांति प्राप्त कर सकता है।
59. संगीत उपचार – संगीत द्वारा चिकित्सा
संगीत उपचार भारतीय 64 कलाओं में एक प्रभावशाली और वैज्ञानिक विद्या है, जिसमें संगीत के माध्यम से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक उपचार किया जाता है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों, जैसे संहिताओं और नाट्यशास्त्र, में बताया गया है कि विभिन्न रागों का प्रभाव मानव शरीर और मन पर पड़ता है। गंधर्व वेद में उल्लेख मिलता है कि संगीत न केवल मनोरंजन का साधन है, बल्कि यह स्वास्थ्य सुधारने और मानसिक शांति प्रदान करने का माध्यम भी है।
जैसे राग भैरव तनाव कम करता है, राग यमन मानसिक शांति देता है, और राग दरबारी कान्हड़ा अवसाद को दूर करने में सहायक होता है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में इसे म्यूजिक थेरेपी के रूप में अपनाया गया है, जहाँ विशेष ध्वनि तरंगों और सुरों का उपयोग तनाव, अवसाद, अनिद्रा, हृदय रोग और अन्य मानसिक विकारों के उपचार में किया जाता है। संगीत उपचार का उपयोग योग, ध्यान और मनोचिकित्सा में भी किया जाता है, जिससे व्यक्ति की ऊर्जा संतुलित होती है और उसका संपूर्ण स्वास्थ्य सुधरता है।
60. ध्यान-मुद्रा – ध्यान के विभिन्न मुद्राओं का ज्ञान
ध्यान-मुद्रा भारतीय 64 कलाओं में एक महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें ध्यान के विभिन्न मुद्राओं (हस्त और आसन मुद्राएँ) का ज्ञान शामिल है। यह विद्या मानसिक शांति, आत्मचेतना और आध्यात्मिक उन्नति के लिए उपयोगी मानी जाती है। प्राचीन योग शास्त्रों, जैसे पतंजलि योगसूत्र और गोरक्ष संहिता, में ध्यान की विभिन्न मुद्राओं का वर्णन मिलता है, जो शरीर और मन को संतुलित करने में सहायक होती हैं। कुछ प्रमुख ध्यान-मुद्राएँ हैं—पद्मासन (कमल मुद्रा), सिद्धासन, वज्रासन और सुखासन, जो ध्यान के दौरान स्थिरता और ऊर्जा प्रवाह को बढ़ाती हैं।
वहीं, हस्त मुद्राओं में ज्ञान मुद्रा, ध्यान मुद्रा और अभय मुद्रा महत्वपूर्ण हैं, जो एकाग्रता और आंतरिक शक्ति को विकसित करने में मदद करती हैं। इन मुद्राओं के माध्यम से साधक मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है, आत्मसंयम विकसित कर सकता है और उच्च आध्यात्मिक स्तर तक पहुँच सकता है। आधुनिक युग में ध्यान-मुद्राओं का उपयोग मानसिक तनाव को कम करने, ऊर्जा संतुलन बनाए रखने और योग चिकित्सा में व्यापक रूप से किया जाता है।
61. अदृश्य विद्या – अदृश्य रूप से देखने और समझने की कला
अदृश्य विद्या भारतीय 64 कलाओं में एक रहस्यमयी और अलौकिक विद्या मानी जाती है, जिसमें बिना प्रत्यक्ष रूप से देखे या स्पर्श किए किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना को समझने की क्षमता विकसित की जाती है। प्राचीन भारत में यह विद्या योग, ध्यान और तंत्र-साधना के माध्यम से सिद्ध की जाती थी, जिससे व्यक्ति अपनी इंद्रियों को जाग्रत कर सूक्ष्म जगत को देखने और समझने में सक्षम हो सकता था। कई ऋषि-मुनि, सिद्ध योगी और तांत्रिक इस विद्या में पारंगत होकर दूरस्थ स्थानों की जानकारी प्राप्त करने, भविष्य का आभास करने और गूढ़ रहस्यों को समझने की क्षमता रखते थे।
महाभारत और रामायण में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जहाँ दिव्यदृष्टि से घटनाओं को देखा गया। आधुनिक विज्ञान में यह विद्या एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्शन (ESP) या छठी इंद्रिय के रूप में जानी जाती है, जिसमें टेलीपैथी, भविष्य दृष्टि और मानसिक चेतना के विस्तार पर शोध किया जा रहा है। हालाँकि यह विद्या रहस्य और तंत्र के दायरे में अधिक मानी जाती है, लेकिन ध्यान और मानसिक साधना के माध्यम से व्यक्ति अपनी चेतना को जागरूक कर गहन अंतर्ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
62. भावनाओं का ज्ञान – भावनाओं को समझना और नियंत्रित करना
भावनाओं का ज्ञान भारतीय 64 कलाओं में एक गूढ़ और महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें विभिन्न भावनाओं को समझने, व्यक्त करने और नियंत्रित करने की क्षमता शामिल है। यह विद्या केवल आत्म-जागरूकता तक सीमित नहीं, बल्कि दूसरों की भावनाओं को पहचानकर सही प्रतिक्रिया देने की कला भी सिखाती है। प्राचीन भारत में यह ज्ञान योग, ध्यान और आध्यात्मिक साधनाओं के माध्यम से विकसित किया जाता था, जिससे व्यक्ति अपने क्रोध, भय, प्रेम, करुणा और अन्य भावनाओं पर संतुलन बनाए रख सके।
नाट्यशास्त्र में नौ रसों (श्रृंगार, वीर, करुण आदि) का वर्णन किया गया है, जो भावनाओं की विविधता और उनकी अभिव्यक्ति को दर्शाते हैं। यह विद्या राजनेताओं, कलाकारों, शिक्षकों और आध्यात्मिक गुरुओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी थी, जिससे वे अपनी भावनाओं को नियंत्रित रखते हुए दूसरों को प्रेरित कर सकें। आधुनिक समय में यह ज्ञान इमोशनल इंटेलिजेंस (भावनात्मक बुद्धिमत्ता) के रूप में विकसित हो चुका है, जो मानसिक शांति, आत्मसंयम, संबंधों को मजबूत बनाने और जीवन में सफलता प्राप्त करने में सहायक होता है।
63. प्रेरणादायक भाषण – दूसरों को प्रेरित करने की कला
प्रेरणादायक भाषण भारतीय 64 कलाओं में एक प्रभावशाली विद्या है, जिसमें शब्दों और विचारों के माध्यम से दूसरों को प्रेरित करने की कला शामिल है। यह विद्या केवल वाणी की मधुरता तक सीमित नहीं, बल्कि इसमें भावनाओं को सही तरीके से अभिव्यक्त करने, आत्मविश्वास जगाने और श्रोताओं के मन में ऊर्जा भरने की क्षमता होती है। प्राचीन भारत में गुरु, राजदूत, योद्धा और दार्शनिक इस कला में निपुण होते थे, जिससे वे अपने अनुयायियों, सेनाओं और जनता को सही दिशा में प्रेरित कर सकते थे।
महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया गया गीता उपदेश प्रेरणादायक भाषण का श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसने अर्जुन को अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। आधुनिक युग में यह कला सार्वजनिक वक्तृत्व, नेतृत्व, कॉर्पोरेट मोटिवेशन, राजनीति और शिक्षण के क्षेत्र में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, जिससे लोग प्रेरित होकर अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकें।
64. आध्यात्मिक ज्ञान – जीवन के सत्य को समझने की कला
आध्यात्मिक ज्ञान भारतीय 64 कलाओं में सबसे गूढ़ और महत्वपूर्ण विद्या है, जिसमें जीवन के सत्य को समझने, आत्मा और परमात्मा के संबंध को जानने तथा आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने की विधियाँ शामिल हैं। यह विद्या व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठाकर आत्मिक शांति और ज्ञान प्राप्त करने की दिशा में प्रेरित करती है। उपनिषद, भगवद गीता और वेदांत जैसे शास्त्रों में आत्मज्ञान, ध्यान, योग और भक्ति के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग बताए गए हैं।
प्राचीन काल में ऋषि-मुनि इस विद्या में निपुण होकर आत्मबोध प्राप्त करते थे और समाज को धर्म, नैतिकता और सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। यह कला न केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक मानी जाती थी, बल्कि व्यक्ति के चरित्र निर्माण, मानसिक शांति और जीवन के उतार-चढ़ाव में संतुलन बनाए रखने में भी सहायक होती थी। आधुनिक युग में यह विद्या ध्यान (मेडिटेशन), योग, जीवन प्रबंधन और आध्यात्मिक साधनाओं के रूप में विकसित हो चुकी है, जिससे व्यक्ति तनाव मुक्त जीवन जीकर आत्मिक सुख की प्राप्ति कर सकता है।

खजुराहो की 64 काम कलाओं लेखनी से संक्षिप्त शिक्षा
ये 64 काम कलाएँ प्राचीन भारतीय संस्कृति की समृद्धता को दर्शाती हैं। ये सिर्फ शारीरिक और भौतिक सुखों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें आत्मविकास, आध्यात्मिकता, कला, विज्ञान और समाज के हर क्षेत्र की दक्षता शामिल है।
खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों में इन कलाओं का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है। इसलिए खजुराहो सिर्फ काम से जुड़ा नहीं है, बल्कि यह जीवन की विविध कलाओं और उनके आध्यात्मिक पक्ष का अद्भुत संग्रह है। Click on the link गूगल ब्लाग पर अपनी पसंदीदा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।
हमारी यह जानकारी अच्छी लगी हो तो कमेंट बॉक्स में अपना बहुमूल्य विचार व्यक्त करें, ताकि ऐसी ही दुर्लभ जानकारी आप तक पहुंचाने में कलम को बल मिलता रहे। मां कामाख्या देवी की कृपा से भगवान श्री चित्रगुप्त जी महाराज के देव वंश-अमित श्रीवास्तव की कर्म-धर्म लेखनी में आपको हर तरह की जानकारी प्राप्त होती है। बेल आइकन को अभी तक आपने दबा एक्सेप्ट नहीं किये है, तो अभी निचे बेल आइकन को देखकर दबा एक्सेप्ट किजिए।
ऊपर थ्री डाट पर क्लिक किजिये सबसे ऊपर ब्लाग का चयन किजिए, फिर सबसे ऊपर थ्री डाट बिंदु पर क्लिक किजिये, एड होम स्क्रीन पर क्लिक कर एप्स इंस्टाल किजिये। अपने समय अनुसार वेबसाइट खोलकर अपनी पसंदीदा लेख खोज कर पढ़ते रहिए। जिस भी शिर्षक पर आपको जानकारी चाहिए हमे भारतीय हवाटएप्स कालिंग सम्पर्क नम्बर 07379622843 पर सम्पर्क कर सकते/सकती हैं।

sex workers rights in india कानूनी स्थिति, सामाजिक बाधाएँ, सशक्तिकरण के प्रयास एक व्यापक और गहन शोध-आधारित विश्लेषण

रिलेशनशिप में कैसे रहना चाहिए: एक अनदेखा, मगर गहरा बंधन

Coll Bumper: callbomber.in एक मजेदार प्रैंक या खतरनाक हथियार?

Coll girls: कॉल गर्ल्स डिजिटल युग में गूगल सर्च से उजागर सच्चाई, जोखिम और सामाजिक प्रभाव, बेरोजगारी के अंधकार में नई विडंबना, नैतिकता बनाम आवश्यकता

कॉल बॉय जॉब क्या है? Coll boy पूरी जानकारी, इतिहास, योग्यता और कानूनी स्थिति

gigolo culture जिगोलो का कल्चर: बढ़ती मांग, सामाजिक प्रभाव और छिपे हुए सच, क्या आप जानते हैं जिगोलो की पहचान क्या है?

International Play boy: ग्लोबल लक्ज़री और लाइफस्टाइल का प्रतीक

Dialectics in democracy लोकतंत्र में द्वंद्ववाद: बहुमत का शासन या जनता का शोषण?

Elon Musk’s: एलन मस्क का ग्रोक AI विवादों में, गाली-गलौच से भरे जवाबों ने भारत में मचाया बवाल

Hi,
I just visited amitsrivastav.in and wondered if you’d ever thought about having an engaging video to explain what you do?
Our videos cost just $195 for a 30 second video ($239 for 60 seconds) and include a full script, voice-over and video.
I can show you some previous videos we’ve done if you want me to send some over. Let me know if you’re interested in seeing samples of our previous work.
Regards,
Joanna
Unsubscribe: https://removeme.live/unsubscribe.php?d=amitsrivastav.in
Hari
Hi there,
We run a YouTube growth service, which increases your number of subscribers both safely and practically.
– We guarantee to gain you 700-1500+ subscribers per month.
– People subscribe because they are interested in your channel/videos, increasing likes, comments and interaction.
– All actions are made manually by our team. We do not use any ‘bots’.
The price is just $60 (USD) per month, and we can start immediately.
If you have any questions, let me know, and we can discuss further.
Kind Regards,
Katelyn